राजस्थान में किसानों की जीत आंदोलन में किसानों के साथ मज़दूर, व्यापारी और छात्र भी शामिल

Kisan Andolan Sikar-1

राजस्थान के सीकर क्षेत्र मेें किसान आंदोलन ने वह कर दिखाया जिसकी उम्मीद भी किसी को नहीं थी। आज ऐसा समय है जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को फलने-फूलने का अवसर देने के लिए सरकारों के बीच जैसे होड़ लग गई है। मनमोहन सिंह की सरकार ने पूंजीपतियों के हक में जो कानून बनाए, कानूनों में परिवर्तन किए उन्हीं को मौजूदा भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार दुगनी गति से आगे बढ़ाने मेें लग गई है। लोग समझ नहीं पा रहे कि दोनों सरकारों में आर्थिक ‘फ्रंटÓ पर क्या अंतर है। इसी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए देश में ‘ट्रेड यूनियनोंÓ को खत्म या नाकारा करने की मुहिम शुरू हो गई। ‘टे्रड यूनियनÓ कानून में कई बदलाव किए गए। मज़दूरों के कई अधिकार छीन लिए। देश में बढ़ रही बेरोज़गारी को और बढ़ाने के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों सरकारों ने कमर ही कस ली। मज़दूरों को समाज की नज़र में एक खलनायक के रूप में पेश करने में दोनों सरकारें लगी रही। बहुत स्थानों पर यूनियनों ने काम करना बंद कर दिया। लोग अपनी नौकरियां बचाने में लग गए।
अब बात किसानों की। सरकार ने किसानों का इस प्रकार शोषण शुरू किया कि वे आत्महत्या करने पर मजबूर हो गए। उन्हें तरह-तरह से बदनाम किया जाने लगा। पूरी दुनिया का पेट भरने वाले किसान को किसी भी तरह से उस हद तक तंग किया जाने लगा कि वह खेती छोड़ कर कारखानों में नौकरी करने लग जाए। मकसद साफ है, कारखानेदारों को सस्ती दरों पर मज़दूर उपलब्ध करवाना। सरकार किसानों को गुमराह करने के लिए अपने लोग बीच में डाल कर उन्हें किसान नेता के रूप में उभारा और किसान आंदोलन को अपने लक्ष्य से भटकाने में सफलता पा ली। पंजाब में किसानों के आंदोलन के नेता बने लोग सरकार की मेहरबानियों का मज़ा लेते रहते हैं। यही कारण है कि किसानों की मांगों पर विचार ही नहीं होता। किसानों को धर्म, जात और संप्रदाय के नाम पर लड़ा
कर सरकारें अपनी रोटियां सेंकती रही हैं। पर, राजस्थान में एक नई क्रांति उभर कर सामने आई है। यहां माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के टिकट पर चार बार विधायक रहे किसान नेता अमराराम के नेतृत्व में किसानों मज़दूरों और छोटे व्यापारियों ने 10 दिनों तक आंदोलन चला के राजस्थान सरकार को अपनी मांगे मानने पर मजबूर कर दिया।
पहली सितंबर से सीकर में पांच लाख किसान, मज़दूर और छोटे व्यापारी इकट्ठे हुए और उन्होंने बेहद अनुशासित तरीके से आंदोलन चलाया। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि पूरे आंदोलन में कहीं हिंसा नहीं हुई कोई अप्रिय घटना नहीं घटी और पुलिस को कुछ ज्य़ादा करने का अवसर ही नहीं मिला। इस आंदोलन मेें यह पहली बार देखने को मिला कि छोटे दुकानदार और व्यापारी भी इसमें शामिल हुए। वे केंद्र और राज्य सरकार की नीतियों से बेहद परेशान थे। इनके अलावा छात्रों, आंगनवाड़ी वर्कर्स, बस यूनियनों, ऑटो रिक्शा यूनियन, पंप सेट वर्कर, यहां तक कि ‘डीजेÓ बजाने वाले भी किसानों के समर्थन में सड़कों पर उतर पड़े। हिंदू-मुसलमान का भेद वहां खत्म हो गया। हर रोज़ 10 से 20 हज़ार लोग किसानों के समर्थन में प्रदर्शन करते, दो-एक बार तो यह संख्या दो-दो लाख तक भी नज़र आई।
लोगों की एकता और दबाव के कारण सरकार को किसानों की मांगे माननी पड़ीं। उनकी मुख्य मांगे जो मानी गईं, इन प्रमुख हैं –
 किसानों का 50,000 रु पए तक का कजऱ् माफ कर दिया गया। एक समिति भी गठित की गई जो और राज्यों में कजऱ् माफी की प्रक्रिया को समझेगी।
 राज्य सरकार केंद्र को सिफारिश करेगी कि स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशें लागू की जाए।
 बछड़ों की बिक्री पर लगा तीन साल का प्रतिबंध घटा कर दो साल कर दिया गया।
 किसानों को उनकी उपज के खर्च पर 50 फीसद बढ़ा कर समर्थन मूल्य मिलेगा। यह स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिश भी है।
अखिल भारतीय किसान सभा ने फैसला किया है कि वह राज्य के 15 जि़लों में विजय जुलूस निकालेंगे।

मंदसौर से सीकर तक फैला किसान आंदोलन
जिस समय पूरा राष्ट्रीय मीडिया सिरसा के बाबा गुरमीत राम रहीम के आश्रम और उसकी गुफा की तलाशी दिखाने में व्यस्त था, उस समय राजस्थान के सीकर, चुरू, बीकानेर, हनुमानगढ, श्रीगंगानगर, झुंझुनू, अलवर और नागौर जि़लों के किसान सड़कों पर उतर रहे थे। मांगे लगभग वही थी जिनके कारण जून के महीने में किसान आंदोलन उठा था। किसान चाहते थे उपज का उचित दाम, कजऱ् की माफी और समर्थन मूूल्य पर खरीद।
देखा जाए तो किसान चाहे तमिलनाडु के हों या मंदसौर के, उनकी मांगों में खास अंतर नहीं। इन्ही मांगों में है किसानों की आत्महत्या का हल। राजस्थान में चला यह किसान आंदोलन 14 जि़लों में फैला रहा। इस दौरान किसानों ने जि़ला मुख्यालयों पर महा पड़ाव डाला और जगह-जगह रास्ते जाम किए।
इस साल उभरे किसान आंदोलन कई कारणों से हैरान कर देने वाले हंै। सबसे पहले महाराष्ट्र, फिर मध्यप्रदेश में बिना संगठनों के किसानों का गुस्सा देखने को मिला। फसलों की कीमतों में भारी गिरावट ने किसानों को परेशान कर दिया। इसी को लेकर किसानों ने शहरों को जाने वाली दूध और सब्जियों की आपूर्ति ठप्प कर दी। यह उनका तरीका था आक्रोश दिखने का।
राजस्थान का किसान आंदोलन किसान सभा के झंडे तले चला। 13 दिन के इस आंदोलन ने एक ऐतिहासिक जीत दर्ज की। पहली सितंबर से शुरू हुए इस संघर्ष के दौरान किसानों ने लाखों की गिनती में इक_ा हो कर विभिन्न जि़ला मुख्यालयों का घेराव किया। तीन दिन तक रास्ते भी रोके जिससे 20 जि़लों में जिं़दगी ठहर गई। इस दौरान केवल एंबुलेंस और जिं़दगी के लिए ज़रूरी वस्तुओं को ले जा रहे वाहनों को बिना रोकटोक के जाने दिया गया। असल में यह आंदोलन केवल किसानों का न रह कर आम लोगों का संघर्ष बन गया था। आखिर भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के टिकट पर चार बार विधायक रहे अमराराम के नेतृत्व में छोटे व्यापारियों से लेकर छात्र, टैंपू यूनियन वाले, बस यूनियन के लोग और आम जनमानस इस संघर्ष में कूद पड़ा। लोगों के इस दवाब के आगे आखिर में
राजस्थान में भाजपा की सरकार को झुकना पड़ा। इस बारे में चार बार, चार स्तरों पर बातचीत हुई। 12 सितंबर को दोपहर एक बजे शुरू हुई बातचीत में अंतिम फैसला 14 सितंबर 2017 को दोपहर एक बजे हुआ।
भाजपा सरकार को 50,000 तक की कजऱ् माफी कीे मांग माननी पड़ी। इससे आठ लाख किसानों को लाभ होगा। सरकार यह भी मान गई कि स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू करवाने के लिए वह केंद्र सरकार से सिफारिश करेगी। साथ में मूंगफली, मूंग और उड़द की खरीद स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों के अनुरूप समर्थन मूल्य पर सात दिन के भीतर करेगी।
यह खरीद सभी जि़ला मुख्यालयों पर की जाएगी। ‘ड्रिपÓ सिंचाई में खर्च होने वाली बिजली के रेट वापिस ले लिए जांएगे। अनुसूचित जातियों,जनजातियों और पिछड़े वर्गो को मिलने वाले वजीफों की जो राशि बकाया है वह शीघ्र दी जाएगी। पशु बेचने पर लगी रोक में ढील दी जाएगी। पेंशन की राशि 2000 रुपए प्रति माह करने पर भी सहमति बनी। नहर सिंचाई के बीमा की अदायगी पर भी बात हो गई। व्यापारियों के हाथों किसानों को होने वाली परेशानी से भी मुक्ति मिलेगी। इस समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद किसान सभा के अध्यक्ष अमराराम ने आंदोलन खत्म करने की घोषणा कर दी।
इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में देखें तो पांएगे कि इसकी शुरूआत 16 जून को ही हो गई थी जब अखिल भारतीय किसान सभा ने सीकर की कृषि उपज मंडी में किसानों की एक सभा बुलाई और राजस्थान के किसानों की समस्यायों पर विचार किया। यहीं उन्होंने अपनी भविष्य की योजना तैयार की। इसके आधार पर 17 जुलाई को ‘किसान कफ्र्यूÓ लगाया गया। यह कफ्र्यू सुबह आठ बजे से दोपहर तक जारी रहा।
इस बीच किसान सभा के अध्यक्ष अमराराम और एक नेता पेमाराम ने सीकर जि़ले के 1000 से ज़्यादा गावों और 343 पंचायतों का दौरा कर लोगों को संघर्ष के लिए तैयार किया। किसान ‘कफ्र्यू Ó को सफल बनाने के लिए 40 किसान चौकियां स्थापित की गई। यहीं किसान नेताओं ने सरकार को मांगों को मानने के लिए 10 दिन का समय दिया।
बाद में यह फैसला हुआ कि नौ अगस्त को किसान अपने-अपने जि़लों के मुख्यालयों पर गिरफ्तारियां देगें। इसे सफल बनाने के लिए 13 दिनों तक ज़ोरदार अभियान चला। नौ अगस्त को पूरे राज्य में किसान स्वेच्छा से गिरफ्तारी देने गए। पुलिस ने एक हज़ार से ज़्यादा किसानों को गिरफ्तार किया।
इसके बाद पहती सितंबर से इस आंदोलन को तेज़ करने का फैसला हुआ। इस दौरान किसान सभा के लोगों ने गावों में से पैसा और राशन इक_ा करना शुरू किया ताकि लंबे संघर्ष में कोई दिक्कत न आए। पहली सितंबर को 15000 से ज़्यादा किसानों ने अनुशासित तरीके से जा कर जि़ला कलेक्टर को अपना मांग पत्र दिया। यह मांग पत्र राज्य की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के लिए था। मांग पत्र देने के बाद सभी लोग मंडी लौट आए और संघर्ष की तैयारी करते रहे।
दो सितंबर रात को 9 बजे फिर किसान जि़ला कलेक्टर के घर तक गए। इस मार्च को नाम दिया गया-‘प्रशासन की नींद हराम करने के लिएÓ। मार्च को बाधित करने के लिए पुलिस ने एंबुलेंस और दूसरे वाहन बीच में भेज दिए, हालांकि उनके जाने के लिए अलग रास्ता भी था। लेकिन अमराराम की एक आवाज पर 15,000 लोगों की भीड़ ने अपने बीच से रास्ता दे दिया और सभी वाहन आसानी से निकल गए। उनका कहना था कि वे प्रशासन को परेशान करेंगे, आम लोगों को नहीं।
तीन सितंबर को किसानों ने कवि सम्मेलन किया। इसी प्रकार लगातार कुछ दिन किसानों की गतिविधियां चलती रही। नौ सितंबर को तो ‘डीजेÓ वालों ने खूब समां बांधा। 10 सितंबर तक 50 और संगठन किसानों की मदद के लिए आ गए। अब सरकार के पास मांगे मानने के सिवा और कोई चारा न था।
पिछले लंबे समय में यह किसानों की सबसे बड़ी जीत मानी जाएगी।
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र के किसान इस साल पहली जून से आंदोलन में कूद गए। यह पहला मौका था जब राज्य के किसानों ने यह कदम उठाया। उन्होंने दूध,फल,सब्जियां सड़कों पर फैंक दी और यह धमकी भी दी कि वे शहरी मंडिय़ों में कोई भी वस्तु नहीं जाने देंगे। मज़ेदार बात यह है कि इस आंदोलन का कोई नेता नहीं था। यह सिर्फ किसानों के लगातार हो रहे शोषण के कारण था। उनके आंदोलन ने सरकार और शहरी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। तब तक किसी को इस बात का अहसास भी नहीं था कि गावों में रहने वालों की स्थिति कैसी है। एक हफ्ते तक चले इस आंदोलन से किसानों को यह लाभ हुआ कि सरकार इस बात पर सहमत हो गई कि वह एक निश्चित समय से पहले किसानों के कजऱ् माफ कर देगी।
कजऱ् माफी के अलावा किसानों की मुख्य मांगों में स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट को लागू करना और उसके अनुरूप समर्थन मूल्य तय करना शामिल था। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 2014 में लोकसभा चुनावों में 10 साल पुरानी स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करने का आश्वासन दिया था। किसानों की ये मांगें नई नहीं थी, पर इन्हें माना नहीं गया था।
तंगहाल किसानों की मुसीबतों को 2013 से 2015 तक के खराब मॉनसून ने और बढ़ा दिया। किसानों का गुस्सा उस समय चरम पर पंहुच गया जब 2016 में अच्छे मॉनसून के बावजूद ‘नोटबंदीÓ के कारण उन्हें अपनी फसल के उचित दाम नहीं मिले। ‘नोटबंदीÓ के कारण सहकारी बैंकों में पैसे की कमी हो गई और किसानों को भारी नुकसान झेलना पड़ा।
इसके अलावा किसानों ने प्रधानमंत्री के आह्वान पर दालों का अधिक उत्पादन कर दिया। कुछ किसानों ने उनमें भारी निवेश भी किया। इसका परिणाम यह हुआ कि मंडी में दालों का भंडार इक_ा हो गया। इस कारण व्यापरियों ने दालों की खरीद बहुत कम दामों पर कर ली। जब न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की गई, तब तक दालें व्यापरियों के हाथ आ चुकी थी और व्यापारी उसे ऊंचे दामों पर बेचने लगे थे। इसने किसानों के गुस्से को और बढ़ा दिया। किसानों का कहना है कि यदि सरकार को फसल के भारी मात्रा में पैदा होने का पुर्वानुमान नहीं था तो इसमें उसका क्या कसूर, उन्होंने तो प्रधानमंत्री के कहने पर दालों का उत्पादन किया था।
किसान संगठन यह मानते हैं कि कजऱ् माफी कोई पक्का हल नहीं है, लेकिन इससे कम से कम किसान को कुछ राहत तो मिलेगी। वे कजऱ्
व्यवस्था की एक धारा में तो आ ही जाएंगे।
दूसरी ओर महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि वह कजऱ् माफी के समर्थन में है और सही समय पर इसकी घोषणा कर देगी। मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस का कहना है कि उन्होंने अभी एक पैनल गठित किया है तो उत्तर प्रदेश में कर्ज़ माफी की प्रक्रिया का अध्ययन कर रहा है। सरकार ने यह भी कहा है कि वह एक ऐसा कानून बनाने जा रहीं है जिसके तहत न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर खरीद करने वालों को सज़ा हो सकेगी। बाकी मांगों को मानने की जिम्मेदारी उसने केंद्र पर डाल दी है।
मध्यप्रदेश
मध्यप्रदेश में किसान आंदोलन का दूसरा रूप नज़र आया। यहां व्यापरियों की दुकानें जली,किसानों के बच्चे मरे और पूरा वातावरण सहमा सा नज़र आया। पर किसान और व्यापारी दोनों ही इसके लिए ‘नोटबंदीÓ को जिम्मेदार ठहराते हैं। मंदसौर के व्यापारी कहते हैं कि ‘नोटबंदीÓ ने किसान और व्यपारियों के बीच के रिश्ते बर्बाद कर दिए। इससे सारी मंडी ही बर्बाद हो गई। दूसरी ओर किसानों का आरोप है कि व्यापारी हमारा शोषण करते हैं। उन्हें पता है कि किसान को तो नकदी पैसा चाहिए। पर मोदी सरकार ने तो पिछले साल नवंबर में 86 फीसद नकदी को चलन के बाहर कर सब कुछ बर्बाद कर दिया।
मंदसौर में चार दिन चली हिंसा में पांच किसान मारे गए, फसलें तबाह हो गई, दुकानें, ट्रक जला दिए गए। नोटबंदी के कारण सभी भुगतान चेक से होने लगे। पर एक चेक ‘क्लीयरÓ होने में 20 दिन ले लेता। इतना ही नहीं, ‘नोटबंदीÓ के कारण बैंकों के पास नगदी होती ही नहीं थी। इसका लाभ व्यापरियों ने उठाया वे नगद भुगतान में हर 100 रुपए पर दो रुपए काट लेते। इससे किसानों की समस्या और बढ़ गई।
एक किसान ने बताया कि फसल तैयार होते ही किसान उसे बेचने के लिए भागता है ताकि अपने कजऱ् उतार सके क्योंकि साहूकार उसके कजऱ् पर हर महीने दो फीसद ब्याज लेता। इस तरह साल भर में उसे 24 फीसद ब्याज देना पड़ता है। जो किसान कजऱ् वापिस नहीं कर पाता उसे अपनी ज़मीन बेच कर कजऱ् चुकाना पड़ता है। पर यहां भी ‘नोटबंदीÓ ने नुकसान कर दिया। जो ज़मीन पांच लाख रुपए बीघा थी उसकी कीमत ढाई लाख रुपए बीघा रह गई। क्योंकि किसी के पास ज़मीन खरीदने के लिए नगद रुपए नहीं बचे थे।
व्यापरियों का कहना है कि किसान उनसे नगद पैसे मांगते पर हमारे हाथ में नगदी थी ही कहां इसलिए भुगतान चैकों से किए गए। इनमें से कई चैक लफ्ज़ों की गलती के कारण ‘बाउंसÓ हो गए। इस पर किसानों ने समझा कि हम उनसे धोखा कर रहे है। इस तरह अनाज की बिक्री रुक सी गई और उसके भंडार जमा हो गए और उसकी कीमत बहुत नीचे आ गई। इससे किसानों को भारी नुकसान झेलना पड़ा।