इस लोकसभा चुनाव के लिए यह रिकॉर्ड ही कहा जाएगा कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने आधे दर्जन राज्यों की सभी सीटें जीती हैं. इसमें भी विशेष बात है कि राजस्थान, गुजरात, हिमाचल, उत्तराखंड, दिल्ली और गोवा की इन सभी सीटों पर उसका कांग्रेस से सीधा मुकाबला था, यानी चुनाव में यहां कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया. इन राज्यों में यदि गुजरात को छोड़ दें तो भाजपा की जीत से फिलहाल कांग्रेस से जुड़े कोई दीर्घकालिक नतीजे नहीं निकाले जा सकते. लेकिन इसके साथ देश में दो राज्य ऐसे भी हैं जहां कहने के लिए तो कांग्रेस का सूपड़ा साफ नहीं हुआ लेकिन बीते एक दशक में वह ऐसी हालत में पहुंच चुकी है जहां से उसकी वापसी दिन प्रतिदिन मुश्किल होती जा रही है. हम बात कर रहे हैं मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की. इन दोनों राज्यों में कांग्रेस को क्रमश: दो और एक सीट मिली है.
पिछले तीन विधानसभा और इस आम चुनाव में मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की पराजय औचक रूप से नहीं हुई. दरअसल इसकी पटकथा पिछले दो दशकों से लिखी जा रही थी. इसकी इबारत बताती है कि यदि कांग्रेस मध्य प्रदेश (कुल सीट 29) में 12 में से दो सीटों पर सिमट गई या छत्तीसगढ़ (कुल सीट 11) में चरणदास महंत, अजीत जोगी जैसे दिग्गज नेता चुनाव हार गए तो इसकी पीछे कथित ‘मोदी लहर’ से बड़ी वजहें जिम्मेदार हैं. ये वजहें, कांग्रेस के नजरिए से कहें तो कमजोरियां, इस हद तक पार्टी पर हावी हैं कि निकट भविष्य में पार्टी के लिए उनसे निजात पाना मुश्किल ही लग रहा है. तो आखिर क्या हैं वे वजहें और कैसे वे कांग्रेस के लिए इन दोनों राज्यों में विलुप्ति का सबब बन सकती हैं.
पार्टी से बड़े क्षत्रप
दोनों ही प्रदेशों में कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि उसके कई क्षत्रप मैदान में हैं. इन्हीं की आपसी खींचतान और खुद को सबसे ऊपर रखने की होड़ ने कांग्रेस के ताबूत में कील ठोकने का काम किया है. मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ, अजय सिंह राहुल (कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे अर्जुन सिंह के पुत्र) की सियासी खींचतान ने पार्टी को मृत्युशैया पर पहुंचा दिया है. वहीं छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी, चरणदास महंत, शुक्ल गुट, सत्यनारायण शर्मा, मोतीलाल वोरा जैसे दिग्गज नेताओं ने अपने अहम की पूर्ति के आगे पार्टी हितों को बौना कर दिया है. छत्तीसगढ़ में चुनाव का पूरा वक्त नेताओं की आपसी लड़ाई में बीत गया. अजीत जोगी को आगे बढ़ने से रोकने के लिए पहले सारे गुट एक होकर जोगी बनाम संगठन की लड़ाई को हवा देते रहे फिर ऐन चुनाव के वक्त कई विधायकों ने अपने-अपने क्षेत्रों में काम करने के बजाय अपने आकाओं के इलाके में हाजिरी लगानी शुरू कर दी. यही कारण था कि विधानसभा चुनाव में जिन सीटों पर कांग्रेस जीती थी उसका फायदा लोकसभा चुनाव में पार्टी को नहीं मिल पाया. इसका सबसे सटीक उदाहरण छत्तीसगढ़ की सरगुजा सीट है. अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित इस लोकसभा सीट में आने वाली आठ विधानसभा सीटों में से सात पर कांग्रेस का कब्जा है. महज चार महीने पहले संपन्न विधानसभा चुनाव में सरगुजा में कांग्रेस को पांच लाख पचहत्तर हजार से ज्यादा वोट मिले थे. जबकि भाजपा को चार लाख सड़सठ हजार वोट. यानी यहां की आठ विधानसभा सीटों पर कांग्रेस को करीब एक लाख वोट से अधिक की बढ़त मिली थी. विधानसभा चुनाव के दौरान पूरे छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का सबसे अच्छा प्रदर्शन सरगुजा लोकसभा क्षेत्र में ही रहा है. लेकिन मतों की इस बढ़त को कांग्रेस लोकसभा चुनाव में कायम नहीं रख पाई और हार गई.
नेतृत्व का अभाव
चाहे मध्य प्रदेश हो या छत्तीसगढ़, दोनों ही राज्यों में कांग्रेस के पास बरसों से मजबूत नेतृत्व की कमी है. दोनों ही राज्यों में बार-बार नए गुट को प्रदेश की कमान सौंपी गई लेकिन कोई भी पार्टी को मजबूती नहीं दे पाया. प्रदेश अध्यक्षों ने सबको साथ लेकर चलने के बजाय गुटबाजी को ही बढ़ावा दिया. मध्य प्रदेश में सुभाष यादव, सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया, अरुण यादव पार्टी प्रमुख बने लेकिन कोई भी कांग्रेस को संजीवनी नहीं दे पाया. प्रदेश नेतृत्व ने कार्यकर्ताओं में असंतोष बढ़ाने का ही काम किया परिणामस्वरूप इस लोकसभा चुनाव में वर्तमान अध्यक्ष अरुण यादव, पूर्व अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया, पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल, सज्जन सिंह वर्मा, प्रेमचंद गुड्डू, मीनाक्षी नटराजन (टीम राहुल की अहम सदस्य) सरीखे दिग्गज नेता चुनाव हार बैठे. वहीं छत्तीसगढ़ में भी धनेंद्र साहू, चरणदास महंत, भूपेश बघेल जैसे नेताओं ने पार्टी को हाशिए पर पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. खासतौर पर चरणदास महंत और भूपेश बघेल ने प्रदेश अध्यक्ष रहते नासमझी भरे बयान दे-देकर पार्टी को कई टुकड़ों में बांट दिया. केवल नंदकुमार पटेल ऐसे अध्यक्ष बनकर आए थे जो सभी को साथ लेकर चलने की रणनीति पर काम कर रहे थे. लेकिन कांग्रेस का दुर्भाग्य कि वे झीरम घाटी नक्सल हमले में मारे गए.
भाजपा का ‘वन लीडरशिप फार्मूला’
भाजपा का ‘एक नेतृत्व’ फार्मूला भी नेतृत्व विहीन कांग्रेस के लिए भारी पड़ रहा है. मध्य प्रदेश में हर छोटे बड़े फैसले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लेने की स्वतंत्रता है तो वहीं छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रमन सिंह भी पार्टी के अघोषित सर्वेसर्वा हैं. चाहे टिकट वितरण का मामला हो या सत्ता और संगठन में नियुक्तियों का, मुख्यमंत्री की मर्जी के बगैर संगठन कोई फैसला नहीं करता. दोनों ही राज्यों में पार्टी अध्यक्ष भी अप्रत्यक्ष रूप से दोनों मुख्यमंत्रियों के अधीन होकर ही काम करते हैं. भाजपा का वन लीडरशिप फार्मूला ही है जो पूरी पार्टी को एक सूत्र में बांधने का काम करता रहा है.
शिवराज सिंह चौहान और डॉ रमन सिंह ने इन प्रदेशों में पार्टी का पूरा नियंत्रण अपने हाथ ले रखा है जिससे वे कांग्रेस पर भारी पड़ते हैं
जितने नेता, उतने मुख्यमंत्री के दावेदार
Congress should learn from BJP in CG and MP…
as if there was no Modi Lahar …..BJP would have won
in both cases….
Congress should stop fighting within party and think about party….
Priyanka ji i read your each and every story….
very informative with data