सोमवार, 25 जनवरी को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पश्चिम बंगाल में एक रैली को संबोधित कर रहे थे. इस दौरान आत्मविश्वास से लबरेज शाह ने ममता सरकार की जमकर बखिया उधेड़ी. उन्होंने कहा कि ममता ने परिवर्तन नहीं सिर्फ पतन किया है. रैली की खासियत यह थी कि शाह दोबारा या कहें कि पूरे तीन साल के लिए पार्टी अध्यक्ष चुने जाने के बाद पहली बार सार्वजनिक रैली को संबोधित कर रहे थे. मजेदार बात यह है कि पार्टी अध्यक्ष चुने जाने को लेकर शाह इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने बाकायदा अध्यक्ष के चुनाव वाले दिन अपनी रैली तय कर रखी थी. दरअसल 20 जनवरी को दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय 11, अशोक रोड पर यह सूचना चस्पा कर दी जाती है कि 24 जनवरी को सुबह 10 से दोपहर एक बजे तक अध्यक्ष पद के लिए नामांकन होगा. एक से डेढ़ बजे तक नाम वापस लेने और जांच करने का काम होगा. और जरूरी हुआ तो 25 जनवरी को चुनाव होगा. लेकिन इसी के साथ अगर अमित शाह के कैलेंडर की जांच करें तो पहले से ही यह तय था कि वह 25 जनवरी को पश्चिम बंगाल के हावड़ा में रैली करेंगे. यानी कि अध्यक्ष का चुनाव सिर्फ औपचारिकता था. सारी बातें पहले से ही तय थीं.
हालांकि बिहार विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की करारी हार के बाद जिस तरह से पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की अगुवाई में मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार और यशवंत सिन्हा का साझा बयान आया था, उससे यह लगता था कि अमित शाह की वापसी में दिक्कतें आएंगी. इसके अलावा बीच-बीच में दूसरे नेताओं व संघ परिवार की नाराजगी की भी खबरें आती रहीं. इस दौरान अमित शाह के नेतृत्व पर भी सवाल उठाए जाते रहे. लेकिन अमित शाह को एक बार फिर से तीन साल के लिए निर्विरोध भाजपा अध्यक्ष के तौर पर चुन लिया गया. वैसे भी भाजपा में निर्विरोध अध्यक्ष चुनने की परंपरा रही है. वह इस बार भी कायम रही.
भाजपा मुख्यालय पर उनकी ताजपोशी के वक्त राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू समेत कई केंद्रीय मंत्री मौजूद रहे. इसके अलावा नामांकन और अध्यक्ष के निर्वाचन की घोषणा के वक्त भाजपा शासित लगभग सभी राज्यों के मुख्यमंत्री मौजूद रहे. वहीं इस कार्यक्रम के लिए देश भर से 1500 से ज्यादा प्रदेश व जिला स्तर के नेताओं को दिल्ली बुलाया गया था. हालांकि इस पूरे कार्यक्रम से भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी और लाल कृष्ण आडवाणी नदारद रहे. इसे लेकर भी सवाल उठते रहे. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यदि अमित शाह को दोबारा भाजपा अध्यक्ष बनाया गया तो इसका कारण उनकी कार्यकुशलता से ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी से निकटता, उनकी कार्यशैली को समझने का हुनर और संघ परिवार के पास बेहतर विकल्प का न होना था.
‘संगठन में सबको साथ लेकर चलने की चुनौती अमित शाह के सामने है. भाजपा अध्यक्ष के रूप में उन पर यह आरोप लगता रहा है कि अभी तक वह सबको साथ लेकर चलने में असफल रहे हैं, जो कि पार्टी और सरकार दोनों के लिए खतरनाक है’
अब जब वह अध्यक्ष बन गए हैं तो उनके सामने बहुत सारी चुनौतियां हैं. अमित शाह को इनसे पार पाना होगा. अगले दो साल में 10 राज्यों में चुनाव होने हैं. पश्चिम बंगाल, असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु में 2016 में चुनाव होंगे. उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा, मणिपुर, उत्तराखंड में 2017 में चुनाव होंगे.
राजनीतिक विश्लेषक अभय दुबे कहते हैं, ‘2016 में अमित शाह को पांच चुनावों का सामना करना पड़ेगा और इन पांचों जगहों पर भाजपा के जीतने की कोई उम्मीद नहीं हैं. केवल असम में भाजपा के लिए कुछ उम्मीदें है. अब अमित शाह के सामने चुनौती यह है कि इन जगहों पर जहां भाजपा की हार तय है, वह अपने वोट बैंक में बढ़ोतरी करें. अगर वोट बैंक नहीं बढ़ा तो अमित शाह के नेतृत्व पर सवाल खड़ा हो जाएगा. इसके अलावा अमित शाह को भाजपा के अंदर क्षेत्रीय नेतृत्व पैदा करना है. हालिया बिहार और दिल्ली चुनाव में हार का यह प्रमुख कारण रहा है. उत्तर प्रदेश में भी अभी उनके पास मुख्यमंत्री पद का योग्य दावेदार नहीं है. केवल कुछ राज्य जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ ही ऐसे हैं, जहां पर क्षेत्रीय नेतृत्व सही तरीके से विकसित हुआ है. अमित शाह अगर भाजपा को दूरगामी लाभ पहुंचाना चाहते हैं तो उन्हें क्षेत्रीय नेतृत्व विकसित करना होगा. इसके अलावा शाह के सामने भाजपा के वरिष्ठ नेतृत्व को साथ में लेकर चलने की भी चुनौती है. उनके अध्यक्ष चुने जाने के कार्यक्रम से मार्गदर्शक मंडल गायब रहा. अगर ऐसा करने में नाकामयाब रहे तो जैसे ही वह पहली गलती करेंगे, मार्गदर्शक मंडल का पत्र आ जाएगा, जिससे नेताओं और कार्यकर्ताओं में गलत संदेश जाएगा.’
इसके अलावा अमित शाह के सामने उत्तर प्रदेश सबसे कड़ी चुनौती है. यहां पर उनके ऊपर अध्यक्ष के साथ-साथ मुख्यमंत्री पद के दावेदार को चुनने की चुनौती है. इसी तरह पश्चिम बंगाल में नेता का चुनाव शाह को करना है. वहीं पंजाब और असम जैसे राज्यों में भी पार्टी को मजबूत करना है. विश्लेषकों का कहना है कि अमित शाह के सामने 2016 में होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों में बेहतरीन प्रदर्शन करने का दबाव है. अगर वह इसमें असफल रहते हैं तो इसका सीधा परिणाम 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा. जिसे उनके लिए आगामी लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है. इस बार भी केंद्र की सत्ता पर वह खासकर उत्तर प्रदेश के जरिये ही कब्जा जमाने में सफल रहे हैं.
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘अगर शाह के नेतृत्व में इस साल भाजपा का प्रदर्शन बेहतर नहीं होता है, तो इसका सीधा असर अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश चुनाव पर पड़ेगा. भाजपा के लिए ये पांच राज्य अब से पहले इतने महत्वपूर्ण कभी नहीं रहे. अगर वह यहां कुछ भी बेहतर करते हैं तो इससे कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा. इसके अलावा संगठन में सबको साथ लेकर चलने की चुनौती अमित शाह के सामने है. भाजपा अध्यक्ष के रूप में उन पर यह आरोप लगता रहा है कि अभी तक वह सबको साथ लेकर चलने में असफल रहे हैं, जो कि पार्टी और सरकार दोनों के लिए खतरनाक है. सीधी बात यह है कि उन्हें बाहरी चुनौतियों से पहले भीतरी चुनौतियों से निपटना है, क्योंकि इसके बगैर बड़ी जीत संभव नहीं है.’
‘अमित शाह का अभी का कार्यकाल बहुत अच्छा नहीं रहा है. उन्होंने केंद्रीकरण को बढ़ावा दिया है. वह भाजपा के दफ्तर में नौकरशाह की तरह बैठे रहते हैं. किसी भी नेता यहां तक कि मंत्रियों और सांसदों को उनसे मिलने में दिक्कतें होती हैं’
कुछ ऐसी ही राय वरिष्ठ पत्रकार और लेखक अजय बोस की भी है. वे कहते हैं, ‘भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र रहा है. लेकिन शाह के आने के बाद इसमें कमी आई है. कई वरिष्ठ नेताओं ने इस पर सवाल भी उठाया है. इसे दूर करने की चुनौती अमित शाह के सामने है. इसके अलावा 2016 में पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में होने वाले विधानसभा चुनाव में जीतने की संभावना तो कम ही है, लेकिन उनकी पार्टी को इन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करना होगा. बंगाल में अगर यह दूसरे नंबर पर आ जाए तो अमित शाह के लिए बड़ी कामयाबी होगी. केरल, तमिलनाडु में कुछ सीटें लाने की चुनौती उनके सामने है. अमित शाह का सबसे बड़ा इम्तिहान असम में होने वाला है. वहां लोग कांग्रेस शासन से ऊबे हुए हैं. ऐसे में भाजपा एक विकल्प हो सकती है. अगर वह इस साल किसी भी एक राज्य में बेहतर प्रदर्शन करेंगे तो इसका फायदा उन्हें 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मिलेगा, जो भाजपा अध्यक्ष के रूप में उनकी सबसे बड़ी चुनौती है.’
वैसे भी सत्तारूढ़ पार्टी का अध्यक्ष होने के नाते अमित शाह को संगठन की मजबूती के साथ सरकार की छवि को भी सुधारना होगा. इसके लिए शाह को मंत्रियों के साथ सांसदों-विधायकों को इस बात के लिए तैयार करना होगा कि वह सरकारी योजनाओं को जनता के बीच ले जाएं. उन्हें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उनकी पार्टी के सांसद और विधायक बेहतर तरीके से काम करें और जनता से निरंतर संवाद करें. इसके साथ ही उन्हें सरकार को बेहतर और जनोपयोगी काम के लिए प्रेरित करना होगा. उनके भावी कार्यकाल की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह एक तरफ सरकार की छवि को बेहतर तरीके से सांसदों, विधायकों और कार्यकर्ताओं के जरिये जनता के बीच ले जाएं. दूसरी तरफ संगठन में सुयोग्य लोगों को लाकर उसे मजबूत करें. जातीय समीकरण के साथ योग्यता का भी ध्यान रखें. उन्हें युवा व साफ छवि वाले चेहरों को आगे बढ़ाना है.
नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘अभी भाजपा के सांसद, विधायक सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं में रुचि नहीं ले रहे हैं. वह सक्रिय तरीके से इन योजनाओं के बारे में जनता को नहीं बता रहे हैं. अमित शाह को पार्टी सांसदों और संगठन के वरिष्ठ लोगों को इसके लिए प्रेरित करना होगा. पिछली संप्रग सरकार के दौरान भी ऐसा हुआ था. कांग्रेस सांसदों और बड़े पदाधिकारियों ने सरकार की योजनाओं में रुचि लेना बंद कर दिया था. इसका क्या परिणाम आया, यह हम सबको पता है.’
राजनीति के जानकारों का कहना है कि अमित शाह के पिछले कार्यकाल की सफलता में मूलतः मोदी का हाथ रहा है. चार राज्यों में मिली सफलता में मोदी का बड़ा हाथ रहा है. इस दौरान अमित शाह ने मोदी का जमकर इस्तेमाल भी किया. अब से पहले राज्य विधानसभा चुनावों में किसी भी प्रधानमंत्री ने इतनी रैलियां नहीं कीं. लेकिन आने वाला समय भाजपा और सरकार दोनों के लिए मुश्किल भरा है. इसका असर शाह की दूसरी पारी पर भी दिखेगा. अभी की हालत यह है कि विकास के बजाय देश में बढ़ती असहिष्णुता, अभिव्यक्ति पर खतरा और बहुलतावादी परंपरा नष्ट करने की कोशिश के आरोपों से मोदी सरकार की प्रतिष्ठा और भाजपा की स्वीकार्यता पर चोट लगी है.
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक राशिद किदवई कहते हैं, ‘भाजपा अभी मोदी के दमखम पर चुनाव लड़ रही है. इसके चलते अमित शाह का भी ग्राफ ऊपर चल रहा है. दिल्ली और बिहार में पार्टी को मिली हार के बावजूद वोट बैंक सुरक्षित रहा है. लेकिन अब शाह के ऊपर पार्टी का दायरा बढ़ाने की जिम्मेदारी है. अभी पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, पुडुचेरी और असम में चुनाव होने हैं. यहां उन्हें अपना राजनीतिक कौशल दिखाना होगा, क्योंकि इन जगहों पर पार्टी के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है. लेकिन अगर पार्टी का प्रदर्शन बेहतर नहीं होगा, तो शाह के नेतृत्व पर सवाल उठना शुरू हो जाएगा.’
गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के प्रभारी रहे अमित शाह को 80 में से 73 सीटें जिताने के लिए बड़ा इनाम दिया गया था. राजनाथ सिंह ने मोदी सरकार में शामिल होने के बाद अध्यक्ष पद छोड़ दिया था. तब 9 जुलाई, 2014 को पहली बार शाह ने भाजपा अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली थी. इसके बाद से भाजपा ने छह राज्यों में चुनाव लड़े. चार में उसकी सरकार बनी. दो में वह चुनाव हार गई.