‘रंगभेद और जातिवाद की तरह अतिवादी इस्लामवाद भी खत्म होगा’

इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम
इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम

दहशतगर्द, अतिवाद, आतंकवाद, पाकिस्तान और ऐसे ही कुछ और लफ्ज इस्लाम के बारे में सोचते वक्त जेहन में उभरने लगते हैं. लंबी दाढ़ी, गुस्सैल आंखें और हाथ में हथियार लिए एक मुसलमान का चित्र दिमाग में सबसे पहले बनता है. न जाने क्यों बनता है पर ऐसा ही बनता है. एक अल्पसंख्यक समुदाय के तौर पर इस्लाम की स्थिति को अगर धोबी का गधा कहा जाये तो कोई बुराई नहीं है. कहा जा रहा है तीसरे विश्वयुद्ध की तैयारी शुरू हो चुकी है. यूरोप और यहूदियों के बाद अब बारी इस्लाम की है. इस बार फर्क सिर्फ इतना है की तबाही का जिम्मा इंटरनेट के हाथ में है. बुद्धिजीवियों के लिए इस्लाम अचानक से अहम मुद्दा बन गया है. पेरिस में हाल ही में हुए हमले के बाद वैश्विक स्तर पर भी इस्लाम की छवि बिगड़ती नजर आ रही है. लोग इस्लाम को लेकर धारणा बनाने लगे हैं. मुसलिम युवा दोराहे पर हैं. पर सरकार अगर चाहे तो मुसलमानों को इस संकट से निकाला जा सकता है. मुसलिमों में जागरुकता अभियान चला कर, उनकी अशिक्षा और गरीबी को दूर करके. अक्सर सुनने में आता है कि इस्लाम नए जमाने के लोकतांत्रिक विचारों से तालमेल नहीं बिठा पा रहा है. सवाल है क्यों नहीं बिठा पा रहा है. एक और तबका भी ह,ै जो मुसलमानों के भीतर ही मौजूद है और आम मुसलमानों को सरकार और व्यवस्था के खिलाफ भड़काने का काम कर रहा है. दोनों बातें एक साथ हो रही हैं. अक्सर लोगों के मन में इस्लाम को लेकर एक सामान्य विचार देखने-सुनने को मिलता है कि इस्लाम आंतकवाद पैदा करता है. ऐसा माननेवाले भी बहुत हैं कि इस्लाम की जड़ में ही आतंकवाद घुसा हुआ है. सच में ऐसा है क्या या कोई ये बाते रणनीति के तहत लोगों के दिमाग में ठूंस रहा है.

आनेवाले दिन इस्लाम के लिए परीक्षा की घड़ी हैं. खतरा जितना दूसरों के लिए है उतना ही इस्लाम के लिए भी है. हमारे यहां एक दक्षिणपंथी सोच वाली सरकार सत्ता में है. इसकी वजह से बहुसंख्यक हिन्दू हाल के दिनों में ज्यादा उग्र हुए हैं. जाहिर है इससे टकराव की स्थिति पैदा होने लगी हैं. हिन्दू चरमपंथी भारतीय मुसलमानों को पाकिस्तान और आईएसआईएस से  जोड़कर देखते हैं, नतीजा दोनों तरफ नफरत की स्थिति बढ़ रही है. लेकिन पेशावर या पेरिस में जो हो रहा है वह कतई इस्लाम नहीं है. अतिवादी का पैदाइशी धर्म चाहे जो हो, लेकिन उसके कर्म न तो इस्लामवाले हैं न ही इंसानियतवाले. आतंकवाद और अतिवाद से ऊपर उठकर अगर सारे लोग इंसानियत की बात करें तो बेशक इस्लाम भी बढ़ेगा और दुनिया भी खूबसूरत हो जाएगी. अंततः इसी विचार पर चलकर हम रंगभेद और जातिवाद की तरह अतिवादी इस्लामवाद जैसी सोच को खत्म कर पायंगे.