क्या गांधी परिवार के बिना कांग्रेस का कोई वजूद संभव है?

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

बीते लोकसभा चुनाव की बात है. प्रचार के लिए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी गुजरात के दाहोद लोकसभा क्षेत्र में पहुंचे थे. देवगढ़ बरिया नाम की एक जगह पर उनकी रैली थी. आयोजन शुरू हुआ. राहुल गांधी मंच पर बैठे थे. इससे थोड़ी ही दूर एक महिला एसपीजी से गुहार लगा रही थी कि उसे मंच पर जाने दिया जाए. वह सुरक्षाकर्मियों को बता रही थी कि उसका नाम  डॉ. प्रभा किशोर ताविआड़ है और वह दाहोद से कांग्रेस की लोकसभा प्रत्याशी है जिसके पक्ष में राहुल चुनाव प्रचार करने आए हैं. लेकिन एसपीजी ने महिला को मंच पर जाने नहीं दिया. रैली खत्म हुई. उसके बाद जब राहुल गांधी अपने हेलिकॉप्टर की तरफ बढ़ रहे थे तो प्रभा राहुल से मिलने के लिए दौड़ती हुईं उनकी ओर बढ़ीं. वे राहुल तक पहुंचतीं तब तक राहुल अपने उड़नखटोले में बैठ गए. प्रभा न राहुल से मिल पाईं और न राहुल यह जान पाए कि वे यहां दाहोद में किस प्रत्याशी के चुनाव प्रचार में आए थे.

यह एक छोटा-सा उदाहरण है, जो कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी के बारे में बहुत कुछ बताता है. इससे पता चलता है कि कैसे लोकसभा चुनाव में जनता ने कांग्रेस को जो फैसला सुनाया है, वह उसकी सच्ची हकदार थी.

कांग्रेस के राजनीतिक इतिहास की यह सबसे बड़ी हार है. 12 राज्यों में उसका खाता तक नहीं खुला. उसके 16 में से 13 कैबिनेट मंत्री चुनाव हार गए. किसी भी राज्य में पार्टी दहाई का आंकड़ा नहीं छू पाई. इस बार का 19.3 फीसदी उसे अब तक मिला सबसे कम मत प्रतिशत है. 1999 में 114 सीटों के साथ अपना तब तक का सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली पार्टी इस बार 44 सीटों पर सिमट गई.

चुनाव परिणाम आने के बाद से ही कांग्रेस पार्टी के भीतर घमासान मचा हुआ है. हर नेता के पास पार्टी की हार का अपना ‘सॉलिड’ कारण मौजूद है. हार के कारणों के लिए शुरू हुए निर्मम पोस्टमॉर्टम से गांधी परिवार भी बच नहीं पाया है. पार्टी के भीतर ही तमाम ऐसे लोग हैं जो गंभीरता के साथ कहते हैं कि इस बार की हार पहले गांधी परिवार की हार है, फिर पार्टी की. हार के लिए परिवार को जिम्मेदार मानने वालों का तर्क है कि पार्टी और सरकार, दोनों की कमान परिवार के हाथ में ही थी, उन छिटपुट मौकों के अलावा जब मनमोहन सिंह ने यह जताने की कोशिश की कि इस देश में प्रधानमंत्री है और वह 10 जनपथ के रिमोट से संचालित नहीं होता. यानी कुछेक अपवादों के इतर सरकार की पिछले 10 सालों की छवि ऐसी ही रही है कि वह गांधी परिवार की इच्छाओं से संचालित होती है. लोकसभा चुनाव प्रचार की कमान पूरी तरह से परिवार के हाथ में ही रही. प्रचार के दौरान जो भी पोस्टर लगे उसमें राहुल ही यह कहते दिखाई दिए कि ‘मैं नहीं हम’, लेकिन पोस्टर का भाव मैं और सिर्फ मैं वाला ही था. जिस सरकार के काम पर जनादेश मांगने कांग्रेस पार्टी चुनावों में जा रही थी उस सरकार के किसी भी मंत्री की तस्वीर चुनावी इश्तहारों में नहीं थी. सबकुछ राहुलमय ही था. जो प्रधानमंत्री पिछले 10 सालों से शासन कर रहा था उसने इस चुनाव में कहां-कहां प्रचार किया, यह पता करने के लिए पहले माथा खपाना पड़ेगा और उसके बाद रैलियों और सभाओं की संख्याओं को उंगलियों पर गिना जा सकेगा.

तो ऐसी स्थिति में जो चुनाव परिणाम आया है उसे अगर पार्टी के भीतर लोग तेरा तुझको अर्पण की तर्ज पर गांधी परिवार को समर्पित कर रहे हैं तो इसमें कुछ गलत दिखाई नहीं देता. लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त मिलने के बाद पार्टी नेतृत्व पर सवाल उठाने वाली ताकतों ने भी तेजी से सर उठाया है. इसे साहस कहें या बहुत लंबे समय से मन में पल रहा गुस्सा कि पार्टी के नेता यह बताने लगे हैं कि कमी कहां रह गई, किसने गलती की आदि. मिलिंद देवड़ा ने राहुल के सलाहकारों पर प्रश्न उठाकर एक तरह से राहुल पर ही सवाल खड़ा कर दिया तो दूसरी तरफ प्रिया दत्त ने भी पार्टी के प्रचार अभियान में नुक्स निकालने में कमी नहीं रखी. असम में पार्टी की करारी हार के बाद तरूण गोगोई ने सोनिया गांधी को इस्तीफा सौंपा जिसे सोनिया ने खारिज कर दिया. सोनिया के इस्तीफा खारिज करने संबंधी निर्णय का असम में पार्टी के कई विधायकों ने सरेआम विरोध किया. चुनाव के बाद से शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरा हो जिस दिन कांग्रेस के किसी नेता ने सार्वजनिक रूप से पार्टी की चुनावी रणनीति की आलोचना न की हो.

इसी से कुछ स्वाभाविक सवाल पैदा होते हैं. जब परिवार के कारण पार्टी की यह फजीहत हुई है तो फिर हार का ठीकरा परिवार के सिर क्यों न फोड़ा जाए? अगर पार्टी को इस चुनावी त्रासदी तक परिवार ने पहुंचाया है तो फिर पार्टी परिवार से खुद को अलग क्यों न कर ले? क्यों न वह एक ऐसी पार्टी बन जाए जो गांधी परिवार के रिमोट से संचालित नहीं होती?  क्या समय आ गया है जब पार्टी को परिवार से कह देना चाहिए कि अब बस, वह किसी गांधी के इशारे पर नहीं चलेगी? लोकतंत्र में नेता वही होता है जिसके साथ जनता हो. चुनाव नतीजों ने साफ किया है कि जनता कांग्रेस नेतृत्व के साथ नहीं है. तो क्या अब नेतृत्व के लिए कांग्रेस गांधी परिवार से बाहर देखने की कोशिश या हिम्मत करेगी?

साभार फोटोः आइएएनएस
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इन सारे सवालों का जवाब एक सवाल में ही छिपा है. सवाल यह कि क्या गांधी परिवार से अलग कांग्रेस पार्टी का का कोई वजूद संभव है?

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अजय बोस इससे इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘कांग्रेस पार्टी गांधी परिवार की घरेलू कंपनी की तरह है. यह इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस पार्टी है. परिवार के बिना कांग्रेस का अपना कोई अस्तित्व नहीं बचेगा. अगर कभी गांधी परिवार पार्टी से दूर हुआ तो पार्टी बचेगी ही नहीं. सारे नेता एक दूसरे से लड़कर खत्म हो जाएंगे.’  अपनी बात को विस्तार देते हुए बोस वर्तमान कांग्रेस की तुलना कुछ अन्य पार्टियों से करते हुए कहते हैं, ‘ वर्तमान कांग्रेस सपा, डीएमके और टीएमसी जैसी पार्टियों की तरह ही है जिनका अपने सुप्रीमो के इतर कोई अस्तित्व नहीं है. पार्टी एक पल के लिए परिवार से बाहर नहीं सोच सकती.’

जानकारों का मानना है कि आज कांग्रेस पार्टी का जो ढांचा है उसे देखते हुए पार्टी को परिवार से अलग करना असंभव है. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘पार्टी से अगर आप सोनिया जी, राहुल जी को अलग करेंगे तो फिर उसके पास बचेगा क्या. वह बिखर जाएगी. यह प्रयोग पहले हो चुका है जब 1996 और 1998 के बीच पार्टी ने दो अध्यक्षों को हड़बड़ी में बदल दिया. उसका क्या नतीजा निकला सभी को पता है. पार्टी के लिए परिवार ऑक्सीजन की तरह है. ’

‘पार्टी अपने अस्तित्व के लिए परिवार पर निर्भर है. तो दूसरी तरफ परिवार भी अपने अस्तित्व के लिए पार्टी पर आश्रित है. साथ रहना दोनों की मजबूरी है’

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘अब पार्टी से परिवार या परिवार से पार्टी के अलग होने की संभावना नहीं है. एक दौर में परिवार पार्टी से अलग हो चुका है. सीताराम केसरी के उस दौर में पार्टी खत्म होने की स्थिति में आ गई थी.’ राजनीतिक टिप्पणीकार नीरजा चौधरी गिरिजाशंकर की बात को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं, ‘परिवार के हटते ही पार्टी अनगिनत गुटों में बंट जाएगी. पार्टी के लिए परिवार का सबसे बड़ा महत्व यह है कि उसने उसे इकट्ठा रखा है.’ कांग्रेस पार्टी को बेहद करीब से जानने वाले राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई पार्टी और परिवार के संबंधों की चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘पार्टी नीचे से लेकर ऊपर तक पूरी तरह से परिवार पर आश्रित है. यह संबंध दोतरफा है. पार्टी अपने अस्तित्व के लिए परिवार पर निर्भर है तो दूसरी तरफ परिवार भी अपने अस्तित्व के लिए पार्टी पर आश्रित है. साथ रहना दोनों की मजबूरी है.’

कांग्रेस का इतिहास बताता है कि जब कभी वह कमजोर हुई, उसके नेताओं ने उसका साथ छोड़ने में देर नहीं की. 1988 में लोकसभा चुनावों से ठीक पहले वीपी सिंह पार्टी से बाहर निकल गए और उन्होंने जनता दल का गठन किया. 1991 से 96 के बीच जब नरसिम्हा राव कांग्रेस सरकार के मुखिया थे तो अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी, माधवराव सिंधिया, चिदंबरम और ममता बनर्जी ने पार्टी से बाहर निकलकर अपनी अलग राजनीति की शुरुआत की. 1998 में सोनिया गांधी के अध्यक्ष पद संभालने के बाद 1999 में उनके विदेशी मूल के मुद्दे को लेकर शरद पवार, तारिक अनवर और पीए संगमा जैसे नेताओं ने पार्टी से बाहर निकलकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया. पार्टी पर नजर रखने वाले इस बात की संभावना जरूर जताते हैं कि आने वाले समय में कुछ लोग कांग्रेस का दामन छोड़ सकते हैं. लेकिन पार्टी में अब ऐसे कद्दावर नेता न के बराबर बचे हैं जो बाहर निकलकर अपनी अलग राजनीतिक शुरुआत कर सकें. ऐसे में ये नेता दूसरे दलों का रुख जरूर कर सकते हैं.

सोनिया गांधी ने अपने बाद राहुल गांधी के लिए नेतृत्व का रास्ता तैयार करने की कोशिश की, लेकिन राहुल राजनीति में पूरी तरह से नाकामयाब होते दिखते हैं

पार्टी के नेता पार्टी के लिए परिवार के महत्व की चर्चा करते हुए कहते हैं कि जब-जब कांग्रेस परिवार से दूर हुई है, वह खत्म होने के करीब होती गई है. वे उदाहरण देते हैं कि कैसे सीताराम केसरी के जमाने में पार्टी बिखराव की स्थिति में पहुंच गई थी और कैसे सोनिया ने आकर पार्टी को संभाला था. नहीं तो पार्टी खत्म हो गई होती. खैर, इस तरह पार्टी और परिवार के संबंधों पर पार्टी के अंदर और बाहर लोगों से चर्चा करने पर यह बात निकल कर आती है कि कैसे परिवार के साथ बने रहना ही कांग्रेस के हित में है. तो सवाल उठता है कि जब पार्टी के पास परिवार से दूर जाने का कोई विकल्प नहीं है तो फिर भविष्य में खुद को स्थापित करने के लिए उसके पास विकल्प क्या बचता है.

राजनीतिक जानकार कहते हैं कि यही कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. हार तो अस्थाई है, लेकिन पार्टी के सामने नेतृत्व की जो समस्या खड़ी है उसे उसका कोई स्थायी समाधान दिखाई नहीं देता. दिक्कत इसलिए भी है क्योंकि कांग्रेस का नेतृत्व गांधी परिवार के दायरे में ही निर्धारित होना है.

यह प्रश्न गंभीर इसलिए हो जाता है क्योंकि सोनिया गांधी ने अपने बाद राहुल गांधी के लिए नेतृत्व का रास्ता तैयार करने की कोशिश की, लेकिन वे चुनावी राजनीति में पूरी तरह से नाकामयाब होते दिखाई देते हैं. हाल के लोकसभा चुनाव परिणामों के अलावा पूर्व में कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में हुई पार्टी की हार ने राहुल के नेतृत्व और उनकी क्षमताओं पर गंभीर प्रश्न खड़ा किया है. राहुल के बारे में कहा जाने लगा है कि उन्हें राजनीति में रुचि नहीं है. वे एक अनिच्छुक राजनेता हैं. नीरजा कहती हैं, ‘राहुल के राजनीतिक करियर को देखने से पता चलता है जैसे उनसे कोई जबर्दस्ती राजनीति करा रहा है. वे बेमन से काम करते हुए दिखाई देते हैं.’

बीते चुनाव में ही राहुल की सक्रियता को लेकर तमाम सवाल उठाए गए. पार्टी के अंदर के नेताओं का यह कहना था कि उन्हें खुद नहीं पता होता था कि राहुल कब देश में हंै और कब विदेश में. चुनाव प्रचार के दौरान भी उनकी विदेश यात्राएं जारी रहीं. राहुल के संसदीय रिकॉर्ड पर नजर डालें तो पता चलता है कि पिछली लोकसभा में सदन में उनकी उपस्थिति सांसदों के औसत 70 फीसदी की तुलना में 43 फीसदी थी. पूरे कार्यकाल में राहुल ने कोई प्रश्न नहीं पूछा था.

राहुल की सीमाओं की चर्चा करते हुए रशीद कहते हैं, ‘राहुल को उपाध्यक्ष बनाकर और अपने बाद पार्टी की बागडोर संभालने वाले का संदेश देकर सोनिया गांधी ने भी गलती की. राहुल क्या हैं? उनकी क्षमताएं क्या हैं ? यह किसी को पता नहीं था. सोनिया को उन्हें यूपीए 2 में मंत्री बनाना चाहिए था. लेकिन दिक्कत यह रही कि पार्टी में सत्ता को लेकर सभी सोनिया की तरह ही त्यागी हो गए. जिम्मेदारी के बगैर सत्ता का स्वाद चखने की बीमारी फैल गई. 2009 में खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राहुल को मंत्री बनाने का प्रस्ताव दिया था जिसे राहुल ने नकार दिया.’

पार्टी के एक राज्य सभा सदस्य कहते हैं, ‘ मंत्री बनकर  अगर राहुल ने प्रशासनिक और नेतृत्व क्षमता हासिल कर ली होती और तब वे कुछ कहते तो लोगों को उनकी बातों पर भरोसा होता. लेकिन वे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाई दिए जिसका अनुभव धेले के बराबर नहीं है, लेकिन बातें वह बड़ी-बड़ी करता है’.

ऊपर से लेकर नीचे तक पार्टी में कई नेता हैं जो कुछ यही बात कहते हैं. उत्तर प्रदेश के हरदोई में पार्टी के शहर अध्यक्ष शशिभूषण शुक्ला उर्फ शोले कहते हैं, ‘दिक्क्त अब यह है कि कि पार्टी कार्यकर्ता भी राहुल जी को परिपक्व नहीं मानता. पार्टी में सक्रिय होने के बाद से उन्होंने जो भी फैसले लिए हैं उनमें से किसी एक भी फैसले से पार्टी का भला नहीं हुआ. एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस में उन्होंने ऐसा परिवर्तन किया कि दोनों संगठन अखाड़ा बन गए. लोग वहां एक दूसरे से सिरफुटौव्वल कर रहे हैं.’ मई, 2011 में भट्टा परसौल में किसान आंदोलन, 2012 के यूपी विधानसभा चुनावों में सक्रियता के साथ प्रचार, दलितों के घर खाना खाने जाना, ओडिशा के नियामगिरी में जाकर आदिवासियों से यह कहना कि मैं आपका सिपाही हूं, ये कुछ ऐसे गिने चुने तारे हैं जिनसे राहुल के 10 साल के राजनीतिक करियर का अंधकार में डूबा आकाश कुछ चमक देख पाता है. यह भी उल्लेखनीय है कि भले ही 10 साल के अपने कार्यकाल में राहुल कुछ उल्लेखनीय न कर पाए हों लेकिन पार्टी में उनका कद बढ़ता चला गया.

‘राहुल को नुकसान पहुंचाने में प्रियंका की भी भूमिका रही है. बाहर आकर प्रियंका ने अपने भाई को मजबूत करने की जगह और कमजोर किया है’

हालांकि पार्टी के कुछ नेता याद दिलाते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जो 21 सीटें मिलीं थीं उसमें राहुल गांधी का भी बड़ा योगदान है. उत्तर प्रदेश में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री कहते हैं, ‘राहुल के बारे में बात करते समय लोग इस तथ्य को भूल जाते हैं कि उन्होंने यूपी के चुनावों में कितना पसीना बहाया. कितनी कड़ी मेहनत की थी. परिणाम उसके अनुरूप नहीं आए, लेकिन आप उनकी मेहनत पर प्रश्न नहीं उठा सकते’

कुछ समय पहले दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में कांग्रेस का एक सम्मेलन था. उसमें राहुल गांधी के भाषण की काफी चर्चा हुई थी. लेकिन राहुल अपने बारे मंे उस तरह की चर्चा को आगे नहीं बढ़ा सके. हां, वे अपने अजीबोगरीब बयानों के कारण जरूर चर्चा में रहे. चाहे गरीबी को मानसिक अवस्था बताने वाली बात हो या फिर यूपी चुनावों में सैम पित्रौदा को बढ़ई बताने वाला बयान हो या भारत को मधुमक्खी का छत्ता बताने संबंधी उनका कथन, उनकी ज्यादातर बातों पर विरोधी चुटकी लेते देखे गए.

राहुल की सीमाओं की चर्चा करते हुए बोस कहते हैं, ‘राहुल की सबसे बड़ी दिक्कत यह रही है कि उनकी राजनीतिक शुरुआत ही पार्टी के सत्ता में रहने के दौर में हुई. दूसरी बात यह कि वे लगातार सत्ता में रहे, लेकिन हमेशा कहते रहे कि पूरी व्यवस्था खराब है, सब बदलना होगा जबकि उनकी अपनी पार्टी की सरकार थी. बहुत से ऐसे मौके आए जब वे आम जनता और युवाओं से जुड़ सकते थे, लेकिन वे पीछे रहे. जैसे अन्ना आंदोलन और निर्भया बलात्कार प्रकरण के समय जब युवा सड़कों पर थे तो राहुल गांधी कहीं दिखाई नहीं दिए. निर्भया के समय यह नारा भी चला था कि सारे युवा यहां हैं, राहुल गांधी कहां है.’ कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘आम कांग्रेसी राहुल के नेतृत्व में भरोसा खो चुका है. लेकिन सोनिया जी अगर पुत्रमोह में उन्हें मौका देना चाहती हैं तो फिर कांग्रेस का भगवान ही मालिक है.  राहुल ईमानदार हैं. उनकी स्वच्छ छवि है, लेकिन बुद्धि, विवेक और नेतृत्व क्षमता भी तो कोई चीज होती है. इसके बिना आदमी घर का नेतृत्व नहीं कर सकता देश का क्या करेगा. स्थिति यह है कि फोर्ब्स पत्रिका ने लिखा है कि राहुल गांधी भारत के पूर्व भविष्य के प्रधानमंत्री हैं.’

हालांकि गिरिजाशंकर राहुल गांधी को खारिज करने की सोच पर प्रश्न उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘राहुल को कांग्रेस ने आधे अधूरे मन से आगे किया. पार्टी ने खुद भ्रम की स्थिति पैदा की. जनता भी इससे भ्रमित हुई.’ वे भाजपा का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘मान लीजिए भाजपा ने मोदी को चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाकर छोड़ दिया होता तो क्या वे उतना ही असर डालते जितना उन्होंने पीएम प्रत्याशी बनने के बाद डाला. जनता को पता था कि वह किसे किस पद के लिए चुन रही है. लेकिन इधर राहुल को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाकर पार्टी ने छोड़ दिया. पार्टी खुद अनिर्णय की स्थिति में थी कि राहुल को पीएम पद के लिए प्रोजेक्ट करे या नहीं. राहुल पर खुद उसे ही भरोसा नहीं था तो फिर वह जनता से कैसे निर्णय की उम्मीद कर सकती थी. राहुल पर फैसला तब दिया जा सकता था जब राहुल के नाम पर चुनाव लड़ा गया होता ’

कांग्रेस के भीतर ही राहुल की कोर टीम को लेकर किस तरह का गुस्सा उबल रहा था यह चुनाव के बाद नेताओं के बयानों से सामने आ गया. इन नेताओं के बयानों को अगर ध्यान से देखें तो समझ में आता है कि उनकी नाराजगी का असली निशाना राहुल गांधी ही हैं. मिलिंद ने कहा कि सलाह देने वाले पार्टी की बुरी गत के लिए जिम्मेदार हैं ही, साथ में वे भी उतना ही इस हार के लिए जिम्मेदार हैं जो इनसे सलाह ले रहे थे.’ पार्टी के तमाम नेता आज पार्टी के उन तमाम गैरराजनीतिक लोगों को कोस रहे हैं जो राहुल गांधी को सलाह देने का काम किया करते थे.  कार्यकर्ता राहुल और उनकी टीम को कैसे देखता है उसकी एक बानगी देखिए, शशिभूषण कहते हैं, ‘राहुल जी को जनता अपरिपक्व मानती है. उनके सलाहकार भी वैसे ही हैं. जिन लोगों को राजनीतिक का क, ख, ग, घ नहीं आता उन्होंने फैसला लेना शुरु कर दिया. ’ पार्टी के एक वरिष्ठ नेता राहुल गांधी पर चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम सामने आने के बाद राहुल ने कहा था कि वे पार्टी को कुछ ऐसे बदलेंगे कि जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते. उन्होंने लोकसभा में यह करके दिखा दिया.’

रशीद कहते हैं, ‘दिक्कत यह भी रही कि राहुल जयराम रमेश और अपनी टीम के साथ मिलकर चुनाव लड़ने और जीतने की जगह संस्थाएं मजबूत करने के कार्य में लग गए थे. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘राहुल जी एक्सपेरिमेंट करने लगे. वे ऐसे सलाहकारों से घिर गए जिनका जमीनी राजनीति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था. मोहन गोपाल, जयराम रमेश, मधुसूदन मिस्त्री, कनिष्क सिंह, दीप पॉल जैसे लोगों ने उन्हें गुमराह करने का काम किया. राहुल को हरा चश्मा पहनाकर वे कहते रहे कि देखिए, चारों तरफ हरा ही हरा है. जिस प्राइमरी चुनाव की शुरुआत राहुल ने की उसके माध्यम से चुने गए सारे प्रत्याशी चुनाव हार गए. स्थिति यह थी कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को राहुल से मिलने के लिए टीम के नए लड़कों से समय लेना पड़ता था. उन्होंने पार्टी को एक ट्रेनिंग ग्राउंड बना दिया.’

राहुल पर कांग्रेस के नेता ही कथनी और करनी में भेद करने का आरोप लगाते हैं. पार्टी के एक पूर्व सांसद कहते हैं, ‘आप राहुल जी के कामों को ध्यान से देखेंगे तो आपको कथनी और करनी का भेद पता चल जाएगा. जैसे पहले उन्होंने कहा कि दूसरी पार्टी से आने वालों को कांग्रेसी कार्यकर्ताओं पर तवज्जो नहीं दी जाएगी.  लेकिन छत्तीसगढ़ में चुनाव से 10 दिन पहले पार्टी में आई करुणा शुक्ला को पार्टी ने टिकट दे दिया. मध्य प्रदेश में भाजपा मंत्री विजय शाह के भाई अजय शाह प्रत्याशी नामित होने के बाद पार्टी में आए. राहुल ने भ्रष्ट नेताओं को बचाने वाला अध्यादेश फाड़कर पहले प्रधानमंत्री को अपमानित किया और फिर लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया. भ्रष्टों का विरोध करते रहे लेकिन अशोक च्वहाण को टिकट देने से नहीं चूके.’

2 COMMENTS

  1. ज़मीनी हकीक़त को बयाँ करता सधा हुआ विश्लेषण. काबिले तारीफ़ वर्णन शैली.टूटकर बिखरने की हद तक का ख़तरा उठाने वाला दर्पण-दर्शन.ऐसे सधे विश्लेषण कम ही पढ़ने को मिलते हैं.चाटुकारों से मुँह चटवाने की आदत फिर भी जाने वाली नहीं फिर भी यह अंदाज़े बयाँ –
    “हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग.
    रो-रो के बात कहने की आदत नहीं रही.”
    निश्चय ही आँखें खोलने वाला है.हिम्मत से सच कहने के लिए बहुत-बहुत बधाई!
    -डॉ.गुणशेखर ,ग्वान्ग्ज़ाऊ,चीन.

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