
तहलका से बातचीत में प्रो. कुमार यह भी मानते हैं कि पार्टी के तीन वरिष्ठ नेताओं पर जिस तरह के आरोप लगाए जा रहे हैं, जिस तरह से उनकी छवि को खराब करने की कोशिश हो रही वह भी ठीक नहीं है. वे कहते हैं, ‘अभी-अभी पार्टी को बड़ी जीत मिली है. हर बड़ी जीत के बाद मतभेद और मनभेद उभरते हैं. वैसे भी यह पारंपरिक पार्टी जैसा संगठन नहीं है. हम इन चीजों से, इन प्रक्रियाओं से और मजबूत होकर उभरेंगे.’
पार्टी के एक दूसरे वरिष्ठ नेता अपना नाम न छापने की शर्त पर प्रो. कुमार के उस भरोसे की हवा निकाल देते हैं कि इन प्रक्रियाओं से पार्टी मजबूत होकर उभरेगी. वे बताते हैं, ‘देखिए, योगेंद्र और प्रशांत जिन मुद्दों की बात कर रहे हैं वो पार्टी के सिद्धांतों और मूल्यों से जुड़े मुद्दे हैं. ये दोनों-तीनों लोग मनीष सिसोदिया, आशुतोष, आशीष खेतान और संजय सिंह से कहीं ज्यादा लोकप्रिय और स्थापित चेहरे रहे हैं. योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और शांति भूषण ने आज तक पार्टी से कुछ चाहा नहीं है. बल्कि इन्होंने पार्टी को एक कार्यकर्ता के तौर पर दिया ही है. अगर वो टीम अरविंद को पार्टी के सिद्धांत से भटकने से अगाह कर रहे हैं तो क्या गलत कर रहे हैं?’
पार्टी में भिन्न-भिन्न स्तरों पर काम कर रहे नेताओं और वॉलंटियर्स से बात करने पर एक समझ यह बनती है कि दिल्ली चुनाव में मिली अप्रत्याशित जीत के बाद अरविंद केजरीवाल के आसपास कुछ ऐसे नेताओं का जमावड़ा बढ़ गया है जो राजनीति में रहते हुए समझौते और लेन-देन को गलत नहीं मानते. ये लोग इसे व्यावहारिकता का तकाजा बताते हैं. वहीं योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और शांति भूषण जैसे कई दूसरे लोग सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप से इन भटकावों के लिए तैयार नहीं हैं.
गुटबाजी : भरोसेमंद बनाम गैर-भरोसेमंद?
आज जब आप की गुटबाजी सतह पर आ चुकी है तब यह सवाल भी खड़ा होने लगा है कि क्या पार्टी के भीतर अपने विश्वासपात्रों का एक गुट अरविंद खड़ा करना चाहते हैं. इसका सबूत पार्टी के वरिष्ठ नेता मयंक गांधी का वह ब्लॉग है जिसे उन्होंने पांच मार्च को लिखा था. इसमें साफ-साफ कहा गया है कि अरविंद पीएसी में भूषण और योगेंद्र को नहीं चाहते थे. उन्होंने साफ कहा था कि अगर ये दोनों पीएसी में रहेंगे तो वे संयोजक के पद से इस्तीफा दे देंगे. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता जिन्हें पार्टी के शीर्ष पांच नेताओं में रखा जा सकता है इसे अलग तरीके से समझाते हैं, ‘सत्ता में आने के बाद पार्टी में तेजी से दो गुट बने हैं. एक गुट वह है जो सत्ता के इर्द-गिर्द रहते हुए उसका स्वाद लेना चाहता है. दूसरा गुट वह है जो पार्टी में उसके मूल सिद्धांतों और मूल्यों को स्थापित करने पर जोर दे रहा है. जाहिर है कि अरविंद इन दिनों सत्ता का स्वाद लेनेवाले नेताओं के गुट से घिरे हैं.’
वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के शब्दों में, ‘आप में एक दीवार खिंच चुकी है, ‘भरोसेमंद’ और ‘गैर-भरोसेमंद’ के बीच. ‘गैर-भरोसेमंद’ लोगों में वे हैं, जो कभी सहमत तो कभी असहमत भी हो सकते हैं यानी जिनका रुख पहले से तय नहीं है. भरोसेमंद लोगों में पार्टी के नेताओं का वह तबका है जो अरविंद केजरीवाल की हर बात पर ‘हां’ करनेवाला है. आज की तारीख में गैर-भरोसेमंद लोगों की टीम में पार्टी के संस्थापक सदस्य प्रशांत भूषण, शांति भूषण, योगेंद्र यादव और मंयक गांधी जैसे नेता खड़े हैं. ये ऐसे लोग हैं जिनका पार्टी बनने के पहले भी एक स्वतंत्र विचार और सिद्धांत रहा है. दूसरी तरफ संजय सिंह, आशुतोष, आशीष खेतान, दिलीप पांडे सहित कई ऐसे नेता हैं जिनका सार्वजनिक जीवन पार्टी में शामिल होने के साथ ही शुरू हुआ है. एक तरह से इनका राजनीतिक जीवन अरविंद केजरीवाल के वरदहस्त में शुरू हुआ है.’ मनीष सिसोदिया आंदोलन के समय से अरविंद केजरीवाल के साथ जरूर हैं लेकिन वो हमेशा अरविंद केजरीवाल के पीछे खड़े होनेवाले सहयोगी के तौर पर जाने जाते रहे हैं. पार्टी के कई अन्य नेता भी दबी जुबान में स्वीकार करते हैं कि दूसरे गुट को अरविंद का समर्थन प्राप्त है. इसके समर्थन में यह तर्क भी दिया जा रहा है कि अगर अरविंद का इशारा नहीं होता या अरविंद की सहमति नहीं होती तो पार्टी के दो संस्थापक सदस्यों पर जूनियर नेता इतने कड़े हमले नहीं कर रहे होते. पार्टी के एक तबके में यह सोच है कि अगर किसी ने पार्टी का अनुशासन तोड़ा है या पार्टी का अहित किया है तो ये बातें और उसके खिलाफ कार्रवाई पार्टी के उचित फोरम पर होनी चाहिए न कि इस तरह से मीडिया में सार्वजनिक लानत-मलानत करके. जाहिर है यह सब अरविंद केजरीवाल के इशारे पर ही हो रहा है.
नेताओं और कार्यकर्ताओं की यह चिंता एक हद तक सही भी है. पहले दिन से योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और शांति भूषण पर जिस तरह के जुबानी हमले पार्टी के बड़े और छोटे नेता कर रहे हैं वो बिना किसी बड़े नेता की शह के संभव नहीं है. आशीष खेतान ने सोशल मीडिया साईट पर यह तक लिख दिया कि शांति भूषण, प्रशांत भूषण और शालिनी भूषण मिलकर पार्टी पर कब्जा करना चाहते हैं. बाद में आशीष खेतान ने यह कहते हुए माफी मांग ली कि उनके दिल में प्रशांत भूषण और शांति भूषण के लिए बहुत सम्मान है.
चार मार्च को पार्टी कार्यकारणी की बैठक में योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पीएसी से बाहर करने का फैसला हुआ. इस नतीजे तक पहुंचने के पहले मतदान हुआ. 21 सदस्यीय कार्यकारणी में आठ मत इन दोनों नेताओं के पक्ष में पड़े जबकि 11 वोट इन्हें पीएसी से हटाने के पक्ष में पड़े. बहुमत के आधार पर दोनों नेताओं को पीएससी से बाहर कर दिया गया. इस बैठक और मतदान से एक बात और साफ हुई कि 21 सदस्यों की कार्यकारणी में सारे सदस्य एकमत नहीं थे. इस बैठक के बाद महाराष्ट्र में पार्टी के बड़े चेहरे और राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य मयंक गांधी ने बैठक की पूरी जानकारी अपने ब्लॉग पर जारी कर दी. मंयक ने पारदर्शिता की दुहाई देते हुए कार्यकारिणी की बैठक में हुई गतिविधियों पर एक ब्लॉग लिखा. इस ब्लॉग में उन्होंने दुख जताया कि कैसे कुछेक नेताओं ने मिलकर योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पीएससी से निकालने की तैयारी की. मयंक ने अपने इस ब्लॉग में सीधे केजरीवाल पर भी निशाना साधा. वे लिखते हैं, ‘दिल्ली चुनाव अभियान के दौरान प्रशांत ने उम्मीदवारों के चयन को लेकर कई बार पार्टी के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की धमकी दी थी. हमारे बीच से कुछ लोग मामले को चुनाव तक टालने में सफल रहे. यह आरोप लगाया गया कि योगेंद्र यादव, अरविंद के खिलाफ षडयंत्र कर रहे हैं और कुछ सबूत पेश किए गए. अरविंद के प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव से गंभीर मतभेद थे और आपसी विश्वास की भी कमी थी. 26 फरवरी की रात जब राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य अरविंद केजरीवाल से मिलने पहुंचे तो उन्होंने साफ कह दिया कि अगर दोनों लोग पीएसी के सदस्य बने रहेंगे तो वह संयोजक के पद पर काम नहीं कर पाएंगे.’
मयंक अपने ब्लॉग में आगे लिखते हैं, ‘योगेंद्र यादव समझ गए थे कि अरविंद केजरीवाल उन्हें पीएसी में नहीं देखना चाहते हैं. उन्होंने खुद ही पेशकश की थी कि वे और प्रशांत भूषण पीएसी से हटने के लिए तैयार हैं. योगेंद्र यादव ने दो विकल्प सुझाए थे. पीएसी फिर से बनाई जाए जिसमें वे दोनों नहीं रहेंगे या फिर पीएसी काम करती रहे, लेकिन दोनों इसकी बैठकों और गतिविधियों से दूर रहेंगे. केजरीवाल के वफादार नेताओं ने इस पर विचार भी किया लेकिन बाद में उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने योगेंद्र और प्रशांत को हटाने का प्रस्ताव रखा. संजय सिंह ने प्रस्ताव का समर्थन किया.’
आप के भीतर उपजे इस संकट का एक सिरा महत्वाकांक्षी नेताओं की लोलुपता की ओर भी जाता है. ये वे नेता हैं जिनका रास्ता योगेंद्र या प्रशांत के हटने पर ही खुल सकता है. पार्टी के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता कहते हैं, ‘सत्ता के साथ बहुत सी ऐसी चीजें आती हैं जो साथियों को आपस में लड़ने-झगड़ने पर आमादा कर देती हैं. सत्ता के साथ पद आता है, प्रतिष्ठा आती है. और इसकी इच्छा रखकर राजनीति में आए लोग ज्यादा दिनों तक इंतजार नहीं कर पाते. दिल्ली में जीत हासिल हुई है. कुछ लोगों को राज्यसभा जाना है. ऐसे में इन दोनों लोगों को पार्टी से निकालने पर बहुत से नेताओं का हित सध जाएगा.’ वो आगे कहते हैं, ‘एक और बात है कद की. योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के सामने वो सारे नेता बहुत बौने हैं जो आज इन दोनों पर हमलावर हैं. हो सकता है कि इन दोनों के कद से अरविंद केजरीवाल को भी थोड़ी परेशानी हो रही हो. ऐसे में जब दिल्ली में सत्ता पांच साल रहनेवाली है तो यही ठीक समय होगा जब इस तरह की बाधाओं से निपट लिया जाए.’
