तमाम उठापटक के बीच बिहार में सबसे बड़ी खबर विधान परिषद का चुनाव परिणाम है. 24 सीटों पर चुनाव हुआ था. 11 सीटें सीधे भाजपा की झोली में गईं. दो सीटें भाजपा के सहयोगी दल लोजपा को और कटिहार की एक सीट भाजपा व एनडीए के सहयोग से निर्दलीय प्रत्याशी अशोक अग्रवाल को मिली. लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, कांग्रेस, एनसीपी को मिलाकर जो महागठबंधन बिहार की चुनावी राजनीति के लिए बना है, उसे नौ सीटों पर ही सिमट जाना पड़ा.
जदयू को पांच, राजद को तीन और कांग्रेस को एक सीट पर संतोष करना पड़ा है. पटना सीट, जहां सभी दलों ने जोर लगाया था, प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया था, वह निर्दलीय प्रत्याशी रीतलाल यादव के खाते में चली गई है. ये वही रीतलाल यादव हैं, जिन्हें बाहुबली माना जाता रहा है. विगत लोकसभा चुनाव के दौरान वे खूब चर्चा में आए थे जब लालू प्रसाद यादव ने रामकृपाल को रुखसत करने के बाद अचानक रातोरात रीतलाल को पार्टी का महासचिव बना दिया, फिर रीतलाल और उनके पिता से मिलने भी चले गए.
पिछले लोकसभा चुनावों में बाहुबली रीतलाल की शरण में भी जाना लालू प्रसाद की बेटी मिसा यादव की जीत सुनिश्चित नहीं करवा सका था. बाद में दोनों में कुट्टी हो गई. बहरहाल यह तो दूसरी बात है. अभी बात यह हो रही है कि विधान परिषद के चुनाव में जो समीकरण उभरकर आए हैं, क्या वे आगामी विधानसभा चुनाव के भी कुछ संकेत दे रहे हैं. परिणाम सीधे तौर पर विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल हो या फाइनल हो, विधानसभा चुनाव का सीधा कनेक्शन इससे जुड़ा हुआ है, ऐसा कुछ कहना जल्दबाजी होगी. लेकिन यह तय है कि पिछले दो माह से राष्ट्रीय स्तर से लेकर बिहार तक में बैकफुट पर चल रही भाजपा के लिए यह चुनाव परिणाम सही समय पर संबल बढ़ाने वाले और उम्मीदें जगाने वाले संदेश और संकेत लेकर आया है.
मजेदार यह है कि इस चुनाव परिणाम के बाद नीतीश कुमार ने कहा कि यह सीधे जनता का चुनाव नहीं था, जनप्रतिनिधियों के मत से हुआ चुनाव था, इसलिए इसको उस तरह से न देखा जाए, फिर भी हम हार की समीक्षा कर अपनी तैयारी दुरुस्त करेंगे. नीतीश कुमार बात ठीक कह रहे हैं लेकिन एक सच यह भी है कि इस बार के विधान परिषद चुनाव में उन्होंने खुद और उनकी पार्टी ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया था. नीतीश कुमार खुद उम्मीदवारों का नामांकन तक कराने गए थे. राज्य सरकार के लगभग तमाम मंत्री और जदयू के छुटभैये से लेकर बड़े नेताओं तक ने इस चुनाव में पूरी ऊर्जा लगाकर काम किया. नीतीश कुमार के लिए हार सिर्फ इस मायने में झटका नहीं देने वाली है कि इतनी ऊर्जा लगाने के बाद भी वे भाजपा से हार गए बल्कि दूसरी ठोस वजह भी दिख रही है जो आगे के लिए चिंता का सबब है.
वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘नीतीश कुमार को इसे मान लेना चाहिए कि अगले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी की स्थिति का संकेत मिल गया है. जिन 24 सीटों पर विधान परिषद का चुनाव हुआ, उनमें 80 प्रतिशत के करीब सीटों पर जो जनप्रतिनिधि वोटर थे, वे उसी सामाजिक न्याय समूह से थे, जिसकी अगुवाई करने को नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव बेताब हैं और जिस पर एकाधिकार का दावा भी करते हैं.’ शिवानंद तिवारी जो सवाल उठा रहे हैं, वह सच है और नीतीश की अगली राजनीति के लिए महत्वपूर्ण भी. हालांकि लालू प्रसाद यादव, जिनकी पार्टी इस विधान परिषद चुनाव में बुरी तरह परास्त हुई, वह कहते हैं, ‘बाप बड़ा न भइया, सबसे बड़ा रुपइया की तर्ज पर चला… यह चुनाव. सब पैसे पर मैनेज कर लिया भाजपा वाला लोग लेकिन विधानसभा चुनाव में धूल चटा देंगे.’ लालू प्रसाद यादव ऐसा कहकर विधानसभा चुनाव में अपनी स्थिति को खुद ही कमजोर बता रहे हैं. अगर उनकी बातों को सच मान भी लिया जाए तो फिर राजद-जदयू गठबंधन के लिए यह और भी मुश्किल भरा सवाल है, क्योंकि अगर विधान परिषद चुनाव में भाजपा पैसे के बल पर लालू-नीतीश के कोर वोटर बैंक के चुने हुए प्रतिनिधियों को मैनेज कर सकती है तो फिर विधानसभा चुनाव में भी उसके लिए ऐसा करना
आसान होगा.