सीएए और विरोधी संघर्ष का अर्थ

सीएए, एनपीआर और एनआरसी के बारे में हमें समझने की ज़रूरत है कि इसे किस रूप में इसे पेश किया जा रहा है? विशेषकर जेएनयू के अन्दर और दिल्ली चुनाव के चलते जनता को भ्रमित किये जाने की कोशिशें हुई हैं कि यह हिन्दू-मुसलमानों के बीच एक सवाल है। दूसरी बात, सरकार बताना चाह रही है कि जो हिन्दुस्तान के मुसलमानों को फिक्र करने की ज़रूरत ही क्या है? उनके लिए तो कुछ बात है नहीं। ऊपर से यह भी कहा जा रहा है कि तुम हमारे देश को कमज़ोर कर रहे हो। एक बात राजनीतिक पार्टियों के लिए कह रहे हैं तो दूसरी आन्दोलन को समर्थन करने वालों के लिए। यह सब केवल अपने वोट बैंक की राजनीति के लिए कर रहे हैं। आज ये तीन सवाल हमारे सामने हैं। क्या वे केवल हिन्दू-मुसलमानों का सवाल है? हमें गहराई में जाकर सोचने की ज़रूरत है। हमारा जो बेसिक वर्ग मज़दूर, किसान और महिलाएँ हैं, वो ज़मीन पर काम करते हैं और जिन पर असर हो सकता है। हकीकत यह है कि सीएए-एनपीआर की सच्चाई उन तक नहीं पहुँच पा रही है। इसीलिए हमारे वर्ग के अन्दर उनके लिए कितना बड़ा खतरा है। अगर ये बात हम नहीं पहुँचा पाएँगे तो हम प्रतिरोध की सभाओं के बावजूद नागरिक के रूप में अपना दायित्व  नहीं निभा पा रहे हैं।

वर्ग का मतलब आर्थिक वर्ग से है। जाति आधारित वर्ग की बात नहीं है। पूँजीवादी आर्थिक ढाँचे में जो शोषित वर्ग है उसमें सबसे गरीब ठेके पर काम कर रहे मज़दूर, कर्मचारी की बात है। उनके बीच हम कहाँ तक अपना संदेश लेकर जा रहे हैं। आज हमारे सामने यह सबसे बड़ा सवाल है। पर इसे समझना ज़रूरी है। दूसरी बात हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर छात्रों को निशाना बनाना। दिल्ली में विशेषकर जेएनयू को केन्द्रित करके कि जेएनयू राष्ट्रविरोधी केंद्र बता दिया। जेएनयू, एएमयू और जामिया मिल्लिया इस्लामिया इन तीनों उच्च शिक्षण संस्थानों के आधार पर कि ये सब समाजविरोधी हैं। इनको टुकड़े-टुकड़े गैंग बता डाला। तुर्रा यह कि ये देश को तोडऩा चाहते हैं और तमाम विरोधी पार्टी उनका पक्ष ले रही हैं।

सीएए विरोधी आन्दोलन और छात्र के अपने हितों के बचाव और पुलिस के दमन के िखलाफ आन्दोलन एक-दूसरे से जुड़ गये। जो जेएनयू में दिखा कि कैसे बाहर से नकाबपोश बाहरी गुंडे हिटलर की ब्राउसर्स की तरह घुसे थे, जिसका नारा था कि हमें पुलिस की ज़रूरत नहीं है। हम इलाके के लोगों को हथियार देकर कानून व्यवस्था कायम रखेंगे। इसके बाद पूरे देश भर में छात्रों का ज़बरदस्त प्रतिरोध हुआ। वह छात्रों का प्रतिरोध और सीएए विरोधी प्रतिरोध को मिला दिया और वे एक हो गये। सरकार की तरफ से उनके दो लक्ष्य थे। इसको साम्प्रदायिक रंग दो और दूसरे विश्वविद्यालय परिसरों में राष्ट्रविरोधी सवाल जो उठ रहे हैं, उसे कैसे दबाएँ।

अगर हम दूसरी तरफ देखें कि मई, 2019 में एक पार्टी और सरकार को दो-तिहाई से ज़्यादा बहुमत मिलता है और उसके छ: महीने के अन्दर-अन्दर एक पूरा विरोध, प्रतिरोध और एक स्वत: स्फूर्त आन्दोलन जिस रूप में विश्वविद्यालय परिसरों में आहूत हुआ और कई शहरों में फैला, यह बड़ा अवसर भी है, जिससे पता चलता है कि जनता में विरोध है। आर्थिक नीतियों के इस संदर्भ में भी इसे हमें देखना है। जो मंदी, हतोत्साह है, उसका गलत इस्तेमाल हमेशा दक्षिणपंथी ताकतों ने किया है। आज वह हतोत्साह छात्रों और नौजवानों द्वारा धर्मनिरपेक्ष, जनवादी नारों को लेकर आगे चल रहा है कि संविधान बचाओ।

क्या है सीएए नागरिकता संशोधन विधेयक? सीधे-सीधे संविधान पर हमला है। नागरिकता कानून 1955 में जो हमारे देश में बना था, उसमें पाँच आधारों पर नागरिकता हासिल करने की बात कही गयी थी- जन्म से, वंशानुगतता से, देसीकरण से, रजिस्ट्रेशन से और इलाके के विलय से। इसमें से किसी में भी धर्म का ज़िक्र नहीं है। यह नागरिकता ही हमारे संविधान में अपनायी गयी परिभाषा के अनुरूप है। हमारा संविधान नागरिकता हासिल करने के मामले में लोगों के बीच धार्मिक निष्ठा या जाति या वर्ग या लिंग के आधार पर कोई अन्तर या भेदभाव नहीं करता है।

सीएए में इसे बदल दिया गया है। यह किया गया है, धारा-1(बी) में अवैध अप्रवासियों से सम्बन्धित उस नागरिकता कानून का एक संशोधन के ज़रिये। इसमें ‘अवैध अप्रवासी’ (इल्लीगल माइग्रेंट) की संज्ञा वैसे तो 2003 में वाजपेयी सरकार के जमाने में ही जोड़ दी गई थी। फिर भी इससे जोडऩे के पीछे उस सरकार की मंशा साफ नज़र आने के बावजूद उस समय इन अवैध अप्रवासियों को धर्म के आधार पर परिभाषित नहीं किया गया था। मोदी सरकार ने अब यह काम भी कर दिया है। सीएए में धारा-1(बी) में संशोधन कर उसमें जोड़ दिया गया है- ‘अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से हिन्दू, सिख, बौद्ध, पारसी या ईसाई समुदाय के किसी भी व्यक्ति को, जो 2014 के दिसंबर में या उससे पहले भारत में आया हो; अवैध अप्रवासी नहीं माना जाएगा।’

इस संशोधन के ज़रिये भारत के इतिहास में पहली बार धर्म को नागरिकता हासिल करने का आधार बना दिया गया है। मिसाल के तौर पर मान लीजिए कि भारत में दो ऐसे व्यक्ति रह रहे हैं, जिनके पास रिहाइश को साबित करने के लिए एक जैसे दस्तावेज़ हैं, पर अपने पूर्वजों के सम्बन्ध में सुबूत नहीं हैं। इस सूरत में जो गैर मुस्लिम को तो वैध मान लिया जाएगा। यह हमारे संविधान की धारा-14 पर ही हमला है, जो कि सबको समान होने का ऐलान करती है।

सीएए एक और पहलू से भेदभाव करने वाला है। उन तीन देशों के प्रवासियों को ही क्यों छाँटकर लिया गया है? श्रीलंका या म्यांमार से आये शरणर्थियों को क्यों नहीं लिया जा रहा है? और पाकिस्तान के अहमदिया समुदाय का क्या? वे भी तो अपने देश में खुद को उत्पीडि़त महसूस कर रहे हो सकते हैं? उन्हें क्यों इससे बाहर रखा जा रहा है? यह कानून छाँट-छाँटकर नागरिकता की छूट देता है और इसीलिए घातक है।

कानून में किये गये दूसरे संशोधन का सम्बन्ध, भारत की नागरिकता के लिए प्रार्थना करने की पात्रता के लिए आरत में रिहायश की आवश्यक अवधि से है। 1955 के मूल नागरिकता कानून की धारा 6.1 में इसे देसीकरण की प्रक्रिया के ज़रिये नागरिकता प्राप्त करना कहा गया है। देसीकरण के लिए पात्रता की शर्तों का और विवरण, इस कानून की शेड्यूल-3 में दिया गया है। इसमें कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जो पिछले 11 साल से भारत में रह रहा हो, देसीकरण के ज़रिये नागरिकता का पात्र होगा। इसमें धर्म का कोई ज़िक्र नहीं है। लेकिन, सीएए-2019 में धर्म के आधार पर उक्त तीनों देशों से मुसलमानों को छोड़कर अन्य सभी अप्रवासियों के लिए नागरिकता की पात्रता के लिए रिहायश की न्यूनतम अवधि, घटाकर पाँच साल कर दी गयी है। यह भी साफतौर से भेदभाव करने वाला है।

सीएए के ज़रिये किये गये इन संशोधनों से पहले 2015 के सितंबर में मोदी सरकार ने कानूनों में धार्मिक आधार वाली शब्दावली को जोड़ दिया था, जो अब सीएए के ज़रिये जोड़ी गयी है। इससे अंदाज़ा लगा सकते हैं सरकार काफी पहले से ही इसमें सेंध लगाने की फिराक में थी। नागरिकता पर 1955 में बने कानून पर कोई विवाद नहीं था। जब अटल सरकार, 2003 में बनी तो उसने एक शब्द जोड़ा गैर-कानूनी घुसपैठ। यह पहली बार हमारे कानून में आया। लेकिन 2003 में जब गैर-कानूनी घुसपैठिया जोड़ा गया, तब किसी धर्म का नाम नहीं था। अब 2019 में इस कानून को उन्होंने एक बार फिर संशोधन किया और कहा कि मुस्लिमों को छोड़कर बाकी गैर-कानूनी घुसपैठिये नहीं माने जाएँगे। इसके लिए तीन पड़ोसी देशों का नाम इस्तेमाल किया गया। पड़ोसी देश के नाम पर केवल तीन का नाम लिया। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान। तीसरा हिस्सा हैं- धर्म के नाम पर सताये हुए लोग, जो 2014 दिसंबर से पहले हिन्दुस्तान में आये हैं। उनको नागरिकता मिल जाएगी चाहे उनके पास दस्तावेज़ हों या न हों। यहभेदभाव क्यों? हम समझते हैं कि अगर कोई भी सताया हुआ है, अगर हिन्दुस्तान के लिए जब हमारा देश और उसके बाद पूरे इलाके में जहाँ-जहाँ हमारे लोग गये हैं और बसे हैं अगर वह सताये हुए हैं। अगर वह वापस आना चाहते हैं, तो एक नज़र से सबको देखना होगा। अगर आप धार्मिक या धर्म का नाम ले रहे हो, तो पाकिस्तान के अन्दर जो पाकिस्तानी मुसलमानों के अलग-अलग वर्ग हैं, जो मध्य प्रदेश, गुजरात और कुछ महाराष्ट्र से और कुछ जो वहाँ बसे थे। अगर पाकिस्तान का इतिहास उठाकर देखें, तो सबसे ज़्यादा सताये हुए अहमदिया हैं। लेकिन क्योंकि उनका सेक्ट मुसलमानों के अन्दर आता है, इसीलिए रहने अधिकार दिया। आज श्रीलंका से 90 हज़ार लोग हमारे देश में आये हैं। वहाँ तमिलों को भी उत्पीडि़त किया गया। फिर भी इसमें तमिल शामिल नहीं हैं। अगर बांग्लादेश में कट्टरपंथियों के िखलाफ जो सबसे बड़ा हमला हुआ है। जब पाकिस्तान और बांग्लादेश अलग हुए, तो वे धर्म के नाम पर नहीं हुए। वे बांग्ला पहचान के आधार पर अपनी संस्कृति-भाषा के लिए अलग हुए। बहुत से लोग तब भी हिन्दुस्तान आये। हिन्दू-मुस्लिम दोनों आये, जो बांग्लाभाषी थे। इनका आधार धर्म आधारित नहीं था। लेकिन नये प्रावधान में मुसलमान नहीं रह सकते। जबकि दोनों एक ही मुद्दे के चलते सताये हुए थे। केंद्र ने यह कानून लाकर हमारे देश की नागरिकता की परिभाषा बदल दी है। अभी तक कानून रहा है कि हिन्दुस्तान का नागरिक बनने के इच्छुक बाहरी लोगों के लिए बराबर के नियम रहे हैं। अब आगे धर्म के आधार पर नागरिकता का रास्ता तय होगा। मतलब सरकार समझाना चाहती है कि हिन्दू कभी बाहरी नहीं हो सकता है। चाहे वह बांग्लादेश में रह रहा हो या पाकिस्तान में। सरकार भले ही चिल्ला-चिल्लाकर कह रही है कि यह कानून विदेशियों के लिए है। लेकिन इसमें परिभाषा बदल दी गयी है। उसे धर्म के चश्मे से कैसे देख सकते हैं। हमारे संविधान का मूल आधार यह है कि नागरिकता चाहे बाहर के लोग लेना चाहते हैं या हमारे अपने जो जन्म, धर्म, धर्म, जाति, लिंग, भाषा के आधार पर कोई शर्त नहीं रखता। कुछ शर्तें हैं, तो सभी के लिए हैं। ये जो प्रोपेगेंडा है इनका कि आउटसाइडर का। यही आउटसाइडर ही तो कल इनसाइडर बनेंगे न! इसीलिए तो धर्म को जोड़ा है और विरोध के जड़ में वास्तव में मुसलमानों को टारगेट कर रहे हो। आप इसे कैसे तय करेंगे? इस पर कहा गया कि अभी मानदंड तय किये जा रहे हैं। कौन बता सकता है कि हम कब सताये हुए थे धर्म के नाम पर? कानून में लिखा है धार्मिक सबूत दो। क्या तुम वहाँ के थाने से लाओगे कि तुम धर्म के सताये हुए थे 1970 में। कानून का ये जो पूरा प्रसार है, वह कभी नहीं हो सकता है। फिर बोलेंगेतुम भारत का कोई भी दस्तावेज़ निकालो, जिसमें लिखा है कि तुम हिन्दू हो। वह कैसे दिखाएँगे। अगर कोई गैर-कानूनी ढंग से कोई दस्तावेज़ ले लिया है, तो 20 साल के गैर-कानूनी काम को कानूनी आधार बनाना चाहते हो। तो क्या वह कानून होगा? वो कैसे साबित करेंगे? जो हिन्दू है, उसके भी यह बात हवा में उड़ रही है। सीएए को समझने के लिए पूर्वोत्तर के राज्य को समझना होगा। विशेषकर बांग्लादेश युद्ध के बाद जब बहुत सारे रिफ्यूजी व हिन्दू-मुस्लिम आये। असम को लेकर उस समय कोई योजना भी नहीं बनी कि उसको हम कहाँ सेटल करेंगे। उनमें अधिकतर असम व पूर्वोत्तर में ही थे। वहाँ एक आन्दोलन शुरू हो गया कि जो असमी संस्कृति या बांग्लादेश से आकर हमारी जमीन और सब कुछ ले रहे हैं। इसीलिए ज़बरदस्त झगड़ा हुआ। मुजीबुर रहमान जो बांग्लादेश युद्ध के नेता थे, जिनकी बाद में हत्या हुई थी। उनका 1971-72 में एक समझौता हुआ और बाद में असम की सरकार ने हिन्दुस्तान सरकार से 1985 में एक समझौता किया। वह समझौता सिर्फ उस इलाके के लिए था। वह क्या था कि 1971 से पहले जो लोग आये उसे हिन्दुस्तान की नागरिकता दी जाएगी। उसमें धर्म कोई आधार नहीं था। अब ये सीएए इसमें भी रोड़ा बनने वाला है। लेकिन आसाम के लोग बोलेंगे हमारा समझौता तुमने कैसे तोड़ा? हमारा समझौता का कट ऑफ डेट 1971 है तुमने उसे 2014 बनाया। उन्होंने कहा चाहे हिन्दू-मुस्लिम हो हमारे लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। असम समझौता के आधार पर एनआरसी तय हुआ। वह सुप्रीम कोर्ट की हस्तक्षेप से वहाँ हुआ। सीएए के िखलाफ उत्तर-पूर्व का जो आन्दोलन चल रहा है और बाकी देश में जो सीएए के िखलाफ आन्दोलन चल रहा है, उसमें बुनियादी अन्तर है। असम के हर जाति, हर मज़हब के लोग इसके िखलाफ हैं।

आप अगर दूसरे देशों में देखें कि एनआरसी कैसे बनता है। वहाँ के पंजीकरण के आधार पर। जहाँ आपका पंजीकरण होता है, उसके आधार पर डिजिटाइज करके एनआरसी बनाते हैं। घर-घर जाकर आप एनआरसी कैसे बना सकते हो जिस देश के अन्दर लाखों करोड़ों लोग माइनर है। लाखों लोगों के घर ही नहीं है। असम के लोगों का एनआरसी बनाने का अनुभव क्या है? वह समझना है। उन्होंने कहा कि सबूत देने की ज़िम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है। उसके लिए तुम्हें दस्तावेज़ दिखाना है। उन्होंने कुछ तय किये थे। आप सब जानते हैं, जिस प्रदेश में हर साल बाढ़ आता है। लाखों लोग बच्चों को लेकर भागते हैं वे बच्चों को बचाएँगे या दस्तावेज़ बचाएँगे। कोई दस्तावेज़ नहीं थे। 19 लाख लोग हिन्दुस्तान के नागरिक नहीं हैं, जिसमें से 13 और 14 लाख लोग हिन्दू हैं। कुछ नेपाल के कुछ यूपी कुछ कहीं के और कुछ आदिवासी हैं। गरीबों के पास दस्तावेज़ नहीं हैं। इसीलिए उत्तर-पूर्व को अलग रखा जाए।

एनआरसी का पहला कदम इलाके में जाकर एक पापुलेशन का रजिस्टर बनाना है। एक इलाके आधारित आबादी का रजिस्टर बनाएँगे। वह जो इलाके का रजिस्टर बनेगा उसका नाम है पापुलेशन रजिस्टर और उसका नाम होगा नेशनल पापुलेशन रजिस्टर और उस नेशनल रजिस्टर के आधार पर वह नेशनल रजिस्टर ऑफ सीटीजन बनेगा। ये दोनों चीज़ें लिप्त हैं। इन दोनों को आपको सीएए के साथ देखना पड़ेगा, इसीलिए यह त्रिशूल का काम कर रहा है। अभी वह बोल रहे हैं हम एनआरसी नहीं करेंगे। लेकिन राजनाथ सिंह ने कहा क्यों नहीं एनआरसी करेंगे? सवाल यह है कि सब देश में क्या एनआरसी नहीं है? लोग प्रचार कर रहे हैं कि एनआरसी कांग्रेस ने भी लागू किया था। कांग्रेस ने 2010 तक किया। कांग्रेस के समय में जो एनपीआर की प्रक्रिया थी उसमें 15 सवाल नहीं थे। उसमें 6 और अलग सवाल जोड़कर 15 से 21 कर दिये हैं। उसमें जोड़ा है- माता-पिता का जन्म स्थान और जन्म तिथि क्या है? आधार कार्ड वगैरह। जो 19 लाख लोग जबाब नहीं दे पाये, असम में जब उनसे पूछा गया कि तुम कहते हो तुम्हारे बाप की जगह। बंगाल में जन्मे, तो उसकी प्रमाण-पत्र लाओ। किसके पास वह प्रमाणपत्र है? हमारे पास अपने जन्म का प्रमाण-पत्र नहीं है। हम अपना नाम लिखकर या एफिडेविट बनाकर दस्तावेज़ बनवा लेते हैं। लेकिन आपको जाकर दस्तावेज़ निकालना पड़ेगा। अब उस गाँव में उस समय कोई पंचायत थी क्या? कोई रजिस्टर है? जहाँ आपकी माँ का नाम लिखा हो? आप क्या दिखाएँगे? लेकिन नहीं दिखा सकते, तो इस कसरत का क्या अर्थ है? इतना झूठ कि कभी कहते हैं एनआरसी नहीं बना रहे हैं, कभी कहते हैं बना रहे हैं। प्रचार कर रहे हैं। एक नोटिफिकेशन निकाल लिया है कि 01 अप्रैल से लेकर 30 सितंबर तक एनपीआर में जो 21 सवाल हैं, वो अलग-अलग प्रदेशों में प्रदेश सरकार के आधार पर किसी भी समय शुरू हो जाएगा। अप्रैल से सितंबर के बीच राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किया हुआ अधिकारी हमारे घर पर आकर ये सब सवाल पूछेगा। उस सरकारी अधिकारी को कितनी ताकत है। आप जानते हैं कि राशन कार्ड बनाना है, तो वे कहते हैं कि इसका नाम कट जाएगा, नहीं तो पैसे दो। घर आने पर आपका रहन-सहन उसे पसन्द नहीं आया, आपकी शक्ल पसन्द नहीं आयी, आपका धर्म पसन्द नहीं आया। तो आपके नाम पर काला धब्बा लगा देगा। ये हिन्दुस्तान के गरीबों को परेशान करने के अलावा कुछ है नहीं। उसके पीछे है- साम्प्रदायिक मसौदा। केरल, पंजाब, राजस्थान, बंगाल सरकारों ने सीएए वापस करने को कहा है। केरल सरकार ने केंद्र को बता दिया कि सेंसेस हम करेंगे, लेकिन एनपीआर नहीं करेंगे। इसके बाद पंजाब, राजस्थान ने भी यही कहा। सिर्फ ममता बनर्जी ने नहीं कहा। महाराष्ट्र सरकार ने भी किया है। चाहे लाख अमित शाह खड़े होकर चिल्लाएँ कि हम एक इंच पीछे नहीं हटेंगे। मगर देश का संविधान ने तुम्हें मजबूर किया है, तुम्हें पीछे हटना ही पड़ेगा।