शोषण और अत्याचार के विरुद्ध एक आन्दोलन

झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा समेत मध्य भारत के आदिवासी हर साल ‘हूल दिवस’ मनाते हैं। वैसे यह आन्दोलन लम्बा चला था, लेकिन आदिवासी इसे 30 जून को मनाते हैं। संथाली भाषा में हूल का अर्थ होता है- विद्रोह यानी शोषण, अत्याचार और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाना। हूल दिवस को हूल क्रान्ति, संथाल विद्रोह आदि नामों से भी पुकारा जाता है।

दरअसल, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में 30 जून, 1855 एक महत्त्वपूर्ण दिन था। इस दिन बंगाल प्रेसिडेंसी के इलाके में संथाल आदिवासियों ने भोगनाडीह में 400 गाँवों के लगभग 50 हज़ार संथालों ने घोषणा की कि वे अब अंग्रेजी हुकूमत यानी ईस्ट इंडिया कम्पनी को मालगुज़ारी नहीं देंगे। वर्तमान में यह क्षेत्र झारखण्ड के संताल परगना डिवीजन के साहिबगंज ज़िले के बरहेट प्रखण्ड के भोगनाडीह में है।

इस क्रान्ति के लिए अंग्रेजी हुकूमत ज़िम्मेदार थी। क्योंकि 1793 में ब्रिटिश भारत के तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड कार्नवालिस ने परमानेंट सेटलमेंट एक्ट के तहत बंगाल, बिहार, ओडिशा तथा वाराणसी व अन्य इलाकों में ज़मींदारी व्यवस्था की शुरुआत की थी। इसके तहत अंग्रेजों ने ज़मींदारों को निश्चित इलाके देकर कम्पनी साम्राज्य के प्रतिनिधि के रूप में लोगों को नियंत्रित करने तथा उनसे मालगुज़ारी वसूलने का अधिकार दिया था। संथालों की आॢथक जीवनशैली अंग्रेजों के आने के पहले छोटे-छोटे जंगलों को काटकर खेती करने, शिकार एवं जंगली उत्पाद पर निर्भर थी। ब्रिटिश अफसरों, उसके एजेंट ज़मींदारों और भारी सूद पर कर्ज़ देने वाले साहूकारों द्वारा लगातार शोषण, अत्याचार, अन्याय से तंग आकर संथालों ने स्थानीय दरोगा से शिकायत करनी शुरू की। संथालों की इस शिकायत सभा का नेतृत्व भोगनाडीह निवासी और उस समय के भूमिहीन ग्राम प्रधान चुन्नी मंडी के चार पुत्र- सिदो, कान्हू, चाँद, भैरव और , दो पुत्रियाँ- फूलो व झानो कर रहे थे। यह शिकायत की प्रक्रिया लगातार पाँच वर्षों तक चलती रही और पूरा तंत्र बहरा बना रहा। जब अति हो गयी, तब 30 जून 1855 को सिदो व कान्हू के नेतृत्व में 50 हज़ार की संख्या में संथाल आदिवासी (नर-नारी) पारम्परिक हथियारों से लैस होकर बरहेट, संथाल परगना, झारखण्ड के भोगनाडीह गाँव में जमा हुए और इस शोषण, अत्याचार, अन्याय के विरुद्ध लड़ाई लडऩे और मालगुज़ारी नहीं देने का बीड़ा उठाया तथा ‘अबुआ दिशुम, अबुवा राज’ (अपना देश, अपना राज्य) की स्थापना करने की शपथ ली। इस हूल यानी विद्रोह के दौरान में संथालों ने खुद की सरकार बनाने की भी घोषणा कर दी; जिसे उस समय के अंग्रेज इतिहासकार समानांतर सरकार की घोषणा के रूप में देखते हैं। इस हूल क्रान्ति का मूल उद्देश्य था- स्वयं की कर वसूली करने की व्यवस्था लागू करना तथा अपनी परम्पराओं के हिसाब से कानून बनाना।

जब अंग्रेजों को इसकी जानकारी मिली, तो उन्होंने एक दरोगा को सिदो, कान्हू, चाँद, भैरव को गिरफ्तार करने के लिए भेजा, लेकिन संथाल विद्रोहियों ने उसका सर कलम कर दिया। इसके बाद ब्रिटिश कम्पनी के कई एजेंटों, ज़मींदारों, साहूकारों पर हमले हुए। अंग्रेजों ने सिदो और कान्हू की गिरफ्तारी के लिए तब 10 हज़ार रुपये की इनाम की घोषणा की; जो उस समय के लिहाज़ से बहुत अधिक थी। जब इससे भी बात नहीं बनी तो ब्रिटिश कम्पनी ने बड़ी फौज भेजी, जिसमें कई भारतीय ज़मींदारों और मुॢशदाबाद के नवाब ने अंग्रजी हुकूमत की मदद की थी। हूल में शामिल संथालों के साथ-साथ ग्वालों, लोहारों के घरों को भी तोड़ा गया; लेकिन वे दमन के बावजूद हूल क्रान्ति का समर्थन करते रहे।

जुलाई 1855 से जनवरी 1856 के बीच कई युद्ध हुए। इस पूरे विद्रोह में करीब 60 हज़ार संथालों ने हिस्सा लिया, जिसमें से करीब 20 हज़ार मारे गये थे। इस लड़ाई में चाँद और भैरव वीरगति को प्राप्त हुए और बाद में सिद्धो और कान्हो को गिरफ्तार करके 26 जुलाई को उनके गाँव में ही सरेआम पेड़ से लटकाकर फाँसी दे दी गयी।

संताल हूल इतना शक्तिशाली और प्रभावशाली था कि इससे पूरा ब्रिटिश सम्राज्य हिल गया और ब्रिटिश शासकों को इस क्षेत्र की सामाजिक, भौगोलिक तथा आॢथक स्थिति के बारे में गम्भीरता से पुनॢवचार करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस संथाल हूल के परिणामस्वरूप 22 दिसंबर, 1855 को संताल परगना ज़िले का गठन वर्तमान बंगाल, बिहार, झारखण्ड राज्यों के कुछ हिस्सों को लेकर हुआ। हालाँकि अब इसको छ: ज़िलों में बाँट दिया गया है; लेकिन संताल परगना डिविजन के रूप में यह अभी भी अस्तित्व में है। इसी संथाल हूल के फलस्वरूप एसपीटी एक्ट भी अस्तिव में आया। संथाल हूल में सिदो, कान्हू, चाँद, भैरव, फूलो, झानो (एक ही परिवार के शहीद) और उनके असंख्य अनुयायियों ने देश के नाम अपने प्राण त्याग दिये। इस संथाल हूल में सिर्फ आदिवासी ही नहीं, बल्कि अन्य सभी सम्प्रदाय के लोगों ने भी बढ़-चढक़र हिस्सा लिया और देश के लिए हँसते-हँसते शहीद हो गये।

संथाल हूल के 165 वर्ष हो गये; लेकिन झारखण्ड के मूलवासी और आदिवासी विशषेकर ग्रामीण लोग अभी भी विकास से कोसों दूर हैं। आज़ादी मिली, झारखण्ड मिला; लेकिन यहाँ गाँवों में अभी तक मूलभूत समस्याएँ मौज़ूद हैं। पेयजल, बिजली, शिक्षा, दूरसंचार, ङ्क्षसचाई व्यवस्था की कमी के अलावा यहाँ ढाँचागत समस्याएँ अभी भी है। फिर भी आदिवासी हूल शहीदों की याद में इस उम्मीद से हूल दिवस मना रहे हैं कि कभी-न-कभी विकास की बयार उन तक पहुँचेगी। यह दिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के नज़रिये से ही नहीं, बल्कि मानव सभ्यता के दो अलग-अलग रूपों के बीच टकराव को लेकर भी खास माना जाता है। बावजूद इसके भारतीय इतिहास में इसकी चर्चा कम देखने को मिलती है। भारत में आदिवासी समुदाय की वर्तमान परिस्थितियों, उनके जल-जंगल-ज़मीन बचाओ अभियान के मद्देनज़र हूल क्रान्ति के महत्त्वपूर्ण पहलुओं को रेखांकित करना ज़रूरी हो गया है।