तीन तलाक विवाद : नाइंसाफी नाकुबूल

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Photo : Tehelka Archives

पिछले साल अक्टूबर में उत्तराखंड के देहरादून की 35 साल की एक शायरा बानो की दुनिया उजड़ गई. उनके पति इलाहाबाद में रहते हैं. वे उत्तराखंड में अपने माता-पिता के घर इलाज के लिए गई थीं, तब उन्हें पति का तलाकनामा मिला, जिसमें लिखा था कि वे उनसे तलाक ले रहे हैं. अपने पति से मिलने की उनकी कोशिश नाकाम रही थी. तहलका से बातचीत में उन्होंने बताया, ‘तलाक भेजने के बाद रिज़वान ने अपना फोन बंद कर रखा था. मेरे पास उनसे संपर्क करने का कोई रास्ता नहीं था. मैं अपने बच्चों को लेकर चिंतित हूं. उनकी जिंदगी बर्बाद हो गई है. कोई भी हमारी मदद के लिए नहीं आया.’

शायरा बानो को उनके शौहर ने एक पत्र के जरिए सूचित किया कि उसने उन्हें तलाक दे दिया है. यह पत्र 10 अक्टूबर, 2015 को लिखा गया था. उन्हें उनके पति ने फोन पर बताया कि कुछ जरूरी कागज भेज रहा हूं. मगर जब शायरा ने इन कागजात को खोलकर देखा तो यह तलाकनामा था. इस दो पन्ने के पत्र में कई बातों के अलावा यह साफ-साफ लिखा था, ‘शरीयत की रोशनी में यह कहते हुए कि मैं तुम्हें तलाक देता हूं, तुम्हें तलाक देता हूं, तुम्हें तलाक देता हूं, इस तरह तिहरा तलाक देते हुए मैं मुकिर आपको अपनी जैजियत से खारिज करता हूं. आज से आप और मेरे दरमियान बीवी और शौहर का रिश्ता खत्म. आज के बाद आप मेरे लिए हराम और मैं आपके लिए नामहरम हो चुका हूं.’

इन सबसे निराश शायरा बानो ने फरवरी में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की. इसमें उन्होंने तीन बार तलाक बोलकर तलाक देने की प्रक्रिया पर पूरी तरह से रोक लगाने की मांग की. उनका कहना है, ‘जब निकाह के वक्त शौहर और बीवी दोनों की रजामंदी की जरूरत होती है तो फिर तलाक के वक्त क्यों नहीं? मौजूदा हलाला की व्यवस्था औरतों की इज्जत के साथ खिलवाड़ है, बहुविवाह के जरिए यह बताया जाता है कि मर्द के लिए औरत कितनी मामूली-सी चीज है.’ सुप्रीम कोर्ट में 23 फरवरी, 2016 को दायर याचिका में शायरा ने गुहार लगाई है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी)  के तहत दिए जाने वाले तलाक-ए-बिद्दत यानी तिहरे तलाक, हलाला और बहुविवाह को गैर-कानूनी और असंवैधानिक घोषित किया जाए. गौरतलब है कि शरीयत कानून में तिहरे तलाक को मान्यता दी गई है. इसमें एक ही बार में शौहर अपनी पत्नी को तलाक-तलाक-तलाक कहकर तलाक दे देता है. 

कुछ ऐसा ही किस्सा 28 साल की रहमान आफरीन के साथ हुआ. आफरीन उत्तराखंड के काशीपुर की रहने वाली हैं. बचपन में ही आफरीन के अब्बू का इंतकाल हो चुका था. उनके बड़े भाई की भी मौत हो चुकी है. पढ़ने में हमेशा अव्वल रहने वाली आफरीन ने एमबीए करने के बाद एक वैवाहिक वेबसाइट के जरिए इंदौर के एडवोकेट से निकाह किया था. शादी के एक साल बाद ही उनकी अम्मी का भी इंतकाल हो गया. इसके बाद काशीपुर में उनका घर छूट गया. घर में किसी के न होने की वजह से जयपुर स्थित मामा का घर ही उनका मायका बन गया. मां की मौत के बाद जयपुर अपने मायके आईं आफरीन के पैरों तले जमीन तब खिसक गई जब उन्हें शौहर का भेजा हुआ स्पीड पोस्ट मिला. उसमें लिखा था कि मैं तुम्हें तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहता हूं क्योंकि तुम मेरे घरवालों से ज्यादा खुद के घरवालों का ख्याल रखती हो और मुझे शौहर होने का सुख नहीं देती. अब आफरीन ने स्पीड पोस्ट से तीन बार तलाक लिखकर तलाक देने के पति के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई है.

आफरीन का आरोप है कि शादी के बाद से ही उनको दहेज के लिए ताने दिए जाते थे जो बाद में मारपीट में बदल गया. आफरीन की शादी 24 अगस्त 2014 को इंदौर के सैयद असार अली वारसी से हुई थी. 17 जनवरी, 2016 को शौहर ने स्पीड पोस्ट से तीन बार तलाक लिखकर भेज दिया. शायरा बानो के बाद आफरीन देश की दूसरी मुस्लिम महिला हैं जो इस तरह तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची हैं. सुप्रीम कोर्ट ने राज्य और केंद्र सरकार, महिला आयोग समेत सभी पक्षों को इस मामले में नोटिस भेजकर जवाब मांगा है.

‘जब निकाह के वक्त शौहर और बीवी दोनों की रजामंदी की जरूरत होती है तो फिर तलाक के वक्त क्यों नहीं? मौजूदा हलाला की व्यवस्था औरतों की इज्जत के साथ खिलवाड़ है’

उत्तराखंड की शायरा बानो और जयपुर की आफरीन का यह किस्सा केवल उनका नहीं बल्कि न जाने कितनी और उन मुस्लिम औरतों का दर्द बयां करता है जो तिहरे तलाक या हलाला का सामना कर चुकी हैं. तमिलनाडु के त्रिची की रहने वाली मरियम को उनके शौहर ने वॉट्सऐप के जरिए तलाक दे दिया. शरीयत में मर्द को दिए जुबानी तिहरे तलाक को आधार बनाकर इसे मंजूरी भी मिल गई. मरियम को न तो मेहर की रकम मिली और न ही किसी तरह का हर्जाना मिला. जबकि उनके निकाह में मेहर की रकम सिर्फ एक हजार रुपये थी. उनकी उम्र 29 साल है.

ऐसा ही कुछ तमिलनाडु के डिंडीगुल की एक मुस्लिम औरत फौजिया (बदला हुआ नाम) के साथ हुआ जिन्हें काजी के जरिए तलाकनामा भेज दिया गया. मेहर की करीब 550 रुपये की मामूली रकम भी उन्हें नहीं दी गई. किसी अन्य हर्जाने का तो जिक्र भी नहीं हुआ. मध्य प्रदेश के भोपाल जिले की 20 साल की शाइस्ता को भी जुबानी तलाक दे दिया गया. उन्हें भी मेहर की रकम और मेंटीनेंस नहीं मिला. गौर करने वाली बात यह है कि उनके पति खुद काजी थे. महाराष्ट्र की आर. अंसारी को भी एक दिन अचानक तलाक-तलाक-तलाक कहकर मेहर की 786 रुपये की मामूली रकम देकर उनके पति ने छोड़ दिया. तीन तलाक के दुरुपयोग के ये कुछ नमूने भर हैं. सूची और कहानी बहुत लंबी है. 

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व्यथा कथा : 1

‘जुबानी और एकतरफा तलाक जाहिलियत है जिस पर मौलाना-मौलवी भी मुहर लगाते हैं’

शारिब, रामपुर, उत्तर प्रदेश 

­­मैं दिल्ली में सरकारी नौकरी करता हूं. हम एक पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते हैं. छोटा भाई भी इंजीनियर है और बहन फातिमा भी एमए, बीएड है और एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थी. 2013 में फातिमा के लिए गांव के ही एक परिवार से रिश्ता आया. याकूब नाम का ये लड़का नोएडा में काम करता था. उसके पिता भी सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके थे. हमें परिवार पढ़ा-लिखा लगा तो हमने भी रिश्ता पक्का कर दिया. हम सभी शिक्षित थे तो दहेज या लेन-देन की कोई बात नहीं हुई. पर मंगनी चढ़ाने पर जोर देने से उनका लालच दिखने लग गया. उन्होंने दबे स्वर में कुछ मांग भी की पर हमने उस पर गौर करना जरूरी नहीं समझा. हम दहेज के पक्षधर नहीं हैं पर फिर भी हमने अपने सामर्थ्य के अनुसार घर का सारा सामान फातिमा को शादी में दिया. पर बाद में पता चला कि वो दहेज में कार चाहते थे. हम सब ठीक-ठाक ही कमाते हैं, पर शादी में 8-10 लाख रुपये का खर्च हुआ था, जिसके बाद हम कार नहीं अफोर्ड कर सकते थे. बहरहाल, फातिमा ससुराल पहुंची. याकूब नोएडा में ही रहता था और सिर्फ वीकेंड पर घर आया करता था. उसकी गैरमौजूदगी में फातिमा को उसकी सास और ननद परेशान किया करती थीं. दहेज के लिए बातें सुनाई जाती थीं. याकूब को उसके खिलाफ भड़काती थीं जिसके बाद वो फातिमा से झगड़ा करता था. हमने फातिमा को समझाया कि अभी रिश्ता नया है, कुछ समय दो. पर ऐसा चलता रहा. बहस से बात गाली-गलौज तक पहुंची और फिर शारीरिक हिंसा शुरू हुई. याकूब फातिमा से मारपीट करता था. इस बीच फातिमा को बेटा भी हो गया. वो कई बार गुस्सा होकर मायके आ जाती और फिर खुद ही चली जाती. याकूब कभी उसकी नाराजगी देखकर भी उसे मनाकर ले जाने नहीं आया. इस बीच अच्छी बात बस यही थी कि फातिमा ने नौकरी नहीं छोड़ी और अपने और बच्चे का खर्च खुद उठाती रही. पर फिर याकूब ने उसके स्कूल में जाकर भी उसे परेशान किया. इज्जत की परवाह के चलते फातिमा को नौकरी छोड़नी पड़ी. इनसे परेशान होकर हम सब घरवालों और बिरादरी के लोगों ने साथ बैठकर ये हल निकाला कि याकूब फातिमा को अपने साथ नोएडा ले जाए, हो सकता है कि साथ रहने से वो एक-दूसरे को समझने लगें.

इस बीच फातिमा कई बार इन लोगों की गाली-गलौज और बदतमीजी को अपने फोन में रिकॉर्ड कर लिया करती थी तो उन लोगों ने फातिमा का फोन भी छीन लिया. सामने वे दिखा रहे थे कि फातिमा को याकूब के साथ नोएडा रहने भेजेंगे पर पीछे से उन्होंने झूठे आरोप लगाकर फातिमा के खिलाफ महिला थाने में शिकायत दर्ज करवा दी कि ये घर अपने नाम करवाने के लिए षड्यंत्र कर रही है. पर थाने में भी लोग समझते हैं कि कौन किसे प्रताड़ित करता है तो उन्होंने याकूब के घरवालों को ही धमकाया और एसपी ऑफिस में समाधान केंद्र पर जाने को कहा. वहां समाधान दिवस पर एक सीओ लेवल अफसर बैठता है, जो दोनों पक्षों में सुलह करवाता है. ये सितंबर 2015 की बात है जब ये लोग वहां गए. पर वहां अधिकारी ने लड़के वालों को ही समझाया, जिस बौखलाहट में याकूब का परिवार बीच से ही वहां से चला आया और आकर घर पर ताला लगा दिया. उनके पड़ोसियों से हमें पता चला कि याकूब फातिमा के घर आने का इंतजार कर रहा है और मोहल्ले वालों के सामने उसे जलील करके तलाक देने की सोच रहा है. ये जानकर हमने फातिमा को वहां नहीं भेजा और उसे घर ले आए. कुछ दिनों बाद फातिमा के नाम से एक चिट्ठी घर पहुंची, ये याकूब की तरफ से थी. हम समझ गए कि उसने तलाक भेजा है पर हमने ये डाक रिसीव नहीं की. इस बीच हमने याकूब पर दहेज प्रताड़ना के लिए धारा 498 के तहत नोएडा में शिकायत भी दर्ज करवा दी, जिसमें उसे हिरासत में लिया गया. बाद में वो जमानत पर बाहर आ गया. फातिमा तब से अपने बेटे के साथ मायके में ही रह रही हैं. हमने इस एकतरफा तलाक को नहीं माना है. हमने इस मामले को कड़कड़डूमा कोर्ट में दायर किया है. वहीं मैंने सुप्रीम कोर्ट में जुबानी और एकतरफा तलाक, बहुविवाह जैसी कुप्रथाओं को खत्म करने के लिए याचिका दायर की. इस तरह औरतों की बेइज्जती पर रोक लगनी चाहिए. ऐसा बताया जाता है जैसे मर्द कुदरत का कोई बेजोड़ नमूना है और औरत कोई दोयम दर्जे की चीज. मर्द उससे खिलौने की तरह खेलकर नहीं छोड़ सकता. औरतों के साथ ऐसा व्यवहार बंद होना चाहिए. ये जाहिलियत है जिस पर मौलाना-मौलवी भी मुहर लगाते हैं.

(सभी नाम परिवर्तित)[/symple_box]

भारत में लगभग 18 करोड़ मुसलमान रहते हैं. उनकी शादी और तलाक के मामले मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक तय होते हैं, जो जाहिर तौर पर शरिया कानून पर आधारित होते हैं. शायरा बानो ने अपनी याचिका में केवल तिहरे तलाक नहीं बल्कि हलाला और बहुविवाह जैसी व्यवस्था को भी चुनौती दी है. शरीयत कानून में हलाला एक तरह से तीन तलाक देने के बाद शौहर के लिए हराम हो चुकी उसी बीवी को दोबारा हासिल करने का तरीका है. यानी तीन तलाक देने के बाद अगर फिर शौहर का मन करे कि वह अपनी बीवी को वापस अपने साथ रखे तो पहले उस औरत का निकाह किसी दूसरे मर्द से करवाया जाता है. एक रात गुजारने के बाद औरत का दूसरा शौहर उसे तलाक दे देता है और फिर वह औरत अपने पहले शौहर के साथ निकाह कर लेती है. इस पूरी प्रक्रिया को हलाला कहते हैं.

इसके अलावा शरीयत कानून मुस्लिम पुरुष को चार निकाह की इजाजत देता है. हालांकि इसमें पति को अपनी पहली पत्नी से दूसरे निकाह की अनुमति लेनी होती है. शायरा बानो ने भारतीय संविधान में नागरिकों को दिए गए मूलभूत अधिकारों अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति, लिंग के आधार पर किसी नागरिक से कोई भेदभाव न किया जाए) और अनुच्छेद 21 (जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार) और अनुच्छेद 25 को आधार बनाते हुए कहा है कि भारतीय नागरिक होने के नाते मुस्लिम महिलाओं को भी ये अधिकार मिले हैं लेकिन उनके इन अधिकारों का हनन लगातार हो रहा है. लोकतांत्रिक देश में रहते हुए भी मुस्लिम महिलाएं दुर्व्यवहार और लैंगिक गैरबराबरी का सामना कर रही हैं.

ओडिशा की नगमा को उनके पति ने नशे में तलाक दे दिया. सुबह होश आया कि उसने गलती कर दी है. मगर धार्मिक गुरुओं ने उन्हें साथ रहने की इजाजत नहीं दी

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में शायरा के वकील बालाजी श्रीनिवासन का कहना है, ‘इस याचिका में शरीयत के दकियानूसी कानूनों को चुनौती दी गई है. इसलिए हंगामा हो रहा है. हमने याचिका में कुछ ठोस कानूनी मामलों का जिक्र किया है जिससे यह साबित होता है कि तिहरा तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह किस तरह से मुस्लिम औरतों को गुलाम बनाए रखने के तरीके हैं. साथ ही इस तरह के मामलों में आए कुछ मिसाल बने फैसलों का भी जिक्र किया है जो शायरा के केस में मददगार साबित हो सकते हैं. कुछ ऐसे विशेषज्ञों की टिप्पणियों और चर्चित सर्वे को भी दर्ज किया है जो इस ओर इशारा करते हैं कि इस तरह की प्रथाएं मुस्लिम औरतों पर एक तरह से हिंसा करने का एक जरिया बनी हुई हैं.’

गौरतलब है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में बहुविवाह को एक कुरीति माना गया है. हालांकि यहां यह सिर्फ मुसलमानों के लिए कानूनन जायज है. दुर्भाग्य से इक्कीसवीं सदी में भी ऐसी प्रथा को कानूनी मान्यता मिली हुई है जिससे मुस्लिम महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, शारीरिक और भावनात्मक खतरा होता है. इमाम और मौलवी अपने पद का दुरुपयोग करके तलाक-ए-बिद्दत, हलाला और बहुविवाह जैसी प्रथाओं को न सिर्फ समर्थन देते हैं बल्कि फैलाते भी हैं.

ऐसे मामले में अगर हम बाकी समुदायों की चर्चा करें तो सरला मुद्गल बनाम केंद्र सरकार मामले में यह बात प्रकाश में आई कि ईसाइयों में दो विवाह को क्रििश्चयन मैरिज ऐक्ट 1872 के तहत दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया था, पारसियों में पारसी मैरिज ऐंड डिवोर्स ऐक्ट 1936 के तहत और हिंदू, बौद्ध, सिख व जैन धर्म में हिंदू मैरिज ऐक्ट 1955 के तहत इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया लेकिन मुस्लिमों में इस कुप्रथा को खत्म नहीं किया गया. इसके चलते भारत में दूसरे धर्म की महिलाओं के मूलाधिकार तो सुरक्षित किए गए मगर भारतीय मुस्लिम औरतें इस कुप्रथा को आज तक झेलने को मजबूर हैं.

इसके अलावा भारत सरकार की एक उच्चस्तरीय कमेटी ने वर्ष 2015 में इस मामले पर अपनी रिपोर्ट पेश की थी. इस रिपोर्ट का शीर्षक ‘वूमेन ऐंड द लॉ- एन असेसमेंट ऑफ फैमिलीज लॉ विद फोकस ऑन लॉ रिलेटिंग टू मैरिज, डिवोर्स, कस्टडी इनहैरिटेंस ऐंड सक्सेशन’ था. इस रिपोर्ट में मुस्लिम महिलाओं की बदहाल स्थिति का हवाला देते हुए तिहरे तलाक और बहुविवाह पर रोक लगाने की बात कही गई थी.

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व्यथा कथा : 2

‘मैं कोर्ट से सिर्फ  गुजारा-भत्ता नहीं बल्कि इस्लाम के मर्दवादी कानूनों में बदलाव चाहती हूं’

शायरा बानो, काशीपुर, उत्तराखंड

रिज़वान और शायरा के निकाह की तस्वीर
रिज़वान और शायरा के निकाह की तस्वीर

हम काशीपुर के साधारण परिवार से ताल्लुक रखते हैं. 2002 में मेरी शादी इलाहाबाद के रिज़वान से हुई, जो प्रॉपर्टी डीलिंग का काम करते थे. पापा ने गहने, घर का सामान वगैरह मिलाकर लगभग तीन-चार लाख रुपये का दहेज दिया था. मेहर, जो कहा जाता है कि लड़की और उसके घरवालों की रजामंदी से तय होती है, उसे बिना हमसे पूछे तय कर दिया गया. बहरहाल, मैं ससुराल पहुंची पर निकाह के बाद से ही कम दहेज लाने को लेकर तानाकशी शुरू हो गई. घर में मेरी जेठानी भी थीं, जिन्हें भी कम दहेज के लिए परेशान किया जाता था पर क्योंकि वो मेरी सास की रिश्तेदार की बेटी थीं तो उन्हें कम परेशान किया जाता था. जैसे-तैसे दिन कट रहे थे. फिर परिवार में हुए एक घरेलू झगड़े के बाद रिज़वान मुझे लेकर अलग रहने लगे. इस दौरान मेरे दो बच्चे, एक बेटा और बेटी ही हो चुके थे. अलग रहने के बाद तो घर में झगड़े बढ़ते ही चले गए. वो बात-बेबात मुझ पर हाथ उठाते. इस बीच मुझे करीब 6-7 बार गर्भ ठहरा, पर उन्होंने गर्भपात करा दिया. और इसके लिए हम किसी डॉक्टर के यहां नहीं गए. रिज़वान कोई गोली लाकर खिला देते थे. इसके बाद से मेरी सेहत लगातार गिरने लगी और रिज़वान का मुझ पर गुस्सा बढ़ता गया. मेरी खराब सेहत का जिम्मेदार वो मुझे ही बताते, मुझे जरा-सी बात पर भी मारते-पीटते. बात ही बात में मुझे छोड़ने की धमकी देते. मैं भी हर मुस्लिम औरत की तरह तलाक की तलवार के साये में डर-डरकर जीती थी. मैंने आस-पास के कई घर ऐसे ही टूटते देखे थे. मायके वालों को भी इसी डर से ये सब नहीं बताया कि पता चलने पर न जाने रिज़वान क्या करें. मैं इसे अल्लाह की मर्जी समझ कर सब कुछ सहती रही. फिर हमारे समाज में किसी तलाकशुदा औरत को कैसे देखा जाता है, इससे हम सब वाकिफ हैं.

अप्रैल 2015 में उन्होंने मुझे इलाज करने के लिए मायके ले जाने को कहा पर फिर काशीपुर से पहले मुरादाबाद स्टेशन पर ही हमें छोड़कर चले गए. वहां से पापा हमें घर ले आए. फिर कुछ दिनों तक तो उनसे फोन पर बात हुई पर फिर उन्होंने फोन उठाना बंद कर दिया. कभी उठाते भी तो झिड़कते रहते. बच्चों के स्कूल शुरू होने थे सो पापा उन्हें इलाहाबाद छोड़ आए. मेरा इलाज उस वक्त तक चल ही रहा था तो मैं यहीं रह गई. बच्चों के वहां पहुंच जाने के बाद तो रिज़वान ने कोई खैर-खबर लेना, फोन उठाना सब ही छोड़ दिया. और फिर अक्टूबर में मेरे नाम से एक चिट्ठी घर पहुंची. जिस डर में मैं शादी के इतने साल घुट-घुटकर जीती रही थी, वही हुआ. रिज़वान ने डाक से तलाकनामा भिजवाया था. मेरी इतने सालों की चुप्पी भी हमारे रिश्ते को नहीं बचा पाई. मैं बुरी तरह टूट गई.

फिर भाई और पापा ने हिम्मत बंधाई और मैंने इंसाफ और मुस्लिम औरतों की इज्जत के लिए सुप्रीम कोर्ट जाने की ठानी. कैसी अजीब दुनिया है, कैसे अजीब नजरिये…औरत न हो गई पांव की जूती हो गई, जब तक काम दिया तो ठीक, फिर निकालकर फेंक दिया. मैं एमए तक पढ़ी हूं. मैं नौकरी भी करना चाहती थी पर रिज़वान को घर की औरतों का बाहर जाकर नौकरी करना गवारा नहीं था. सोचती हूं अगर अपने पैरों पर खड़ी होती तो शायद ये विरोध पहले कर पाती. जिंदगी के इतने साल किसी गुलाम की  तरह निकाल दिए. रिज़वान ने तलाक के बाद मेहर के 15 हजार रुपये भी भिजवाए पर क्या डर और दर्द में बीते मेरे उन 13 सालों की कोई कीमत लगाई जा सकती है?

वैसे इस तलाक ने मुझे उस डर से आजाद कर दिया है. मैं खुद पर हुए जुल्मों के खिलाफ लड़ने के लिए आजाद हूं. मैं कोर्ट से सिर्फ अपने बच्चे, अपना दहेज या गुजारा-भत्ता नहीं चाहती बल्कि इस्लाम के मर्दवादी कानूनों में भी बदलाव चाहती हूं. ये कैसा कानून है जहां निकाह औरत-मर्द दोनों की हामी से होगा पर तलाक सिर्फ शौहर की मर्जी से? शौहर तलाक भी दे फिर शरीयत की दुहाई देकर हलाला के लिए भी कहे. क्या ये औरतों की बेइज्जती नहीं है? कानून एकतरफा क्यों है? पर्सनल लॉ बोर्ड के लोग खुद को हमारा रहनुमा बताते हैं पर औरतों के हक के लिए कभी सामने नहीं आते. वहां की कुछ महिला मेंबरान ने तीन तलाक को जायज ठहराया है. मैं उनसे बस यही कहना चाहूंगी कि दूसरे के बारे में ऐसा बोलना आसान है, खुद पर गुजरे तब ही इस दर्द का एहसास होता है. मैं बस चाहती हूं कि मुस्लिम औरतों को भी इज्जत और बराबरी से जीने का हक दिया जाए.[/symple_box]

भारत में तीन तलाक यानी तलाक-ए-बिद्दत का इस्तेमाल बहुत ही खतरनाक तरीके से हो रहा है. तकनीक के विकास के साथ-साथ यह भी हो गया कि मुस्लिम पति फोन, ईमेल या पत्र के जरिए भी अपनी पत्नियों को तलाक देने लगे हैं. इस संदर्भ में ओडिशा में नगमा बीवी का मामला चर्चित हुआ था. नगमा को उनके शौहर ने नशे की हालत में तलाक दे दिया था. सुबह उसे होश आया कि उसने गलती कर दी है. मगर मुस्लिम धार्मिक गुरुओं ने उन दोनों को साथ रहने की इजाजत नहीं दी. औरत को निकाह हलाला के लिए भेज दिया गया था. वैसे भी मुस्लिम पुरुष तलाक के बाद सिर्फ तीन महीने तक अपनी तलाकशुदा पत्नियों को गुजारा भत्ता देते हैं. उसके बाद वह भी बंद हो जाता है. शाहबानो ने इस गुजारा भत्ते के लिए ही केस लड़ा था जिसमें सुप्रीम कोर्ट में उनकी जीत हो गई थी. लेकिन मुस्लिम समुदाय के एक तबके के जबर्दस्त विरोध के सामने राजीव गांधी सरकार ने घुटने टेक दिए और द मुस्लिम वूमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डिवोर्स ) ऐक्ट, 1986 लाकर कानून ही बदल डाला.

इस तरह के मामलों को लेकर नवंबर, 2015 में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) नाम की संस्था ने एक सर्वे जारी किया. सर्वे में देश के दस राज्यों की तलाकशुदा करीब पांच हजार औरतों से बात की गई. सर्वे में तलाक के तरीके, उनके साथ हुई शारीरिक-मानसिक हिंसा, मेहर की रकम, निकाहनामा, बहुविवाह जैसे कई मुद्दों पर खुलकर बात हुई. जो नतीजे आए, वे बेहद चौंकाने वाले थे. रिपोर्ट में कहा गया कि 92.1 प्रतिशत महिलाओं ने जुबानी या एकतरफा तलाक को गैरकानूनी घोषित करने की मांग की. वहीं 91.7 फीसदी महिलाएं बहुविवाह के खिलाफ हैं. 83.3 प्रतिशत महिलाओं ने माना कि मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए मुस्लिम फैमिली लॉ में सुधार करने की जरूरत है.

तीन तलाक को लेकर शायरा बानो के सुप्रीम कोर्ट जाने के बाद देश में भी तीन तलाक की व्यवस्था को खत्म करने की आवाज तेज होने लगी है. इसके खिलाफ एक ऑनलाइन याचिका पर करीब 50,000 मुस्लिम महिलाओं ने हस्ताक्षर किए हैं. हस्ताक्षर करने वाले लोगों में बड़ी संख्या में मुस्लिम पुरुष भी शामिल थे. याचिकाकर्ता बीएमएमए चाहता है कि राष्ट्रीय महिला आयोग इसमें हस्तक्षेप करे. बीएमएमए ने महिला आयोग की अध्यक्ष ललिता कुमारमंगलम को लिखे पत्र में कहा कि उसने अपने अभियान के पक्ष में 50,000 से अधिक हस्ताक्षर लिए हैं. हमने यह पाया है कि महिलाएं जुबानी-एकतरफा तलाक की व्यवस्था पर पाबंदी चाहती हैं. ‘सीकिंग जस्टिस विदिन फैमिली’ नामक हमारे अध्ययन में पाया गया कि 92 फीसदी मुस्लिम महिलाएं तलाक की इस व्यवस्था पर पाबंदी चाहती हैं. इस मामले में ललिता कुमारमंगलम का कहना है कि आयोग सुप्रीम कोर्ट में शायरा बानो के मुकदमे का समर्थन करेगा. उनका कहना है, ‘राष्ट्रीय महिला आयोग पहले से ही इस मुकदमे का हिस्सा है. हम इस महीने सुप्रीम कोर्ट में अपना जवाब दाखिल करेंगे. इस मांग का 200 फीसदी समर्थन करते हैं. जो भी बन पड़ेगा, हम करेंगे.’

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बीएमएमए ने इसे लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी खत लिखा है. अपने खत में बीएमएमए ने कहा है कि मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए या तो शरीयत एप्लीकेशन लॉ, 1937 और मुस्लिम मैरिज ऐक्ट, 1939 में संशोधन किए जाए या फिर मुस्लिम पर्सनल कानूनों का एक नया स्वरूप लाया जाए. बीएमएमए ने मुस्लिम महिलाओं, वकीलों, धर्म के जानकारों से बातचीत और कुरान के सिद्धांतों के आधार पर मुस्लिम फैमिली लॉ का एक ड्राफ्ट तैयार किया है. इसमें कहा गया है कि निकाह के लिए लड़के और लड़की की आयु 21 और 18 वर्ष तय हो, मेहर की रकम लड़के की वार्षिक आय के बराबर हो, जुबानी तलाक खत्म हो, तलाक देने के लिए तीन महीने का समय तय हो यानी एक बार में तीन तलाक देना बंद हो, तलाक एकतरफा न हो, तलाक के बाद जरूरी तौर पर शौहर बीवी के भरण पोषण की जिम्मेदारी ले, हलाला व बहुविवाह को गैर-कानूनी घोषित किया जाए और तलाक के बाद गुजारा भत्ता मुस्लिम वूमेन प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डिवोर्स ऐक्ट, 1986 के अनुसार दिया जाए.

भारतीय अदालतों ने भी तीन तलाक को खत्म करने की दिशा में कुछ अहम फैसले सुनाए हैं. 2008 के एक मामले में फैसला देते हुए दिल्ली हाई कोर्ट के एक जज बदर दुरेज अहमद ने कहा था कि भारत में तीन तलाक को एक तलाक (जो वापस लिया जा सकता है) समझा जाना चाहिए. इसी तरह से गुवाहाटी हाई कोर्ट ने जियाउद्दीन बनाम अनवरा बेगम मामले में कहा था कि तलाक के लिए पर्याप्त आधार होने चाहिए और सुलह की कोशिशों के बाद ही तलाक होना चाहिए. इस साल मई में सेना के एक जवान की ओर से पत्नी को बोले गए ‘तीन तलाक’ को कोर्ट ने खारिज कर दिया. मिलिट्री ट्रिब्यूनल ने कहा कि कोई भी व्यक्ति पर्सनल लॉ की आड़ में देश के संविधान के खिलाफ नहीं जा सकता है, जो सभी धर्म की महिलाओं के हक की सुरक्षा की बात करता है.

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आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल की लखनऊ बेंच ने कहा कि पर्सनल लॉ या भारत का संविधान भी किसी भी पति को यह हक नहीं देता कि वह अपनी बीवी को जुबानी, नोटिस भेजकर या मनमानी तरीके से बिना उसकी अनुमति के तलाक दे दे. बेंच ने कहा कि शादी महिला और पुरुष की स्वीकृति पर आधारित होती है. जब तक दो लोग सहमत नहीं होते हैं, तब तक कोई निकाह नहीं हो सकता. शादी एक तरह का कॉन्ट्रैक्ट है, जिसे एकतरफा तौर पर खत्म नहीं किया जा सकता.

वैसे ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) तीन तलाक की प्रथा में किसी भी फेरबदल के खिलाफ अब भी अड़ा हुआ है. भारत में शरई कानूनों की हिफाजत के लिए बोर्ड ने लड़ाई का ऐलान किया है. पांच जून, 2016 को लखनऊ के मशहूर मदरसे नदवातुल उलूम में हुई बोर्ड की बैठक में हैदराबाद के सांसद मौलाना असदुद्दीन औवेसी भी शामिल हुए. बोर्ड ने एक साथ तीन तलाक को शरई एतबार से जायज करार दिया है. इसके अलावा तलाक, गुजारा भत्ता, चार शादियां आदि मामले में शरीयत कानून के खिलाफ आ रहे अदालती फैसलों को बोर्ड ने पर्सनल लॉ में दखलअंदाजी माना है. इस दौरान बोर्ड ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास करके कहा कि इस मामले में प्रधानमंत्री से भी संपर्क करके कहा जाएगा कि शरई मामलों में दखल देने की कोशिशों पर विराम लगाया जाए. साथ ही बोर्ड ने भारत में शरई अदालतों (दारुल कजा) की तादाद में इजाफे का भी फैसला किया है. बोर्ड ने कहा कि यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि मुस्लिम औरतों की स्थिति ठीक नहीं है, जबकि वास्तविकता इसके एकदम उलट है. गौरतलब है कि शायरा बानो द्वारा दायर की गई याचिका में एआईएमपीएलबी भी पक्षकार है.

पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत तकरीबन 22 मुस्लिम देशों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तीन तलाक की प्रथा खत्म कर दी है. इस सूची में तुर्की और साइप्रस भी शामिल हैं

हालांकि इस मसले पर दुनिया जिस तरफ आगे बढ़ रही है, एआईएमपीएलबी का रुख उसके बिल्कुल उलट है. जानने वाली बात यह है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत तकरीबन 22 मुस्लिम देशों ने अपने यहां सीधे-सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से तीन बार तलाक की प्रथा खत्म कर दी है. इस सूची में तुर्की और साइप्रस भी शामिल हैं जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष पारिवारिक कानूनों को अपना लिया है. ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मलेशिया के सारावाक प्रांत में कानून के बाहर किसी तलाक को मान्यता नहीं है. ईरान में शिया कानूनों के तहत तीन तलाक की कोई मान्यता नहीं है.

हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका में तकरीबन 10 फीसदी मुस्लिम आबादी है. वहां का कानून तुरंत तलाक वाले किसी नियम को मान्यता नहीं देता. मिस्र पहला देश था जिसने 1929 में कानून-25 के जरिए घोषणा की कि तलाक को तीन बार कहने पर भी उसे एक ही माना जाएगा और इसे वापस लिया जा सकता है. 1935 में सूडान ने भी कुछ और प्रावधानों के साथ यह कानून अपना लिया. आज ज्यादातर मुस्लिम देश- ईराक से लेकर संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन, कतर और इंडोनेशिया तक ने तीन तलाक के मुद्दे पर इस विचार को स्वीकार कर लिया है.

पाकिस्तान में भी तीन तलाक की प्रथा नहीं है. वहां कोई भी व्यक्ति ‘किसी भी रूप में तलाक’ कहता है तो उसे यूनियन काउंसिल (स्थानी निकाय) के चेयरमैन को इस बारे में जानकारी देते हुए एक नोटिस देना होगा और इसकी कॉपी अपनी बीवी को देनी होगी. यदि कोई व्यक्ति ऐसा करने में असफल रहता है तो उसे एक साल की सजा हो सकती है. 5000 रुपये का जुर्माना देना पड़ सकता है. चेयरमैन को नोटिस देने के 90 दिन बाद ही तलाक प्रभावी माना जाएगा. नोटिस पाने के 30 दिन के भीतर चेयरमैन को एक पंच परिषद बनानी होगी जो तलाक के पहले सुलह करवाने की कोशिश करेगी. यदि महिला गर्भवती है तो तलाक 90 दिन या प्रसव, जिसकी समयावधि ज्यादा हो, के बाद ही प्रभावी होगा. संबंधित महिला तलाक होने के बाद भी अपने पूर्व पति से शादी कर सकती है और इसके लिए उसे बीच में किसी तीसरे व्यक्ति से शादी करने की जरूरत नहीं है. बांग्लादेश में भी यही कानून लागू है.

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व्यथा कथा : 3

‘पांच साल से इंसाफ के लिए धक्के खा रही हूं; अफसरों, रक्षामंत्री और प्रधानमंत्री तक से गुहार लगा चुकी हूं’

अर्शिया इस्माइल, बरेली, उत्तर प्रदेश

बात 1999 की है. मैं शादी के एक बुरे अनुभव से गुजरकर तलाक ले चुकी थी. एक बेटी थी, जिसे मायके में रहकर ही पढ़ा रही थी. इसी बीच बच्ची के स्कूल के जरिए मेरी असरार (परिवर्तित नाम) से मुलाकात हुई जो कि एयरफोर्स के एक विंग कमांडर (हेलिकॉप्टर पायलट) थे और उस समय बरेली में ही पोस्टेड थे. असरार भी तलाकशुदा थे और हमारी बच्चियां साथ पढ़ती थीं. कुछ समय बाद हमने शादी करने का फैसला किया. 2000 में मेरा निकाह असरार से हुआ. मैं गैर-इस्लामिक धर्म से आती हूं, इसलिए मैंने धर्म परिवर्तन करके शादी की थी. बच्चियां आपस में दोस्त थीं तो जिंदगी की पटरी पर हमारी गाड़ी आराम से दौड़ रही थी.

18 अप्रैल, 2011 तक सब सही चल रहा था कि एक दिन असरार ने मुझसे कहा कि उन्होंने मुझे तलाक दे दिया है… मैं हैरान रह गई. मुझे पता चला कि असरार का कहीं अफेयर चल रहा है. उस समय उनकी पोस्टिंग हैदराबाद में थी. कुछ ही महीनों पहले एक दुर्घटना में मेरी बेटी की रीढ़ में गहरी चोट आई थी और वो बिस्तर पर थी. तलाक और असरार के अफेयर के बारे में जानकर मेरी परेशानी और बढ़ गई. हमने इस पर बात करने की कोशिश की पर कोई फायदा नहीं हुआ. मैंने उन्हें साफ मना कर दिया कि वो मुझे तलाक नहीं दे सकते वो भी ऐसे वक्त में. मैं अपनी ऐसी हालत में अपनी बेटी को लेकर कहां जाऊंगी. एक दिन असरार का फोन घर पर ही छूट गया और मैंने उनकी उस महिला दोस्त का कॉल रिसीव कर लिया और कहा कि उनकी वजह से ही हमारी जिंदगी में इतनी मुश्किलें हो रही हैं. तब तक असरार आ गए और उन्होंने मुझे बहुत मारा. मेरी बीमार बेटी ने ये देख लिया और जैसे-तैसे फोन करके उनके कमांडेंट की पत्नी को घर बुला लिया. वो भागते हुए हमारे यहां आईं. जब तक वे आईं तब तक मेरे चेहरे और शरीर पर काफी चोटें आ चुकी थीं. ये बात फिर उन्होंने अपने पति को बताई और कमांडेंट ने असरार को धमकी दी कि आगे कभी ऐसा हुआ तो वे इस मामले को सिविल कोर्ट में ले जाएंगे. उसके बाद असरार ने कहा कि वो ये तलाक वापस ले लेंगे. ये 26 अप्रैल का दिन था. उन्होंने अहले हदीस के एक स्थानीय इमाम से पूछा और वापस आकर साथ रहने लगे. कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझसे कहा कि मैं दिमागी रूप से अब भी परेशान हूं तो क्यों न तुम कुछ वक्त बाहर कहीं रहो. दो-तीन महीने में मैं तुम्हें वापस बुला लूंगा. उन्होंने मुझे किराये के घर के लिए खर्च आदि देने की भी बात कही. मैं उस समय बस अपना घर टूटने से बचाना चाहती थी सो मैं इस पर भी राजी हो गई. मैं तीन महीने किराये के घर में रही और फिर उन्हें फोन किया पर उनका कोई जवाब नहीं मिला. इसी बीच मेरे भाई का इंतकाल हो गया और मैं बरेली आ गई. यहां से वापस पहुंची पर उन्होंने मुझे वापस अपने घर नहीं बुलाया.

नवंबर में एक दिन उन्होंने मुझे फोन करके कहा कि 18 अप्रैल को उनका दिया गया तलाक जायज है. उन्होंने जामिया निजामिया (एक मुस्लिम संस्था) से तलाक का एक फतवा बनवाकर एयरफोर्स अथॉरिटी में जमा करवा दिया है जिससे उनके रिकॉर्ड्स में अब मैं असरार की पत्नी नहीं हूं और इसलिए एयर फोर्स रेजीडेंसी में भी नहीं रह सकती. ये सरासर धोखा था. जाहिर है जामिया निजामिया का ये फतवा असरार ने गलत जानकरी देकर बनवाया था. मैंने उन इमाम साहब से बात की. उन्होंने मुझे वो कागज दिए जिस पर असरार ने तलाक वापस लेने की बात लिखी थी. पर एयरफोर्स ने उसे नहीं माना. मैंने एयरफोर्स के चीफ को चिट्ठी लिखी. उनके आदेश पर एक क्रिमिनल केस फाइल किया गया, पुलिस आई, सीआईडी ने जांच भी की और मेरे दावों को सही बताया. पर इसके बाद भी कोई फायदा नहीं हुआ.

असरार ने सोचा तक नहीं कि एक बीमार बच्ची को लेकर मैं हैदराबाद जैसे इतने बड़े शहर में बिना किसी नौकरी के कैसे गुजारा करूंगी. मैंने कोर्ट में अर्जी डाली और बेबस होकर बरेली लौट आई. जनवरी 2015 में मैंने एयरफोर्स की एक महिला अधिकारी जिन्हें मैं पहले से जानती थी, उनसे संपर्क किया. उन्हें सारे कागज दिखाए और उन्होंने मेरी बात मानकर पूरा केस वहां खुलवाया. उन्हें अपने द्वारा की गई भूल का एहसास तो था पर वो इसे मानें कैसे? उन्होंने मुझसे कोर्ट से निर्णय लाकर देने को कहा. मेरे ये कहने पर कि असरार से कोर्ट के कागज क्यों नहीं मांगे थे जब उन्होंने कहा कि मुझे तलाक दे दिया है. इस पर उन्होंने मुझसे कहा कि आप ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से लिखवाकर लाइए तो हम आपको असरार की पत्नी मानकर वहां रहने की इजाजत दे देंगे. मैंने जैसे-तैसे भागदौड़ करके ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक जनरल सेक्रेटरी से मुलाकात की जिन्होंने बताया कि शरीयत के हिसाब से भी ये तलाक नाजायज है और मैं अब भी असरार की पत्नी हूं. उन्होंने ये बात लिखकर भी दी. इसे मैंने एयरफोर्स अथॉरिटी में जमा भी करवा दिया और उन्होंने आगे इस पर जांच करने की बात कही. इस बात को दस महीने हो चुके हैं पर अब तक उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया है. मैं सोचती हूं असरार ने इन झूठे कागजों से सिर्फ मुझे ही धोखा नहीं दिया है बल्कि जिस संस्थान में वो नौकरी करते हैं, यह उसके साथ भी धोखा है. इस सबके दौरान जब असरार से बात हुई तो उन्होंने कहा कि वो मुझे पत्नी नहीं मानते और मुझे गुजारे-भत्ते के नाम पर एक कौड़ी भी नहीं देंगे. ये वो शख्स कह रहा था जिसे मैंने अपनी जिंदगी के 11 साल दिए थे.

आज पांच साल से मैं इंसाफ के लिए धक्के खा रही हूं, पर कोई फायदा नहीं हुआ. बड़े-बड़े अधिकारियों से लेकर रक्षामंत्री और प्रधानमंत्री तक को लिखकर न्याय की गुहार लगा चुकी हूं. बरेली में भी कब तक रह सकती थी इसलिए दिल्ली में रहकर एक स्कूल में नौकरी करके बेटी को पढ़ाया है. ये दौर मेरी बेटी के लिए कितना मुश्किल रहा होगा, इसके बारे में कोई नहीं सोचता. हैदराबाद में कोर्ट में हमारे केस की सुनवाई चल रही है. अभी रीकंसीलिएशन (सुलह) का वक्त है. उन्हें यह एहसास हो चुका है कि वो गलत हैं. पिछली सुनवाई पर जब मैं वहां गई थी तब केस कमजोर पड़ता देख असरार ने मुझे इमोशनल ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया. उन्होंने मुझसे कहा कि अगर मैंने केस वापस नहीं लिया और फैसला उनके पक्ष में नहीं गया तो वो खुद को गोली मार लेंगे. वो जानते हैं कि अब भी मैं उनकी परवाह करती हूं पर क्या उन्होंने बीते सालों में कभी हमारी परवाह की?[/symple_box]

इस्लाम में तलाक के तीन तरीके ज्यादा प्रचलन में हैं. इनमें से एक है तलाक-ए-अहसन. जानकारों के मुताबिक तलाक-ए-अहसन में शौहर बीवी को तब तलाक दे सकता है जब उसका मासिक चक्र न चल रहा हो (तूहरा की समयावधि). इसके बाद तकरीबन तीन महीने की समयावधि जिसे इद्दत कहा जाता है, में वह तलाक वापस ले सकता है. यदि ऐसा नहीं होता तो इद्दत के बाद तलाक को स्थायी मान लिया जाता है. लेकिन इसके बाद भी यदि यह जोड़ा चाहे तो भविष्य में शादी कर सकता है और इसलिए इस तलाक को अहसन (सर्वश्रेष्ठ) कहा जाता है.

   दूसरे प्रकार के तलाक को तलाक-ए-हसन कहा जाता है. इसकी प्रक्रिया की तलाक-ए-अहसन की तरह है लेकिन इसमें शौहर अपनी बीवी को तीन अलग-अलग बार तलाक कहता (जब बीवी का मासिक चक्र न चल रहा हो) है. यहां शौहर को अनुमति होती है कि वह इद्दत की समयावधि खत्म होने के पहले तलाक वापस ले सकता है. यह तलाकशुदा जोड़ा चाहे तो भविष्य में फिर से शादी कर सकता है. इस प्रक्रिया में तीसरी बार तलाक कहने के तुरंत बाद वह अंतिम मान लिया जाता है. तलाकशुदा जोड़ा फिर से शादी तब ही कर सकता है जब बीवी किसी दूसरे व्यक्ति से शादी कर ले और उसे तलाक दे. इस प्रक्रिया को हलाला कहा जाता है.

तीन तलाक पर मुस्लिम समाज बंटा हुआ है. बड़ी संख्या में उलेमा और अल्पसंख्यक संगठन इसके समर्थन में हैं तो समाज के एक तबके की नजर में यह पक्षपातपूर्ण है

 तीसरे प्रकार को तलाक-ए-बिद्दत कहा जाता है. इसमें तलाक की उस प्रक्रिया की बुराइयां साफ-साफ दिखने लगती हैं जिसमें शौहर एक बार में तीन तलाक कहकर बीवी को तलाक दे देता है. तलाक-ए-बिद्दत के तहत शौहर तलाक के पहले ‘तीन बार’ शब्द लगा देता है या ‘मैं तुम्हें तलाक देता हूं’ को तीन बार दोहरा देता है. इसके बाद शादी तुरंत टूट जाती है. इस तलाक को वापस नहीं लिया जा सकता. तलाकशुदा जोड़ा फिर हलाला के बाद ही शादी कर सकता है.

इस्लामी जानकार कहते हैं कि तलाक-ए-बिद्दत या एक साथ तीन बार तलाक कहकर तलाक देने की प्रक्रिया यह सुनिश्चित करने के लिए शुरू की गई थी कि जहां जोड़े के बीच कभी न सुधरने की हद तक संबंध खराब चुके हैं या दोनों का साथ रहना बिल्कुल मुमकिन नहीं हैं वहां तुरंत तलाक हो जाए. इस्लाम में प्रचलित चारों सुन्नी विचारधाराएं- हनफी, मलिकी, हंबली और शाफेई इस प्रक्रिया पर सहमति जताती हैं.

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तीन तलाक पर एआईएमपीएलबी और सुप्रीम कोर्ट की तकरार के बाद मुस्लिम समाज बंटता नजर आ रहा है. बड़ी संख्या में उलेमा और अल्पसंख्यक संगठन इसके समर्थन में हैं तो दूसरी ओर महिलाओं और समाज के एक तबके की नजर में यह पक्षपातपूर्ण है.

लखनऊ में ही हुई एआईएमपीएलबी की बैठक को संबोधित करते हुए बोर्ड की पदाधिकारी अस्मा जेहरा ने कहा, ‘इस्लाम में महिलाओं और पुरुषों को बराबरी का हक दिया गया है. तलाक की समस्या बड़े शहरों में आ रही है. छोटे कस्बों में इस तरह की परेशानी नहीं है. जहां तक वॉट्सऐप और मैसेज के जरिए तलाक देने की बात है तो इसके बाद मुस्लिम महिलाओं के पास एक ऐसा साक्ष्य तो होता है कि वे तलाकशुदा हैं. इससे वह अपनी आगे की जिंदगी आसानी से शुरू कर सकती हैं. दूसरे समुदायों की महिलाओं को लंबे समय तक छोड़ दिया जाता है और उसके पास इस बात का कोई प्रमाण भी नहीं होता है. हमें इस बात की कोई चिंता नहीं है कि दूसरे देशों में क्या हो रहा है. भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहां सभी धर्मों को बराबर अधिकार मिले हैं.’

अस्मा जेहरा के अनुसार, भारत में बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाएं इस तरह के कानूनों का पालन करना चाहती हैं. उन्होंने कहा, ‘99 फीसदी महिलाएं कुरान में उल्लिखित नियम और कानून का पालन करने की पक्षधर हैं. निकाह में सबसे पहले वधू की रजामंदी स्वीकार की जाती है. इसी तरह पुरुष तीन बार तलाक बोलकर अपने वैवाहिक संबंध समाप्त कर सकता है. महिलाओं को भी इस तरह का अधिकार दिया गया है. वे खुला या फसख-ए-निकाह बोलकर शादीशुदा जिंदगी से किनारा कर सकती हैं.’

इस दौरान बोर्ड की एक अन्य महिला सदस्य साफिया नसीम ने कहा, ‘मुस्लिम महिलाएं शरीयत कानून में किसी भी तरह की दखलंदाजी को कतई बर्दाश्त नहीं करेंगी. शरीयत कानून पर गैरजरूरी सवाल उठाए जा रहे हैं जो अफसोसजनक हैं. संदिग्ध सर्वेक्षणों के जरिए मुस्लिम समाज को लेकर भ्रांति का माहौल खड़ा करने की साजिश रची जा रही है.’

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वहीं बोर्ड के सदस्य और ईदगाह के इमाम मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली ने कहा, ‘इस्लाम में तीन तलाक की व्यवस्था को जायज ठहराया गया है. कुरान शरीफ के अनुसार यह पद्धति न्यायसंगत है. बोर्ड की महिला सदस्यों ने भी तीन बार तलाक बोले जाने की प्रथा का समर्थन किया है. बोर्ड जल्द ही केंद्र सरकार से मांग करेगा कि वह भी पहले की सरकारों की तरह पर्सनल लॉ में दखलंदाजी न करे.’ 

‘कुरान के नाम पर डरा-धमकाकर पितृसत्ता को बढ़ावा दिया गया. उसमें ऐसा कुछ नहीं लिखा है. कुरान के गलत अर्थ निकालकर उसमें चालाकी से हेर-फेर किया गया है’

बीएमएमए की सह-संस्थापक नूरजहां सफिया नियाज़ कहती है, ‘तीन बार तलाक कहने से तलाक होने से बहुत सारी महिलाएं परेशान हैं. फोन पर तलाक हो रहे हैं, वॉट्सऐप पर हो रहे हैं और जुबानी तो हो ही रहे हैं. एक पल में महिला की जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है. जुबानी तलाक एक गलत प्रथा है और महिलाओं के सम्मान के लिए इसे खत्म करना जरूरी है. आप औरतों को कोई वस्तु नहीं समझ सकते. सोचिए ये सब 21वीं सदी में हो रहा है. यहां एक विधि सम्मत कानून की जरूरत है. जो कानून हैं, उनमें सुधारों की जरूरत है.’

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उन्होंने कहा, ‘कुरान के नाम पर, धर्म के नाम पर डरा-धमकाकर पितृसत्ता को और बढ़ावा दिया गया. कानूनी मसलों पर कुरान में ऐसा कुछ नहीं लिखा है. कुरान के गलत अर्थ निकाले गए हैं, उसमें चालाकी से हेर-फेर किया गया. दरअसल जिस भाषा में कुरान लिखी गई उसे लोग नहीं जानते थे तो इसका तर्जुमा किया गया और अपने हिसाब से अर्थ निकाले गए. हमने कुरान पढ़ा है और ये काफी प्रगतिशील है. उसमें कहीं बहुविवाह, जुबानी तलाक या हलाला की बात नहीं कही गई है.’

उत्तर प्रदेश की पहली महिला काजी हिना जहीर नकवी ने भी तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग की है. उन्होंने कहा, ‘मैं तीन तलाक की कड़े शब्दों में निंदा करती हूं. यहां तक कि कुरान में इस तरह का कोई निर्देश नहीं दिया गया, जिससे मौखिक तलाक को बढ़ावा दिया जाए. यह कुरान की आयतों का गलत मतलब निकाला जाना है. इसने मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी को खतरे में डाल दिया है.’

ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर भी तीन तलाक का खुलकर विरोध करती हैं. वे कहती हैं, ‘तीन तलाक कुरान शरीफ के कानूनों के खिलाफ है. कुरान शरीफ में एक ही बार में तीन तलाक की बात नहीं कही गई है. ऐसा तरीका जो कुरान के हिसाब से जायज नहीं है उसे स्वीकार नहीं किया जाएगा. जहां तक मामले के सुप्रीम कोर्ट में जाने की बात है, तो हमें देश की सर्वोच्च अदालत पर पूरा भरोसा है. यहां पर मुस्लिम पर्सनल लॉ को ध्यान में रखते हुए फैसले दिए जाते हैं.’

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एआईएमपीएलबी द्वारा तीन तलाक को जायज ठहराए जाने और खासकर उसकी महिला सदस्यों द्वारा इसकी पैरवी किए जाने के मामले पर शाइस्ता अंबर कहती हैं, ‘एआईएमपीएलबी के सदस्य जमीनी हकीकत से रूबरू नहीं हैं. हम पिछले कई सालों से इस मसले पर काम कर रहे हैं. हमें पता है कि वास्तविकता क्या है. बोर्ड में जो महिला सदस्य हैं उनके पास जमीनी हकीकत की कितनी जानकारी है इस पर सर्वे करने की जरूरत है. वैसे एआईएमपीएलबी से हमारी कोई लड़ाई नहीं है. हमारा मानना है कि जो भी कुरान शरीफ की गलत व्याख्या करेगा या उसका पालन नहीं करेगा, हम उसके खिलाफ हैं. फिर चाहे वो एआईएमपीएलबी ही क्यों न हो.’

जामिया मिलिया इस्लामिया की छात्रा लुबना सिद्दीकी का कहना है, ‘हमारे देश में एक साथ तीन तलाक की जो व्यवस्था है और पर्सनल लॉ बोर्ड ने जिसे मान्यता दी है वो पूरी तरह कुरान व इस्लाम के मुताबिक नहीं है. कुरान में तीन महीने में तलाक की व्यवस्था की गई है. पुरुषवादी समाज ने तलाक की पूरी व्यवस्था को अपनी सहूलियत के हिसाब से बना दिया है. इसमें कुरान के मुताबिक संशोधन की सख्त जरूरत है.’

हालांकि मुस्लिम तुष्टीकरण और वोट बैंक की राजनीति के चलते राजनीतिक पार्टियों के नेता तीन तलाक के खात्मे के पक्षधर होने के बावजूद सीधी टिप्पणी करने से बचते हैं. कांग्रेस नेता मीम अफजल कहते हैं, ‘कुरान में तलाक की जो व्याख्या की गई है वह तीन तलाक से मेल नहीं खाती है. कुरान में साफ कहा गया है कि तलाक तीन महीने में होना चाहिए.

तीन तलाक को लेकर मुस्लिम महिलाओं को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. मेरा मानना है कि अब वक्त आ गया है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य इस पर बैठकर विचार करें और ऐसा फैसला लें जो सभी के हित में हो.’

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भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चा के राष्ट्रीय प्रभारी फारूक खान का कहना है, ‘इस मसले पर पार्टी की राय मैं नहीं बता सकता, लेकिन मेरा अपना मानना है कि तीन तलाक प्रथा पूरी तरह से गैरइस्लामी है और इसका खात्मा होना चाहिए.’

वहीं अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्ला का कहना है, ‘इस्लाम में तलाक की इजाजत है पर यह जरूरी नहीं है. ऐसी बहुत सी इजाजते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि उनका उपयोग किया ही जाए. तलाक को पैगंबर ने भी अच्छा नहीं माना है. उन्होंने इसे नजरअंदाज करने को कहा है. वैसे भी एक बार में तीन तलाक का जिक्र कुरान में नहीं है. तो यह अपने आप खारिज हो जाता है.’