हिन्दू-धर्म को समझना 3 – समान गोत्र विवाह यह तर्कसंगत है या मात्र एक लत?

अतिवामपंथी बुद्धिजीवियों, छद्म धर्म-निरपेक्षतावादियों, मुखर संवैधानिकतावादियों और अपरम्परागत नारीवादियों ने एक ही गोत्र विवाह से बचने की परम्परागत प्रथा और इस कठोर प्रथागत नियम की निंदा की है। साथ ही इस नियम के वैज्ञानिक आधार को जाने बिना उस के बारे में अपने पूरी तरह से उथले ज्ञान को वैधता प्राप्त कराने के लिए इस तरह के स्वयंभू सक्रियतावादी हिन्दू संस्कृति को बदनाम  करने के लिए संवैधानिक न्यायालयों में जनहित याचिकाओं के जरिये गुहार लगा रहे हैं। आइए, देखते हैं कि हमारे द्रष्टाओं की प्रतिपादित इस सोच का कोई वैज्ञानिक आधार था या नहीं और क्या यह सब केवल प्रेमीयुगलों के अपनी इच्छानुसार जीवन जीने के अधिकार पर कुठाराघात मात्र है, जो उन्हें संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत प्राप्त हुआ है।

हमारी चर्चा पूरी तरह से आनुवंशिक ज्ञान पर आधारित है, जिसके साथ किसी भी व्यक्ति को जीव विज्ञान की मूल बातें पता हैं कि महिला में गुणसूत्र एक्सएक्स (&&) है और पुरुष में एक्स4 (&4) गुणसूत्र है। इनकी संतान में पुत्र हुआ, तो मन गया है कि (&4) अर्थात् इस पुत्र में 4 गुणसूत्र पिता से ही आये, यह तो निश्चित ही है; क्योंकि माता में तो 4 गुणसूत्र होते ही नहीं हैं। और यदि पुत्री हुई तो (&& गुणसूत्र) यानी यह गुण सूत्र पुत्री में माता और पिता दोनों से आते हैं।

1) & गुणसूत्र और & गुणसूत्र अर्थात् पुत्री, मतलब && गुणसूत्र के जोड़े में एक & गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा & गुणसूत्र माता  से आता है। तथा इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गाँठ-सी रचना बना लेता है; जिसे क्रॉसओवर कहा जाता है।

 2) &4 गुणसूत्र और &4 गुणसूत्र अर्थात् पुत्र, यानी पुत्र में 4 गुणसूत्र केवल पिता से ही आना सम्भव है; क्योंकि माता में 4 गुणसूत्र हैं ही नहीं। और दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारण पूर्ण अन्योन्य गमन (क्रॉसओवर) नहीं होता; केवल 5 फीसदी तक ही होता है। और 95 फीसदी 4 गुणसूत्र ज्यों-का-त्यों (इनटैक्ट) ही रहता है, तो महत्त्वपूर्ण 4 गुणसूत्र हुआ। क्योंकि  4 गुणसूत्र के विषय में निश्चित है कि यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है। बस इसी 4 गुणसूत्र का पता लगाना ही गोत्र प्रणाली का एकमात्र उद्देश्य है, जो हज़ारों / लाखों वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था।

वैदिक गोत्र प्रणाली और 4 गुणसूत्र

अब तक हम यह समझ चुके हैं कि वैदिक गोत्र प्रणाली 4 गुणसूत्र पर आधारित है, अथवा 4 गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है। उदहारण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है, तो उस व्यक्ति में विद्यमान 4 गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस 4 गुणसूत्र के मूल हैं। चूँकि 4 गुणसूत्र स्त्रियों में नहीं होता। यही कारण है कि विवाह के पश्चात् स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है।

वैदिक/हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वॢजत होने का मुख्य कारण यह है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष और स्त्री भाई-बहिन कहलाएँगे; क्योंकि उनका प्रथम पूर्वज एक ही है। परन्तु यह थोड़ी अजीब बात नहीं कि जिन स्त्री और पुरुष ने एक-दूसरे को कभी देखा तक नहीं और दोनों अलग-अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे तो वे भाई बहन हो गये? इसका मुख्य कारण एक ही गोत्र होने के कारण गुणसूत्रों में समानता का भी है।

आज के आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार, यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो, तो उनकी सन्तति आनुवंशिक विकारों के साथ उत्पन्न होगी। ऐसे दम्पत्तियों की संतान में एक-सी विचारधारा, पसन्द, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता। ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है। विज्ञान में भी इस सम्बन्ध में यही बात कही गयी है कि सगोत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दम्पत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात् मानसिक विकलांगता, अपंगता, गम्भीर रोग आदि जन्मजात ही पाये जाते हैं।

शास्त्रों के अनुसार, इन्हीं कारणों से सगोत्र विवाह पर प्रतिबन्ध लगाया था। इस गोत्र का संवहन यानी उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित न कर सके, इसलिए विवाह से पहले कन्यादान कराया जाता है और गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गोत्र में उस कन्या को स्थान देता है, यही कारण था कि उस समय विधवा-विवाह भी स्वीकार्य नहीं था। क्योंकि कुल गोत्र प्रदान करने वाला पति, तो मृत्यु को प्राप्त कर चुका है।

इसीलिए कुण्डली मिलान के समय वैधव्य पर खास ध्यान दिया जाता और मांगलिक कन्या होने पर ज़्यादा सावधानी बरती जाती है। आत्मज या आत्मजा का सन्धिविच्छेद तो कीजिए। आत्म + ज अथवा आत्म + जा = मैं, ज या  जा = जन्मा या जन्मी, यानी मैं ही जन्मा या जन्मी हूँ।

यदि पुत्र है, तो 95 फीसदी पिता और 5 फीसदी माता का हिस्सा है। यदि पुत्री है, तो 50 फीसदी पिता और 50 फीसदी माता का हिस्सा है। फिर यदि पुत्री की पुत्री हुई, तो वह डीएनए 50 फीसदी का 50 फीसदी रह जाएगा। फिर यदि उसके भी पुत्री हुई, तो उस 25 फीसदी का 50 फीसदी डीएनए रह जाएगा। इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री जन्म में यह फीसदी घटकर एक फीसदी ही रह जाएगा। अर्थात् एक पति-पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुन: पुन: जन्म लेता रहता है, और यही है सात जन्मों का साथ।

डीएनए या डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड शायद सबसे प्रसिद्ध जैविक अणु है, जो पृथ्वी पर जीवन के सभी रूपों में मौज़ूद होता है। लेकिन जब पुत्र होता है, तो पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95 फीसदी गुणों को आनुवंशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5 फीसदी (जो कि किन्हीं परिस्थितियों में एक फीसदी से कम भी हो सकता है) डीएनए ग्रहण करता है, और यही क्रम अनवरत चलता रहता है, जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेते रहते हैं, अर्थात् यह जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है। इसीलिए अपने ही अंश को पित्तर जन्म जन्मान्तरों तक आशीर्वाद देते रहते हैं और हम भी अमूर्त रूप से उनके प्रति श्रद्धेय भाव रखते हुए आशीर्वाद ग्रहण करते रहते हैं, और यही सोच हमें जन्मों तक स्वार्थी होने से बचाती है तथा सन्तानों की उन्नति के लिए समॢपत होने का सम्बल देती है।

एक बात और, माता-पिता यदि कन्यादान करते हैं, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कन्या को कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं। बल्कि इस दान का विधान इस निमित्त किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिए और उस कुल की कुलधात्री बनने के लिए, उसे गोत्र मुक्त होना चाहिए। डीएनए मुक्त तो हो नहीं सकता; क्योंकि भौतिक शरीर में वे डीएनए रहेंगे ही, इसलिए मायका अर्थात् माता का रिश्ता बना रहता है।

गोत्र यानी पिता के गोत्र का त्याग किया जाता है। तभी वह भावी वर को यह वचन दे पाती है कि उसके कुल की मर्यादा का पालन करेगी यानी उसके गोत्र और डीएनए को दूषित नहीं होने देगी। वर्णसंकर नहीं करेगी। क्योंकि कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिए रज का रजदान करती है और मातृत्व को प्राप्त करती है। यही कारण है कि प्रत्येक विवाहित स्त्री माता समान पूज्यनीय हो जाती है। यह रजदान भी कन्यादान की ही तरह कोटि यज्ञों के समतुल्य उत्तम दान माना गया है, जो एक पत्नी पति को दान करती है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अलावा यह संस्कारगत शुचिता किसी अन्य सभ्यता में है ही नहीं।

(अगले अंक में- अध्यात्म के प्रमुख आधार वेद)