मजबूत भी मजबूर भी

लालू से मिलन :  मजबूरी में मजबूती का वास्ता!

मांझी प्रकरण की तपिश अब कम होती जा रही है. हालांकि चुनाव तक मांझी इसे बनाए रखना चाहेंगे और भाजपा इसमें हवा-पानी-घी आदि देकर उसे ज्वलंत भी बनाए रखना चाहेगी. अब नीतीश की राजनीतिक यात्रा में उनका और उनकी पार्टी का लालू यादव से मिलन सबसे गर्म मुद्दा बन चुका है. लालू और नीतीश के मिलन को अलग-अलग नजरिये से देखा जा रहा है. सबके अपने-अपने तर्क हैं, सबके तर्क में दम भी हैं. एक वर्ग मानता है कि नीतीश ने लालू यादव के खिलाफ ही सियासत कर बिहार में अपनी पहचान बनाने के साथ उम्मीद जगाई. वह लालू के खिलाफ मिले वोट की बदौलत ही है तो ऐसे में सिर्फ सत्ता के लिए लालू से मिलकर उन्होंने भारी भूल की.

दूसरा वर्ग मानता है कि यह वक्त की जरूरत थी. सामाजिक न्याय की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए, भाजपा जैसी सांप्रदायिक शक्तियों के विकास के लिए बेहद जरूरी था. नीतीश-लालू के मिलन में भाजपा समेत जो दूसरी पार्टियां हंगामा कर रही हैं, उन्हें यह अधिकार नहीं. भाजपा से लेकर तमाम दूसरी पार्टियां ऐसे गठजोड़ करती रही है. आज रामविलास पासवान और भाजपा का गठजोड़ कोई राजद-जदयू से कम आश्चर्यजनक नहीं. या मांझी का एनडीए का हिस्सा बन जाना कोई कम आश्चर्यजनक नहीं. भाजपा द्वारा जम्मू-कश्मीर में सत्ता पाने के लिए अपने विरोधी मुफ्ती मोहम्मद सईद से समझौता करना इसी प्रक्रिया का हिस्सा है. इस नजरिये से देखें तो लालू और नीतीश का मिलन भी हैरान करने वाला नहीं. लोकसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार के पास आगे की राह को  संभावनाशील बनाने के लिए बहुत कम विकल्प थे. जितने विकल्प उपलब्ध थे, उसमें यह एक विकल्प था. लोकसभा चुनाव के बाद उन्हें यह एहसास हो गया कि वे अकेले कमजोर हैं.

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फिलहाल जातीय समीकरण साधकर ही वे दोबारा सत्ता पा सकते हैं. नीतीश को यह एहसास हो गया है कि एक बार सत्ता हाथ से गई तो फिर बिहार की राजनीति में वे अप्रासंगिक हो जाएंगे, क्योंकि उम्र भी एक चीज होती है. सारे दांव खेलकर नीतीश ने लालू से गठजोड़ किया है. लोकसभा चुनाव के पहले से लेकर बाद तक न जाने कितने किस्म का मोर्चा बनाने में उन्होंने ऊर्जा लगाए रखी. महाविलय जैसे शब्द बहुत दिन तक चलते रहे. संभव है कि इस मिलन से नीतीश को फायदा हो लेकिन बिहार में होने वाले इस गठजोड़ से उन्होंने अपने लिए नुकसान का भी रास्ता चुना. अपनी ही बनाई छवि को उन्होंने ध्वस्त किया. लालू ने मुलायम के जरिये ना सिर्फ महाविलय के प्रस्ताव को रसातल में डाला बल्कि इस गठजोड़ से भी वे आखिरी समय तक भागते रहे, नीतीश कुमार उनका पीछा करते रहे, इसका लोगों में गलत संदेश गया. यह सत्ता के लिए तड़पते और बेचैन नेता की तरह उन्हें स्थापित करता रहा.

मांझी लगातार आक्रामक होते रहे और नीतीश लगातार अपने लोगों से उन पर वाक प्रहार करवाते रहे. कभी अनंत कुमार ने मांझी को पागल करार दिया तो कभी किसी दूसरे ने भस्मासुर की उपाधि दे दी

लालू से गठजोड़ के बाद नीतीश के पास भाषण के विकल्प कम होंगे. न तो वे सुशासन पर जोर से बोल पाएंगे, न भ्रष्टाचार पर और न ही सामाजिक न्याय पर. लालू के कुशासन का ही वास्ता देकर नीतीश कुमार बिहार की सत्ता मे आए और दूसरी बार भी मुख्यमंत्री बने. लालू तो सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता पर बोल सकते हैं लेकिन सीधे नीतीश खुद इस पर बोल सकने की स्थिति में भी नहीं होंगे, क्योंकि तब भाजपा कहेगी कि हम सांप्रदायिक थे तो इतने सालों से क्या कर रहे थे साथ में. विकास की बात करेंगे तो भाजपा कहेगी कि हम भी साथ में थे. लालू के साथ आने से दूसरी परेशानियां बढ़ गई हैं. लालू ज्यादा बोलेंगे तो नीतीश को नुकसान होगा, कम बोलेंगे, तो भी नीतीश को नुकसान होगा. लालू कम बोलेंगे तो यादव मतदाताओं में संदेश जाएगा कि मिलान के बाद उनके नेता को नीतीश ने हाइजैक कर लिया हैं, बोलने तक नहीं दे रहे, इसलिए वे बहक सकते हैं.

बात इतनी ही नहीं, नीतीश ने लालू से मिलन के पहले सामाजिक समीकरणों पर भी ठीक से काम नहीं किया. इस गठजोड़ से सामाजिक न्याय की धारा को ध्यान में नहीं रखा गया. लालू और नीतीश के रूप में दो ऐसी जातियों के नेता शीर्ष पर हैं, जो पिछले 25 सालों से सत्ता में हैं. इनके नेतृत्व के जरिये दूसरी जातियों की गोलबंदी आसान नहीं होगी, क्योंकि नीतीश को मालूम होगा कि 2005 में जब वे मुख्यमंत्री बने तो तमाम समीकरणों के बीच एक अहम समीकरण गैर यादव पिछड़ों का यादवी नेतृत्व के खिलाफ गोलबंदी भी था. दूसरी बात यह भी है कि नीतीश कुमार ने अतिपिछड़ा या महादलितों की राजनीति की जरूर लेकिन किसी एक बड़े नेता को उन समूहों से अपने इस गठजोड़ में दिखावे के लिए भी साथ नहीं रखा.

श्याम रजक, उदयनारायण चौधरी जैसे नेता साथ में जरूर हैं, लेकिन वे कम बोलते हैं या जब बोलते हैं तो उनके पास तथ्य और तर्क नहीं होते. नीतीश-लालू के इस मिलन में सामाजिक न्याय की और भी कई विडंबनाएं सामने आईं, जिस पर पहले से काम नहीं हो सका, जिसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. किसी अल्पसंख्यक नेता को भी समानांतर रूप से सामने नहीं रखना, गलत संदेश दे रहा है. इस गठजोड़ को लेकर दिल्ली से लेकर लखनऊ तक दौड़ लगाने में ही इतनी ऊर्जा खपाते रहे कि इन चीजों पर सोचने का उन्हें मौका तक नहीं मिला और अब उनके पास जो टीम है और जिसके सहारे वे चुनावी जंग में उतरने जा रहे हैं, उनमें से कोई पुराना संगी-साथी नहीं बचा, जो नीतीश की बातों को काट भी सके. मिलने के पहले दोनों नेता इन बातों पर भी अभ्यास करते तो शायद यह गठजोड़ और कारगर होता. मांझी को बाय करने के पहले उदय नारायण चौधरी को सामने उन्हें पार्टी का चेहरा बनाकर यह गठजोड़ करते तो शायद वह ज्यादा फायदेमंद साबित होता.

मौनी बाबा: एकरागी गान, जिद्दी धुन

नीतीश कुमार की राजनीति को जो लोग करीब से जानते हैं या दूर से भी देखते हैं, वे यह जानते हैं कि नीतीश सार्वजनिक जीवन के सवालों को और राजनीति के सार्वजनिक पक्षों को भी व्यक्गित मसला बनाकर उसका बदला लेने वाले नेता रहे हैं. वे राजनीति को व्यक्तिवादी बनाने के पक्षधर हैं और उनके लिए खुद की राजनीति को, खुद के व्यक्तित्व को बनाए-बचाए रखना एक अहम मसला होता है. इसके लिए वे तमाम तरीके के हथियारों का इस्तेमाल करते रहे हैं, जिसमें एक अहम हथियार जिद्दी बन जाना, दूसरा मौन साधना और तीसरा एकरागी गान करना. इनमें से दो बातें बार-बार देखी जा चुकी हैं. जब भी वे दुविधा और द्वंद्व के दोराहे पर खड़े होते हैं, मौन साध लेते हैं. नीतीश के दस सालों के शासन में कई बार ऐसे मौके आए, जब उनसे अपेक्षा की जाती थी वे खुलकर बोले और बतौर मुखिया अपनी बात रखे लेकिन उन्होंने मौन साधकर बहुत कुछ साधना चाहा, जिससे उनकी किरकिरी हुई.

लालू ने मुलायम के जरिये ना सिर्फ महाविलय के प्रस्ताव को रसातल में डाला बल्कि इस गठजोड़ से भी वे आखिरी समय तक भागते रहे, नीतीश कुमार उनका पीछा करते रहे, इसका लोगों में गलत संदेश गया

ऐसा कई मौके पर देखा गया, जिनमें दो तो बहुत ही चर्चित रहे. एक मौका तब आया जब फारबिसगंज के भजनपुरा में अल्पसंख्यकों पर पुलिस ने अत्याचार किया। बूट और गोलियों से बच्चों, गर्भवती महिलाओं समेत सात लोगों को मारा. देशभर में इसकी चर्चा हुई, नीतीश की थू-थू हुई. तब यह बात सामने आई  थी कि जिस व्यक्ति की फैक्ट्री को लेकर पुलिस ने गोलीबारी की, वह भाजपा नेता है और सुशील मोदी के करीबी भी, इसलिए नीतीश कुछ बोल नहीं रहे थे. नीतीश भाजपा के दबाव में चुप रहे हों या स्वविवेक से, यह आज तक कोई हीं जान सका, लेकिन एक अच्छे नेतृत्वकर्ता के तौर पर इससे उनकी छवि जरूर  प्रभावित हुई.

एक दूसरा मौका भी आया, जब रणवीर सेना सुप्रीमो ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या आरा में हुई. आरा में हत्या के बाद ब्रहमेश्वर मुखिया की लाश को पटना जलाने के लिए लाया गया. शव के पटना पहुंचने के बाद राजधानी की सड़कों पर खूब बवाल हुआ. मुखिया के समर्थकों ने गोली चलाई, तोड़फोड़ की, सरकारी गाड़ियां  जला दीं, महिलाओं से अभद्रता की, मुख्यमंत्री आवास की ओर भी बढ़ने की कोशिश की. तब भी नीतीश कुछ नही बोले. ऐसे मौन वे कई बार साधते रहे, जिससे उनकी छवि का नुकसान होता रहा. नीतीश के राजनीतिक जीवन में भजनपुरा कांड एक ऐसा मसला है, जो उन्हें खुलकर कभी सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता पर बोलने नहीं देगा.यह इकलौता सवाल वर्षों बाद भी उन्हें कटघरे में खड़ा रखेगा. मामला चाहे पुलिस एक्शन हो या पुलिस के द्वारा वक्त के अनुसार की गई जरूरी कार्रवाई, लेकिन यह उम्मीद किसी भी मुख्यमंत्री से की जा सकती है कि वह इतनी ब़ड़ी घटना पर मौका-ए-हालात को जाकर देखे. खुलकर बोले. फारबिसगंज में राहुल, लालू, रामविलास समेत तमाम नेता पहुंचे लेकिन नीतीश नहीं गए. एक न्यायिक जांच आयोग गठित भी किया तो वह चार माह तक टालू रवैया अपनाए रहा.

नीतीश की मंशा चाहे जो रही हो, मगर लोग कहते हैं कि भाजपा के दबाव में नीतीश इतने जिद्दी बन गए. ऐसा नहीं कि यह पहली बार हुआ था जब सांप्रदायिकता के सवाल पर नीतीश ने मौन साधने या जिद्दी बन जाने की राजनीति की हो. यह सब जानते हैं कि नीतीश नरेंद्र मोदी से रोमांटिक दुश्मनी निभाते रहे हैं. उनके नाम से भड़कते रहे हैं लेकिन जब गुजरात में गोधरा कांड हुआ था, तब नीतीश केंद्रीय रेल मंत्री थे. तब भी वह मौन साध गए थे, गोधरा नहीं गये थे. बाद में नीतीश ने कहा था कि गोधरा नहीं जाना उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल थी. गोधरा की भूल को वे फारबिसगंज में भी नहीं सुधार सके. ऐसा नहीं कि नीतीश ने सिर्फ अल्पसंख्यकों के ऐसे सवाल पर ही मौन साधे. कुछ साल पहले बिहार के सिमरिया में अर्द्धकुंभ हुआ था. तब भाजपा उनके साथ थी. नीतीश मुख्यमंत्री थे. बवाल मचा था. नीतीश इस पर भी मौन साधे रहे. उनकी ओर से बिहार धार्मिक न्यास परिषद के किशोर कुणाल मोर्चा  संभालने आए थे. उस आयोजन में भाजपा के नेताओं के साथ विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगड़िया भी सिमरिया में पहुंचे थे. तोगड़िया हिंदुत्व का पाठ पढ़ाकर, हुंकार भरकर लौट गए थे. त्रिशूल बांटने से लेकर और भी कई बातें हुई थीं तब.

हालांकि उस बीच नीतीश यह कहते रहे कि वे गठबंधन की राजनीति चलाने के लिए मनमोहन सिंह की तरह मजबूर नहीं, लेकिन व्यावहारिक तौर पर जब-जब मौका आया उनसे कम मजबूर नहीं दिखे. लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है. नीतीश कुमार बोलते भी खूब हैं. मसलन बिहार को विशेष राज्य दर्जा दिलाने के  अभियान की ही बात करें. नीतीश उस एक मसले को पिछले दस सालों से ऐसे खींचते रहे कि वह खुद एक डेड इश्यू बन गया. उसकी अपील खत्म हो गई. वह सभी मर्जों की एक ही दवा बताते रहे. एक ऐसी दवा, जिसे पूरा किया जाना न तो मनमोहन सिंह के बस में था, ना नरेंद्र मोदी के बस में नजर आ रहा है.  बिहार से ज्यादा बड़े दावेदार दूसरे राज्य हैं और अगर केंद्र की सरकार ने सबको विशेष राज्य का दर्जा देना शुरू किया तो फिर विशेष राज्य का हश्र भी वही होगा, जो बिहार के महादलित माॅडल का हुआ. जिसमें एक जाति को छोड़कर सभी महादलित हो गए और बाद में वह भी महादलित हो गया और दलित जैसी राजनीतिक जाति खत्म हो गई!

जाति की राजनीति :  लगाव भी, अलगाव भी

बिहार की राजनीति की जो भी थोड़ी बहुत समझ रखते हैं, वे जानते हैं कि नीतीश कुमार के निर्माण में कुर्मी चेतना रैली की बड़ी भूमिका रही है. पटना के गांधी मैदान में उसी रैली के मंच से नीतीश की भव्य लॉन्चिंग हुई थी. नीतीश कुमार इस पर कुछ नहीं बोलते लेकिन यह सब जानते भी हैं. इसमें कुछ बुरा भी नहीं. बिहार की राजनीति जाति के खोले में समाने के लिए जानी जाती है. हर नेता अपने-अपने तरीके से जाति का इस्तेमाल करता रहा है. नीतीश ने भी एक बड़ा इस्तेमाल किया. यह हर कोई मानता है कि नीतीश का 2005 में जब उभार हुआ तो उसमें जातीय गोलबंदी की बड़ी भूमिका थी. नीतीश के पक्ष में गैर यादव पिछड़ी जातियों की गोलबंदी हुई. साथ में दूसरों ने समूह का निर्माण किया तो लालू यादव का वोट बैंक बिखर गया. उसके बाद नीतीश ने पीछे पलटकर नहीं देखा.

नीतीश ने भविष्य की राजनीति को और सुविधाजनक बनाने के लिए पिछड़ों में अतिपिछड़ों का अलग से एक समूह निकाला और दलितों में महादलितों का अलग समूह तैयार किया. तब नीतीश ने कहा था कि जो पिछड़ों में अतिपिछड़े हैं, उनको पंचायत चुनाव आदि में अलग से आरक्षण दिया जाना जरूरी है. उन्हें मजबूत की जरूरत है, इसलिए वे ऐसा कदम उठा रहे हैं. नीतीश के इस कदम की सराहना हुई. इससे बिहार की राजनीति में बड़ा फर्क भी आया. लालू यादव लगातार कमजोर होते गए. नीतीश कुमार मजबूत होते गए. नीतीश की मजबूती के समानांतर ही अब तक हाशिये पर पड़ी रहने वाली जातियों में राजनीतिक चेतना का विकास भी होता रहा. उनमें राजनीतिक आकांक्षा भी जगती रही. हालांकि तब भी महादलितों के गठन में नीतीश की नीति की आलोचना हुई. उन्होंने कुल मिलाकर अंत तक सभी दलित जातियों को महादलित में शामिल कर लिया लेकिन पासवानों को छोड़ दिया. तब बिहार का राह चलता आदमी भी यह कहने लगा कि नीतीश ने पासवानों को सिर्फ इसलिए अलग रखा है ताकि रामविलास पासवान अलग-थलग पड़ जाए. ऐसा कर नीतीश ने जगहंसाई ही की थी. बाद में जीतनराम मांझी जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने पासवानों को भी महादलित में शामिल कर और सभी दलितों को महादलित बनाकर नीतीश के इस अविवेकी फैसले पर करारा प्रहार ही किया.

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बहरहाल, 2010 में जब नीतीश कुमार ने अपार बहुमत से जीत हासिल की तो एक वर्ग में एक बात तेजी से फैली कि बिहार जाति की खोली से बाहर निकला है. जीत में इसे अहम भी माना गया. नीतीश ने बिहार में विकास और गवर्नेंस को मुद्दा बनाकर इस आकलन को बल भी प्रदान किया था. बहुत हद तक यह सच भी था कि विकास और गवर्नेंस को ऊपरी तौर पर ही सही, चुनावी राजनीति का मुद्दा बनाने का श्रेय नीतीश को जाता है. लेकिन दूसरी ओर जो बिहार की राजनीति की बारीकियों को जानते हैं, वे यह भी साफ-साफ जानते हैं कि नीतीश ने जातीय राजनीति की सधी हुई चाल चली थी. अब भी चलते रहते हैं.

खैर, नीतीश भी राजनीति ही करते हैं इसलिए यदि वह ऐसे आयोजनों के जरिये राजनीतिक आधार की तलाश करते हैं तो इस लिहाज से उनमें अतिशुद्धतावादी आदर्श की तलाश भी करना एक तरीके से अतिवाद होगा.

दूसरे पहलू की बात करें तो पिछली बार महादलित और अतिपिछड़ा का प्रयोग कर उन्होंने लालू यादव और रामविलास पासवान को एक साथ साधा था. लेकिन उस चुनाव के बाद नीतीश ने जिस तरह से अपने ही फाॅर्मूले को किनारे करना शुरू किया, उससे दूसरे संकेत और संदेश तेजी से फैलने लगे. नीतीश कुमार की दूसरी पारी में महादलित आयोग का पुनर्गठन ही पेंच में फंस गया. नीतीश ने कोई खबर नहीं ली. अतिपिछड़ा आयोग भी बना था लेकिन उसकी ओर से भी कोई रिपोर्ट नहीं आई. वह क्या कर रहा है, क्या नहीं, इसकी खबर किसी ने लेने की कोशिश नहीं की. चुनाव जीतने के बाद नीतीश ने बड़े जोर-शोर से सवर्ण आयोग का गठन किया. सवर्ण आयोग कार्यालय के लिए तरसता रहा. उसके अध्यक्ष कहां रहते हैं, इसकी जानकारी लेना भी पटना से दिल्ली पैदल जाने के बराबर साबित होता रहा. हालांकि अब सवर्ण आयोग की भी एक रपट आ गई है लेकिन संदेशा यह गया है कि नीतीश कुमार ने चुनाव आने पर खानापूर्ति के लिए यह करवाया.

महादलितों के बीच रेडियो बंटवारे की शुरुआत हुई. रेडियो आउटडेटेड हो चुका तब नीतीश कुमार ने रेडियो को बंटवाना शुरू किया. यह भी हंसी का विषय बना. नीतीश महादलित और अतिपिछड़ों का बंटवारा कर उनकी राजनीतिक आकांक्षा को तो जगा दिया लेकिन उनसे सरकार वह हमदर्दी नहीं दिखा सकी, जिसकी अपेक्षा थी. बिहार में एक भयानक बीमारी इंसेफलाइटिस का प्रकोप हर साल जारी रहता है. इस बीमारी से मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी व गया जिले में हर साल दर्जनों मौतें होती हैं. मरनेवाले अधिकांश बच्चे अतिपिछड़े और महादलित समुदाय से ही ज्यादा रहते हैं. पूरे देश में इंसेफलाइटिस से बिहार में होने वाली मौत एक मसला बना रहा लेकिन नीतीश उन इलाकों में एक बार भी नहीं गए. एक बार भी इस बात को लेकर सख्त निर्देश देते नजर नहीं आए. बात इतनी ही नहीं हुई. नीतीश कुमार महादलित और अतिपिछड़ों को एक ठोस समूह के तौर पर विकसित करने में और उन्हें अपने पक्ष में रखने में लगातार कई भूलों से चुकते गए. दोनों समुदायों ने से उन्होंनेे कोई ऐसा नेता खड़ा नहीं किया जो नीतीश के दायें-बायें दिखे. बल्कि उनके आजू-बाजू अधिकांश सवर्ण नेता ही दिखते रहे और महादलितों या अतिपिछड़ों से कोई स्वतंत्र फेस वैल्यू रखने वाला नेता नहीं पनप सका.

भीम सिंह एक अतिपिछड़े समूह से थे जो नीतीश के मंत्रिमंडल के सदस्य थे लेकिन वे भी मांझी की बगावत में उनके साथ चले गए. बात इतनी ही नहीं रही, ऐन मौके पर अमीरदास आयोग को भंग करना, उसकी रिपेार्ट को दबा देने की तोहमत नीतीश के मत्थे हमेशा के लिए लगा रहेगा. अमीरदास आयोग की रिपोर्ट से रणवीर सेना की भूमिका का पता चलना था और उसमें कई भाजपाइयों के नाम सामने आने वाले थे, जिसकी वजह से नीतीश ने दबाव में उसे भंग कर दिया. और अंत में तो मांझी के मुख्यमंत्रितत्व काल में कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिससे बच पाना नीतीश कुमार के लिए हमेशा मुश्किल होगा. भोजपुर से लेकर गया तक दलितों-महादलितों पर जुल्म की घटनाएं अचानक से बढ़ीं. नीतीश कुमार मौन साधे रहे. वे ताकतवर स्थिति में थे, राज्य की जनता उन्हें सुपर सीएम मान रही थी लेकिन कोई ठोस कार्रवाई करवाने की बजाय मांझी को कुशासन का प्रतीक कहते रहने में उन्होंने अपनी सारी ऊर्जा लगाये रखी. इसका संदेश भी गलत गया.

सोच अलग-क्रिया अलग

बतौर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के दस सालों के सफर को देखें तो कई ऐसे पड़ाव दिखेंगे, जब लगेगा कि जो वे करना चाहते हैं, वे नहीं कर पाते और जो नहीं करना चाहते वह होता जाता है. कथनी और करनी में फर्क उन्हें द्वंद्व और दुविधा से भरे नेता के रूप में स्थापित करता रहा. सबको याद होगा कि पहली पारी में नीतीश ने बिहार में भूमि सुधार के लिए बंदोपाध्याय कमेटी बनाते समय कहा था कि भूमि-सुधार ही यहां की सबसे बड़ी समस्या और चुनौती है. इसके बगैर बिहार का भला और समग्र विकास नहीं होगा. बंदोपाध्याय कमेटी बनने से हलचल मची. आलोचक भी उनके इस साहस भरे कदम के लिए प्रशंसक हो गए और प्रशंसक रातो-रात आलोचकों की फौज में शामिल हो गए. नीतीश ने परवाह नहीं की. कमेटी ने रिपोर्ट तैयार की. रिपोर्ट के कई हिस्से सार्वजनिक हुए लेकिन जब उसे लागू करने की बारी आई तो नीतीश ने उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया.

नीतीश के राजनीतिक जीवन में भजनपुरा कांड एक ऐसा मसला है, जो उन्हें खुलकर कभी सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता पर बोलने नहीं देगा. यह इकलौता सवाल वर्षों बाद भी उन्हें कटघरे में खड़ा रखेगा

इसी तरह मुचकुंद दुबे की अध्यक्षता में समान स्कूल शिक्षा प्रणाली में भी नीतीश कुमार ने एक आयोग का गठन किया. आयोग ने रिपोर्ट दी, वह भी ठंडे बस्ते में चली गई. किसान आयोग, प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन कर भी उन्होंने बेहतर पहल की थी लेकिन वहां भी पेंच में फंसता रहा. हो सकता है कि ऐसे आयोगों को गठन करते वक्त नीतीश के जेहन में यह इच्छा रहती हो कि इसके दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे और जब लागू करने की बात आती हो तो सत्ता पर असर पड़ता हुआ दिखता हो, लेकिन स्टेट्समैन और पोलिटिशियन का फर्क भी तो यही होता है. पॉलीटिशियन सत्ता के इर्द-गिर्द बातें सोचता है, स्टेट्समैन उसके बाद की भी बातों पर गौर करता है. जिस बिहार में मुचकुंद दुबे की कमेंटी शिक्षा की स्थिति सुधारने व शिक्षा में समानता लाने के लिए बनी थी, उस बिहार में शिक्षा आज सबसे बुरे दौर में है और शिक्षक सबसे नियंत्रणहीन. नीतीश कुमार न तो शिक्षकों के विरोध को ठीक से डील कर सके और न ही शिक्षा की स्थिति में सुधार लाने के लिए कोई ठोस कदम उठा सके. नतीजा यह है कि नीतीश कुमार आज जब भी विकास की बात करते हैं या चुनावी सभाओं में करेंगे तो शिक्षा जैसे अहम मसले पर उन्हें चुप्पी साध लेनी पड़ेगी.

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