पिछले कुछ समय में हरियाणा की राजनीति ने ऐसे बदलाव देखें हैं जिनकी कल्पना चंद महीने पहले तक शायद ही किसी ने की हो. कौन सोच सकता था कि कांग्रेस से अपना 45 साल पुराना रिश्ता तोड़ते हुए चौधरी बीरेंद्र सिंह विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भाजपा में शामिल हो जाएंगे? या फिर हुड्डा के लंगोटिया दोस्त और उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचानेवाले विनोद शर्मा उनका और कांग्रेस का साथ छोड़कर अपनी अलग पार्टी बना लेंगे. किसे पता था कि अपनी खोई सियासी जमीन पाने के लिए बड़ी शिद्दत से 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों का इंतजार कर रहे इंडियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी) के कर्ताधर्ता वयोवृद्ध ओमप्रकाश चौटाला और उनके पुत्र अजय चौटाला चुनाव के साल भर पहले ही जेल पहुंच जाएंगे.
लेकिन ये बड़े बदलाव भी उस उलटफेर के आगे कुछ बौने दिखाए देते हैं जो भारतीय जनता पार्टी ने हरियाणा में पिछले लोकसभा चुनाव में किये. राज्य की 10 लोकसभा सीटों में से जिन आठ पर पार्टी ने चुनाव लड़ा उनमें से सात पर उसने जीत दर्ज की. चुनाव में उसे सबसे अधिक 34 फीसदी वोट मिले. दूसरे नंबर पर आईएनएलडी थी जिसे उससे 10 फीसदी कम 24 फीसदी मत मिले. प्रदेश के 90 विधानसभा क्षेत्रों में से 50 पर भाजपा सबसे आगे रही. जबकि 2009 में वह हांफते हुए सिर्फ सात सीटों पर बढ़त बना पाई थी.
तो क्या यह माना जाए कि आगामी विधानसभा चुनाव में भी भाजपा यही करामात दिखानेवाली है? राजनीतिक विश्लेषक कमल जैन भाजपा की संभावनाओं पर चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘ लोकसभा चुनाव जीतने के बाद पार्टी की उम्मीदें सातवें आसमान पर हैं. इस समय हरियाणा में कोई दल अगर अपनी जीत को लेकर पूरी तरह आश्वस्त है तो वह भाजपा ही है.’
हरियाणा में भाजपा की राजनीतिक हैसियत लंबे समय तक एक जूनियर पार्टनर की ही रही है. यह पहला मौका है जब भाजपा से जुड़ने के लिए दूसरे दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं की लाइन लगी है. बड़ी संख्या में कांग्रेस एवं अन्य दलों से आए नेताओं ने उसका दामन थामा है. विधानसभा चुनाव में पार्टी का टिकट पाने के लिए कतार दिनों-दिन लंबी होती जा रही है. अमित शाह की अध्यक्षता में पार्टी प्रदेश में ‘अबकी बार, भाजपा सरकार’ का नारा लगा रही है. प्रदेश में सरकार बनाने का सपना देखने का साहस पार्टी को लोकसभा चुनाव में सात सीटें जीतने से तो मिला ही है, लेकिन जैसाकि ऊपर बताया गया है, उसके अरमानों को पंख देने का काम 90 विधानसभा क्षेत्रों में से 50 पर उसकी बढ़त ने भी किया है. पार्टी आश्वस्त है कि विधानसभा में 50 के आंकड़े का विस्तार होगा. इस सफलता के लिए पार्टी को अपने उसी तुरुप के इक्के पर भरोसा है जिसने उसे लोकसभा में प्रदेश की राजनीति का महानायक बना दिया. यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी का चेहरा मोदी ही हैं. पार्टी के नेताओं का दावा है कि मोदी के प्रति दीवानगी जनता में अभी भी कायम है. यही कारण है कि पार्टी नेता सभाओं में ‘मोदी के नाम पर फिर से दे दे’ वाले भाव के साथ वोट मांगते नजर आ रहे हैं.
भाजपा के उत्साह का एक बड़ा कारण सत्तारुढ़ कांग्रेसी खेमे में मची अस्थिरता भी है. मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा बेहद कमजोर दौर से गुजर रहे हैं
भाजपा नेताओं के भीतर यह आत्मविश्वास इस बात से भी आता है कि उन्हें पता है उनके पास खोने के लिए कुछ खास नहीं है. प्रदेश के एक भाजपा नेता कहते हैं, ‘2009 के विधानसभा चुनाव में हमें सिर्फ चार सीटें हासिल हुईं थी. 2005 में मात्र दो सीटें थीं. पिछले चुनावों को देखते हुए हमारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है. पाने के लिए पूरी 90 सीटें हैं.’ कमल जैन कहते हैं, ‘यह सही है कि भाजपा के पास बहुत कुछ खोने के लिए नहीं है क्योंकि उसकी राजनीतिक ताकत यहां बहुत सीमित रही है. लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि इस बार पार्टी प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर चुनाव लड़ रही है. इसलिए अगर एक तरफ उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है तो उसके लिए दांव पर भी बहुत कुछ लगा है.’
पार्टी अपनी जीत को लेकर किस कदर निश्चिंत है इसका उदाहरण उस समय भी दिखा जब लंबे समय से हरियाणा जनहित कांग्रेस (हजकां) के साथ चले आ रहे गठबंधन के टूटने पर उसके नेता परेशान होने की बजाय खुशी से उछलते नजर आए. दोनों के रिश्ते में दरार लोकसभा चुनाव के समय ही पड़ गई थी. हिसार में भाजपा के एक अन्य सहयोगी अकाली दल के कर्ताधर्ता मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और उनके बेटे सुखबीर बादल ने कुलदीप बिश्नोई के खिलाफ और ओमप्रकाश चौटाला के पोते दुष्यंत चौटाला के पक्ष में प्रचार किया था. बिश्नोई ने इसके खिलाफ कई बार भाजपा नेतृत्व से शिकायत की लेकिन पार्टी ने उसे अनसुना कर दिया. रही-सही कसर लोकसभा चुनाव परिणामों ने पूरी कर दी. हजकां जिन दो सीटों पर लड़ी थी, उन दोनों पर बुरी तरह हारी. उसके बाद भी विश्नोई ने मनोबल समेटते हुए आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी. उनकी पार्टी ने मोदी की तर्ज पर पूरे प्रदेश में ‘अबकी बार, कुलदीप सरकार’ का नारा बुलंद किया. हजकां की इस हरकत को भाजपा ने हिमाकत माना. गठबंधन टूटने का दूसरा बड़ा कारण विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे से जुड़ा था. भाजपा का मानना था कि चूंकि लोकसभा में उसका प्रदर्शन ऐतिहासिक रहा है ऐसे में पुराने फॉर्मूले के आधार पर सीटों का विभाजन नहीं होगा. इसके तहत विधानसभा की 90 सीटों में से दोनों पार्टियों को 45-45 सीटों पर चुनाव लड़ना था. भाजपा इस बार हजकां को 15-20 से अधिक सीटें देने के मूड में नहीं थी. इसलिए रिश्ता टूट गया. भाजपा नेता राजीव अग्रवाल कहते हैं, ‘हजकां के कुछ नेता अपनी राजनीतिक हैसियत भूल गए थे. अच्छा है उन्होंने खुद ही गठबंधन से बाहर जाने का फैसला कर लिया. लोकसभा चुनाव से पहले की स्थिति कुछ और थी, अब और है.’

अब भाजपा अकेले दम पर चुनाव लड़ने की तैयारी में जुटी है. पार्टी सभी 90 सीटों पर प्रत्याशी उतारने जा रही है. हालांकि कहा जा रहा है कि आईएनएलडी के साथ पर्दे के पीछे उसका करार हो चुका है. स्थानीय पत्रकार बलवंत अस्थाना कहते हैं, ‘ देखिए लोकसभा में भाजपा आईएनएलडी से दूरी सिर्फ इस कारण से बनाए हुई थी क्योंकि भ्रष्ट्राचार के कारण पार्टी सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाला और उनके बेटे अजय चौटाला को सजा हुई. ऐसे में काला धन और भ्रष्ट्राचार को लेकर कांग्रेस पर हमलावर भाजपा किसी भी तरह से आईएनएलडी के करीब नहीं दिखना चाहती थी. लेकिन अब वह चुनाव जीत चुकी है. प्रदेश में इस समय आईएनएलडी एक मजबूत स्थिति में है. ऐसे में पूरी संभावना है कि चुनाव पूर्व या उसके बाद दोनों दलों में एक गठबंधन उभर कर आए.’ आईएनएलडी नेता विनोद प्रकाश कहते हैं, ‘देखिए लोकसभा चुनावों में भले ही हमारा भाजपा से गठबंधन नहीं था, लेकिन हमारी पार्टी ने औपचारिक तौर पर ये घोषणा कर दी थी कि वह मोदी जी का प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन करती है. भाजपा से हमारा संबंध बहुत गहरा है. उसे सिर्फ चुनावी चश्मे से नहीं देखा जा सकता.’
इस तरह से हजकां के पार्टी से छिटकने की स्थिति में भी भाजपा की पांचों उंगलियां घी में हैं. अंबाला के एक भाजपा कार्यकर्ता अमित उनियाल कहते हैं, ‘इस बार पार्टी कार्यकर्ता जितना जोश से भरा है वह अभूतपूर्व है. पहले किसी भी विधानसभा चुनाव में कार्यकर्ता इतना चार्ज नहीं रहता था. हम भी सोचते थे कि चाहे जितनी भी मेहनत क्यों न कर लें सेहरा किसी और के माथे पर ही बंधेगा. यानी मुख्यमंत्री तो गठबंधन दल के व्यक्ति का ही होगा. लेकिन इस बार ऐसा नहीं है. इस बार हरियाणा में भाजपा का मुख्यमंत्री बनेगा.’
भाजपा के उत्साह का एक बड़ा कारण सत्तारुढ़ कांग्रेसी खेमे में मची राजनीतिक अस्थिरता भी है. मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा अपने राजनीतिक करियर के एक बेहद कमजोर दौर से गुजर रहे हैं. पार्टी के तमाम बड़े नेताओं ने उनके खिलाफ खुलेआम बगावत की है. उनको हटाने के लिए प्रदेश कांग्रेस के दर्जनों नेताओं ने दिल्ली-चंडीगढ़ एक कर दिया. बीरेंद्र सिंह और राव इंद्रजीत सिंह जैसे कद्दावर कांग्रेसी नेताओं ने पार्टी में रहते हुए ही लंबे समय तक हुड्डा की सार्वजनिक आलोचना की. फिर दोनों पार्टी छोड़कर भाजपा में चले गए. कुमारी शैलजा, कैप्टन अजय यादव, किरण चौधरी से लेकर तमाम नेता प्रदेश में है, जिन्हें हुड्डा फूटी आंख भी मंजूर नहीं हंै. अजय यादव ने तो इसी वजह से कैबिनेट से इस्तीफा तक दे दिया था जिसे हाईकमान के मानमनौव्वल के बाद उन्होंने वापस ले लिया. इन नेताओं ने सामूहिक एवं व्यक्तिगत कई स्तरों पर कई बार हुड्डा को निपटाने का प्रयास किया, लेकिन हाईकमान की मेहरबानी से वे बचे रहे. यह जरूर है कि प्रदेश में उनकी राजनीतिक स्थिति तेजी से कमजोर हुई. प्रदेश में कांग्रेस के कई विधायकों और नेताओं ने (जिनमें से कइयों ने पार्टी छोड़ दी) हुड्डा पर प्रदेश के विकास में भेदभाव करने का आरोप लगाया. प्रदेश के कांग्रेसी नेता ही हुड्डा को हरियाणा का नहीं बल्कि रोहतक का सीएम बताते नजर आते हैं. लोकसभा चुनाव के परिणाम हुड्डा के लिए कोढ़ में खाज बनकर आए. लोकसभा की 10 सीटों में से कांग्रेस मात्र एक सीट जीत सकी. वह एक सीट भी हुड्डा के बेटे दीपेंद्र हुड्डा की थी. पार्टी नेता मान रहे हैं कि विधानसभा चुनाव में भी पार्टी का हश्र लोकसभा जैसा ही होनेवाला है. चुनाव करीब आने के साथ ही पार्टी से खिसक रहे नेताओं की तादाद बढ़ रही है. कांग्रेस की यही कमजोरी भाजपा के उत्साह का एक बड़ा कारण है.