वह भी एक दौर था

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फोटो: विकास कुमार

मेरे वालिद फरीदुद्दीन खान बड़े जमींदार हुआ करते थे. 1929 में उनका इंतकाल हुआ. इलाके के मुसलमानों में ही नहीं, हिंदुओं में भी उनकी काफी इज्जत थी. लोग झगड़ों के हल के लिए अक्सर उनके पास आया करते थे. वे जो फैसला करते, दोनों ही पक्ष उसे बिना किसी बहस के मान लेते थे. हमारे इलाके में हिंदुओं की आबादी ज्यादा थी, लेकिन मेरे वालिद को कभी किसी सांप्रदायिक समस्या का सामना नहीं करना पड़ा. वे मजहब के पाबंद भी थे और उदार सोच वाले भी. वे अगर देखते कि किसी को मदद की जरूरत है तो बिना जताए उसकी मदद कर देते थे. जैसे अगर कोई अपना घर बना रहा है और उसे लकड़ी की जरूरत है तो वे उससे कहते कि मेरी जमीन में एक पेड़ काट लो. एक बार किसी हिंदू परिवार की बारात हमारे घर के पास से गुजर रही थी. रात हो चुकी थी इसलिए मेरे वालिद ने उनसे कहा कि आप लोग इस अंधेरे में कहां जा रहे हैं? रात हमारे घर गुजारिए. सुबह चले जाइएगा. पूरी बारात उस रात हमारे घर पर रुकी और सबके खाने और सोने का बंदोबस्त किया गया.

देश में उस वक्त या कहें कि 20वीं सदी की शुरुआत तक ऐसा ही माहौल हुआ करता था. ऐसी सोच या बर्ताव वाले सिर्फ मेरे वालिद नहीं थे. उन दिनों ज्यादातर रसूखदार लोग ऐसे ही थे. यह माहौल देश के उन कई इलाकों में 1947 के बाद भी रहा जो हिंदू-मुस्लिम टकराव की बीमारी से प्रभावित नहीं हुए थे. यह बात कई हिस्सों के बारे में आज भी कही जा सकती है.

हमारे ही गांव में एक मुस्लिम जमींदार भी हुआ करता था. उम्र में वह मुझसे छोटा था और बड़े जिद्दी मिजाज वाला भी. उसके पास एक लाइसेंसी बंदूक थी जिसे वह अक्सर साथ लेकर ही चलता था. हमारे गांव से बमुश्किल एक किलोमीटर के फासले पर बकिया नाम का एक और गांव था. वहां एक हिंदू राजपूत रहता था जिसका नाम था छत्रधारी सिंह. दोनों में जमीन या पैसे का कोई झगड़ा नहीं था लेकिन शायद अहम के टकराव की वजह से दोनों एक-दूसरे के दुश्मन बन गए. यह 1966 की बात होगी. दोनों ही ट्रेन से आजमगढ़ जा रहे थे. संजरपुर में वे एक-दूसरे के सामने पड़ गए और किसी बात को लेकर उनकी बहस शुरू हो गई. मुसलमान जमींदार हमेशा की तरह बंदूक साथ लेकर चल रहा था. उसने बंदूक निकाली और गोली दाग दी. छत्रधारी सिंह की मौके पर ही मौत हो गई.

खबर जंगल में आग की तरह फैली. बड़ी तादाद में हिंदू छत्रधारी सिंह के घर के पास इकट्ठा होने लगे. सब बहुत गुस्से में थे. वे सिर्फ उस जमींदार से नहीं बल्कि बल्कि पूरे गांव से इसका बदला लेना चाहते थे.

वह उन्मादी भीड़ जब हमारे गांव में दाखिल हुई तो हमारा पूरा गांव आसानी से जलकर खाक हो सकता था, लेकिन तभी एक ऐसी बात हुई जिसके बारे में शायद ही किसी ने सोचा हो. छत्रधारी सिंह के भाई इस भीड़ के सामने खड़े हो गए और बोले, ‘ऐसा कभी नहीं हो सकता. हम बदला जरूर लेंगे लेकिन सारे मुसलमानों से नहीं, बल्कि सिर्फ उस मुसलमान से जिसने मेरे भाई की हत्या की है. और हमारा बदला यह नहीं होगा कि हम उसकी हत्या कर दें. हम इस उसे कोर्ट में ले जाएंगे और कानून के मुताबिक उसे सजा दिलवाएंगे.’ यही हुआ भी. हत्यारे के खिलाफ मामला दर्ज हुआ और अदालत ने उसे लंबी कैद की सजा सुनाई.

तो हालात तब ऐसे हुआ करते थे. और यह सिर्फ हमारे इलाके की बात नहीं है, पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में ऐसा था. इसी तरह हिंदू और मुसलमान आपस में शांति से रहा करते थे. यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है और मेरी उम्र के लाखों लोगों ने अपनी आंखों से इसे देखा और महसूस किया है.

तो फिर ऐसी घातक राजनीति कैसे पनपी जिसने हिंदू और मुसलमानों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने का काम किया और जिसके नतीजे में 1947 में भारत का बंटवारा हो गया? जवाब यह है कि बंटवारा हिंदू और मुसलमानों के बजाय उनके कुछ नेताओं के दिमाग की उपज था. बंटवारा आम हिंदू या मुसलमान की नहीं बल्कि कुछ नेताओं की समस्या थी जो अपने समुदाय का प्रतिनिधि होने का दावा करते थे. हिंदू और मुसलमान तो सहजता के साथ मिलजुलकर रहा करते थे जैसा मैंने ऊपर जिक्र किया. लेकिन बाद में जब अखबार का दौर आया तो चीजें बदलने लगीं. अखबारों के साथ एक नया नेतृत्व उभरने लगा. हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जो सहज संवाद था उसकी जगह नेताओं ने ले ली. ये नेता ही अपने समुदाय के मार्गदर्शक बन गए. यहीं से हमारी सारी राजनीतिक समस्याओं की शुरुआत हुई.

नेता कौन बनता है? नेता ऐसे लोग होते हैं जो आम लोगों से ज्यादा चतुर होते हैं. और अनुभव बताते हैं कि जो ज्यादा योग्य, तजुर्बेकार और चतुर होता है उसमें जाने-अनजाने एक अहम आ जाता है. लगभग हर नेता के पास एक बड़ा अहम होता है. भारतीय उपमहाद्वीप में शायद इस नियम का अपवाद एक ही नेता था और वह थे महात्मा गांधी.

ज्यादातर सांप्रदायिक त्रासदियां सिर्फ एक कारण से उपजती हैं और वह है दो प्रतिद्वंदी नेताओं के बीच अहम का टकराव. 1971 में पाकिस्तान का विभाजन जुल्फिकार अली भुट्टो और शेख मुजीबुर्रहमान के बीच अहम के ऐसे ही टकराव के कारण हुआ. इसी तरह कश्मीर विवाद आज तक अनसुलझा है तो इसकी मुख्य वजह यही है कि शेख मुहम्मद अब्दुल्ला और मुहम्मद अली जिन्ना के बीच भी अहम का एक ऐसा ही टकराव हुआ था. उदाहरण कई हैं.

दक्षिण एशियाई राजनीति का एक अध्ययन हमें अहम सबक देता है. बंटवारा आम हिंदू और मुसलमान की वजह से नहीं हुआ था. इसे हिंदू और मुसलमान नेताओं ने आम हिंदू और मुसलमान के नाम पर अंजाम दिया था.  आदमी का अहम उसकी सोच को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने देता. ये नेता उस सीमा से आगे नहीं जा सके. नतीजा, पूरे देश को उनके इस अहम की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी.

(लेखक प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान और लेखक हैं. यह लेख उनकी आने वाली किताब का अंश है )     

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