
दस साल- एक कला शैली के लिए ये तो सफर की बस शुरुआत ही है. पिछले दिनों महमूद फारूकी साहब ने बातचीत के दौरान, जिस सरलता से ये बात कही, उससे मुझे एहसास हुआ कि दास्तानगोई को कितना आगे जाना है और इस सफर में हम सब की जिम्मेदारी क्या है. महमूद साहब फरमाते हैं, ‘दस साल तो बस हमें जमीन खोदने में लगे हैं. खुदाई के बाद अब हम बीज बोएंगे, फिर सिंचाई होगी, तब कहीं जाकर ऋतु आएगी और फल निकलेगा.’ जाती तौर पर इस बात के मायने मेरे लिए बेहद गहरे हैं. एक वक्त था जब रोजगार के लिए मैं अपनी इकलौती कुशलता- ‘कैसे कहा जाए’ – को बाजार में बेच रहा था, ताकि मेरे मालिक अपना सामान बेच सकें. फिर दास्तानगोई के रूप में मुझे एक ऐसी जमीन मिली, जिससे मैंने खुद को ज्यादा जुड़ा हुआ महसूस किया. यहां कैसे कहा जाए के अलावा, ‘क्या कहना है’ भी मेरे दिल के बेहद करीब था.
मेरा मानना है कि हर वो शख्स जिसे लगता है कि वो कहानी सुनाने की हमारी सदियों पुरानी इस परम्परा को फिर से जिंदा करना चाहता है- हर वो शख्स एक बीज है. ये बीज सुनानेवाले यानी दास्तानगो भी हो सकते हैं, और सुननेवाले यानी सामईन भी. पिछले दस सालों में टीम दास्तानगोई देश-विदेश में हजारों लोगों को कहानी सुनने का जायका चखा चुकी है. बेशक, ये सब के सब लौटकर आते हैं और फिर से उस मजे को जीना चाहते हैं. इसी मुहिम में उस्ताद की नवीनतम उपलब्धि है बच्चों को दास्तानगोई से जोड़ना. महमूद साहब की बनाई गई ‘दास्तान एलिस की’ और हमारी एक साथी वेलेंटीना की तैयार की गई ‘दास्तान गूपी बाघा की’, खास तौर पर बच्चों को ध्यान में रखकर पेश की गईं. ये तरक्की किसी इंकलाब से कम नहीं है. आपाधापी के इस दौर में जहां बच्चों के हाथ में आई-पैड थमा दिए जाते हैं ताकि मां-बाप बिना किसी रुकावट के अपने दफ्तर का काम कर सकें, एक घंटे तक माता-पिता का अपने नन्हे-मुन्नों को गोद में रखे, एक साथ किसी कहानी का लुत्फ उठाना- ये नजारा एक उम्मीद देता है.
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