मैत्रेयी का यह उपन्यास स्त्री के शोषण और उसके उत्पीड़न की एक ऐसी महागाथा है, जिसे पढ़ते हुए हम दुःख की एक विशाल नदी को पार करते हैं और राजसभा में अपमानित हो रही महाभारत की द्रौपदी से लेकर आज की निर्भया हमारे सामने प्रत्यक्ष हो जाती है.
उपन्यास में लोहापीटा परिवारों का जैसा सजीव चित्रण हुआ है, वह अनूठा है. उनकी परम्परा, रीति-रिवाज, रहन-सहन और विकास के इस आधुनिक युग में उनकी आजीविका पर आये संकट को जिस प्रकार मैत्रेयी ने अभिव्यक्त किया है, वैसा पहले किसी उपन्यास में नहीं हुआ.
यह उपन्यास मानव सभ्यता के विकास क्रम को लेकर एक बड़ा सवाल छोड़ जाता है. एक पूर्व डकैत अजय सिंह द्वारा बेला को लिखी चिठ्ठी देखिए, ‘अखबार में हम क्या पढ़ें? हत्याओं, बलात्कारों और औरतों को जलाने की वारदातों से पटा पड़ा रहता है. हमें अजूबा लगता है बिन्नू कि हमें लोग डकैत, हत्यारा क्यों मान रहे हैं? औरतों और लड़कियों की गुहार ऐसी कि रास्ता न सूझे… क्या वे बाहर निकलना छोड़ दें, सड़क उनके लिए नहीं है, विश्वविद्यालय खूनी जंगल हैं, बसें बलात्कारियों के लिए सेफ जगह…’ के उत्तर में बेला क्या लिखे? क्या यही कि, ‘कैसा विधान है कि नागरिक डाका डाल रहे हैं, हत्या कर रहे हैं, बलात्कारों के क्षेत्र बनाते जा रहे हैं और एक डाकू तथाकथित अपराधी, समाज का कलंक इस स्थिति पर विलाप कर रहा है, सज्जनता की रस्सियों में बंधा छटपटा रहा है.’ निश्चय ही यह उपन्यास बहुत सारी अमानवीयता के विरुद्ध न सिर्फ खड़े होने का साहस प्रदान करता है वरन सामाजिक बदलाव का संदेश भी देता है.