वकीलों को औपनिवेशिक ड्रेस कोड से मिलेगी मुक्ति!

वकालत के पेशे में पुलिस और डॉक्टरी पेशे की तरह ही एक औपनिवेशिक ड्रेस कोड होता है। लेकिन फिलहाल इस ड्रेस कोड में उन्हें कुछ छूट दी गयी है। यह छूट उन्हें कोरोना वायरस के संक्रमण के चलते वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से पेश होने के दौरान दी गयी है। तमाम कानूनी अड़चनों के पचड़े में पडऩे के बजाय सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से फिलहाल वकीलों ने राहत की साँस ली है। इस फैसले पर ड्रेस कोड को लेकर बता रहे हैं वाई.के. कालिया :-

कोरोना वायरस संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए 13 मई, 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने एहतियाती कदम उठाते हुए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये पेश होने के दौरान वकीलों को ड्रेस कोड में छूट दी है। अब सुप्रीम कोर्ट के वर्चुअल कोर्ट सिस्टम के माध्यम से सुनवाई के दौरान मेडिकल एग्जिबिशन होने तक या अगले आदेश तक वकीलों को सफेद कमीज़ या सफेद सलवार-कमीज़ या सफेद साड़ी पहनने की इजाज़त दी है। यानी अदालत ने अस्थायी रूप से गाउन पहनने की ज़रूरत को फिलहाल हटा दिया है। यह निर्देश तत्काल प्रभाव से लागू हो गये हैं। औपनिवेशिक ड्रेस कोड से मुक्ति पाने के लिए तमाम कानूनी अड़चनों के पचड़े में पडऩे के बजाय सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से फिलहाल कानूनी बिरादरी ने राहत की साँस ली है।

कहने की ज़रूरत नहीं है कि ड्रेस कोड आत्मविश्वास, अनुशासन और पेशे का प्रतीक है। एक पेशेवर के रूप में वकील का व्यक्तित्व गौरवशाली होता है। वकील के ड्रेस कोड के मामले में भारत में कई बार मामूली संशोधनों के साथ ब्रिटिश शासन से अपनी विरासत के रूप में हमारे सामने आया है। 1961 का अधिवक्ता अधिनियम, जिमसें वकील के लिए परम्परागत सफेद नेक बैंड के साथ ब्लैक रोब या कोट पहनना अनिवार्य है। वकील की पोशाक का मकसद बेहद उपयोगी होता है। एक तो वकील की पहचान आम लोगों से अलग हो जाती है, जो अदालत परिसर में उसको अन्य से अलग करती है। जब कोई वकील निर्धारित ड्रेस में होता है, तो उसको पहचानने में कोई भी गलती नहीं कर सकता है। हालाँकि दोनों पक्षों के वकील, याचिकाकर्ता और प्रतिवादी एक समान ड्रेस कोड पहनते हैं। आज़ादी के बाद से इस देश में तमाम अलग-अलग परिस्थितियों को देखते हुए ड्रेस कोड लागू करने, मुकदमा दायर करने और इसकी अयोग्यता के खिलाफ कानूनी बिरादरी का एक बड़ा वर्ग आन्दोलन कर रहा था। इसमें यह निवेदन किया गया कि ब्रिटेन में इस तरह का ड्रेस कोड वहाँ के ठण्ड मौसम के हिसाब से प्रासंगिक है। जबकि हमारे यहाँ मौसम कहीं ज़्यादा गरम होता है और गर्मी के दौरान काले रंग की पोषाक यानी गाउन पहनना आसान नहीं होता। 2014, 2016 और 2017 में मद्रास और कलकत्ता उच्च न्यायालयों के वकीलों ने आन्दोलन किया कि उनके क्षेत्रों में ज़्यादा गर्मी होने के दौरान काला कोट पहनने में स्वैच्छिक छूट दी जानी चाहिए। क्योंकि पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में ऐसी प्रथा थी। हालाँकि बाद में उनके इस अधिकार क्षेत्र को अंतत: स्वीकार कर लिया गया।

बार काउंसिल रेगुलेशंस के अनुसार, ड्रेस कोड में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, सबऑर्डिनेट कोट्र्स, ट्रिब्यूनल या अथॉरिटीज में आने वाले अधिवक्ताओं को गरिमापूर्ण ढंग से पेश आने के लिए गाउन के साथ सफेद कमीज़ और व्हाइट बैंड या ब्लैक टाई के साथ निर्धारित ब्लैक ड्रेस पहनें। सुप्रीम कोर्ट या उच्च न्यायालयों में पेश होने के अलावा अधिवक्ताओं का गाउन पहनना वैकल्पिक होगा। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को छोडक़र गर्मियों के दौरान काला कोट पहनना अनिवार्य नहीं है। औपचारिक ड्रेस कोड के चलते कुछ अदालतों को शाब्दिक रूप से धारण करने के लिए मजबूरन निर्धारित ड्रेस के बिना पेश होने को अनादर माना जाता है। जैसे अदालत चाहे, तो दर्शकों को आने से मना कर सकती है। न्यायालयों ने ज़ोर देकर कहा कि कुछ व्यवसायों के साथ जुड़े औपचारिक पोशाक और औपचारिक पोशाक की उपयोगिता और आवश्यकता कई देशों में मान्यता प्राप्त है। इसलिए निर्धारित ड्रेस कोड का पालन किया जाना चाहिए। विभिन्न उच्च न्यायालयों और यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस तरह के सभी प्रयासों को रद्द कर दिया कि बार काउंसिल द्वारा बिना किसी संदेह के नियमों को अधिवक्ता के लिए केवल एक निर्धारित ड्रेस कोड में अदालत में उपस्थित होना अनिवार्य है। फिर भी एक अधिवक्ता को बाहर निकालने की शक्ति न्यायालय में उपस्थित होना उस पोशाक में निहित निहितार्थ से है, जिसमें निर्धारित पोशाक के पालन को लागू करना होता है। इस लेख में वकीलों के ड्रेस कोड के सफर को दिखाया गया है। कुछ अपवादों को छोडक़र दुनिया भर में काले और सफेद रंग को कानूनी पेशे का प्रतीक माना जाता है। सकारात्मक पक्ष पर काला रंग शक्ति और अधिकार को दर्शाता है और सफेद रंग प्रकाश, अच्छाई, मासूमियत और पवित्रता को पेश करता है।

एक सामान्य व्यक्ति के लिए कानूनी प्रणाली न्याय को अपनी आिखरी उम्मीद के रूप में देखता है। उसका प्रतिनिधित्व करने के लिए सफेद रंग को चुना जाता है। वकील का सफेद बैंड भगवान और लोगों के बीच कानूनों का पालन करने को दर्शाता है। एंग्लो-सैक्सन न्यायशास्त्र पर आधारित सभी देश इस बात को मानते हैं कि पोशाक उद्देश्य की गम्भीरता और प्रस्तुति की भावना को प्रेरित करती है, जो न्याय के विस्तार के कहीं ज़्यादा अनुकूल है। हालाँकि अमेरिका में अदालत में पेश होने वाले वकीलों को सिर्फ रूढि़वादी व्यावसायिक पोशाक पहनना अनिवार्य है। अधिवक्ता अधिनियम-1961 के तहत वकीलों को दो वर्गों में मान्यता दी गयी है। एक- वरिष्ठ अधिवक्ता और दूसरे अन्य अधिवक्ता। जबकि बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा तैयार किये गये नियम में पोशाक के लिए कोई फर्क नहीं किया जाता है। वरिष्ठ अधिवक्ता के लिए एक अलग गाउन या कोट के डिजाइन को निर्धारित किया जाता है। फिर भी लम्बे समय से चली आ रही प्रथा को बरकरार रखा गया है। 1961 के एडवोकेट्स एक्ट से पहले भी वकीलों ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष भी गुहार लगायी कि एडवोकेट्स एक्ट के तहत नियम वरिष्ठ वकीलों और अन्य वकीलों के बीच पहनावे को लेकर किसी भी तरह र्का फर्क नहीं होता था। वरिष्ठ अधिवक्ता गाउन के साथ जुड़वाँ कोट पहनते हैं, जो अन्य अधिवक्ताओं द्वारा पहनने वालों से थोड़ा अलग होता है। हालाँकि वरिष्ठ अधिवक्ताओं द्वारा ऐसे कोट और गाउन का उपयोग अवैध था। क्योंकि कोई परम्परा किसी कानून को ओवरराइड (रद्द) नहीं कर सकती, जब तक कि संसद से पास कानून के ज़रिये उसे अधिनियमित न किया गया हो।

चूँकि एक वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में किसी वकील को नामित करने का अधिकार केवल उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय को है। इसलिए अपने स्वयं के अधिकार को संरक्षित करने के लिए एक तरह का शीर्षक (भले ही अनुच्छेद-18 निर्धारित करता है) अदालतों के पास है। यह वकीलों के बीच का मामला होता है, जिसमें एक अलग वर्ग को मान्यता न्यायालय के अनुसार दी जाती है। क्षमता, ज्ञान, अनुभव, विशेषज्ञता और बार में खड़े होने के आधार पर एक वकील को वरिष्ठ वकील के रूप में नामित किया जाता है। न्यायालय के मद्देनज़र उस सम्बन्धित वकील की क्षमता और खड़े होने की मान्यता (?) में अदालत की ओर से एक तरह का सम्मान होता है। इसलिए एक वरिष्ठ वकील द्वारा एक अलग गाउन या एक कोट पहनना जो अधिवक्ताओं द्वारा पहने जाने वाले एक से अलग हो सकता है। इसे किसी भी तरह से व्यवस्था के बीच भारत के संविधान के अनुच्छेद-14 के तहत उल्लंघन करार नहीं दिया जा सकता है।

न्यायालय के ज़रिये वरिष्ठ अधिवक्ताओं को नामित किया जाता है, जिसमें उनको विशेष अधिकार मिलता है, जिसके तहत दर्शकों को बुला सकते हैं। ज़मीनी हकीकत को रू-ब-रू कराने के लिए केवल नामित वरिष्ठ अधिवक्ता अपने कार्यों के ज़रिये न्यायालय के लगभग पूरे कामकाज का समय लेते हैं; जिसमें जनहित याचिका यानी पीआईएल आदि होती हैं। इस तरह से अन्य अधिवक्ता, जिनको कम भाग्यशाली कह सकते हैं; उन्हें कॉफर्स को भरना होता है। पारम्परिक ड्रेस कोड ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जहाँ एक ही शैक्षणिक योग्यता वाले पेशेवरों में वर्ग और अनुभव भी एक जैसा होने के बावजूद ओवरफेड किया जाता है; दूसरे को ड्रेस कोड के तहत पूरा किया जाता है। अब जब कानूनी पेशेवर कोविड-19 के चलते फिलहाल ड्रेस कोड से मुक्त हो गये हैं, तो ऐसी उम्मीद जगी है कि अब सुप्रीम कोर्ट के ज़रिये तदर्थ आधार पर निर्धारित पोशाक देश की अन्य अदालतों की एक स्थायी विशेषता बन जाएगी।