‘राजनीतिक पार्टी बनाने का विचार अन्ना जी का था लेकिन बाद में वे ही पीछे हट गए’

फोटोः तरुण सहरावत
फोटोः तरुण सहरावत

बमुश्किल साढ़े पांच फुट कद वाले अरविंद केजरीवाल से मिलना कहीं से भी संकेत नहीं देता कि यही शख्स बीते दो सालों में कई बार कई-कई दिनों के लिए ताकतवर भारतीय राजव्यवस्था की आंखों की नींद उड़ा चुका है. जब तक अरविंद किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर बात न करें , उनके साधारण चेहरे-पहनावे और तौर-तरीकों को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि वे कभी इन्कम टैक्स कमिश्नर थे, देश में आरटीआई कानून लाने में उनकी एक महत्वपूर्ण भूमिका थी. पिछले साल देश के एक-एक व्यक्ति की जुबान पर उनका नाम था और यही व्यक्ति देश को एक वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था देने के सपने खुद भी देखता है और औरों को भी दिखाता है. अरविंद की घिसी मोहरी वाली पैंट, साइज से थोड़ी ढीली शर्ट और साधारण फ्लोटर सैंडलें उस आम आदमी की याद दिलाती हैं जो हमारे गांव- कस्बों और गली-कूचों में प्रचुरता में मौजूद है.

अरविंद से बातचीत करना भी उतनी ही सहजता का अहसास कराता है. अर्थ और कानून जैसे जटिल विषय को जिस सरलता से वे आम आदमी को समझाते हैं उससे उनके असाधारण हुनर का कुछ अंदाजा मिलता है. उनके हर आह्वान पर जब सैकड़ों युवा गुरिल्ला शैली में केंद्रीय दिल्ली की सड़कों पर निकल पड़ते है तब उनकी जबरदस्त संगठन क्षमता का भी दर्शन होता है. उनके साथ थोड़ा अधिक समय बिताने पर एक ऐसा व्यक्तित्व उभरता है जिसकी देशभक्ति और ईमानदारी तमाम संदेहों से परे हो.

लेकिन उन पर ये आरोप भी लगते रहे हैं कि उन्होंने अन्ना का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को साकार करने के लिए किया. हालांकि अरविंद अपने राजनीतिक जुड़ाव को आंदोलन की तार्किक परिणति मानते हैं, मगर उनके और उनके इस कदम के विरोधियों का मानना है कि उनकी तो शुरुआत से ही यही मंशा थी. अरविंद सवाल करते हैं कि यही लोग पहले हमें संघ और भाजपा का मुखौटा कहते थे और अब राजनीतिक महत्वाकांक्षी कह रहे हैं. तो वे लोग पहले यह तय कर लें कि वे किस बात पर कायम रहना चाहते हैं.

एक समाजसेवी के रूप में अन्ना की प्रतिष्ठा ज्यादातर महाराष्ट्र तक ही सीमित थी. आज अगर अन्ना देश के घर-घर में पहुंचे हैं तो इसके पीछे अरविंद केजरीवाल की भूमिका बहुत बड़ी रही है. आज अन्ना और अरविंद के रास्ते अलग हो चुके हैं. अन्ना ने खुद को राजनीति से दूर रखने और साथ ही अपना नाम और फोटो राजनीति के लिए इस्तेमाल नहीं करने देने के संकल्प का एलान कर दिया है. इतने बड़े झटके के बाद भी तहलका से हुई पहली विस्तृत बातचीत में अरविंद के उत्साह में किसी भी कमी के दर्शन नहीं होते, न ही लक्ष्य के प्रति उनके समर्पण में कोई कमी समझ में आती है. अन्ना के साथ रिश्तों की ऊंच-नीच, उन पर लग रहे विभिन्न आरोपों, राजनीतिक पार्टी और उसके भविष्य पर अरविंद केजरीवाल के साथ बातचीत.

राजनीतिक पार्टी ही आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए क्यों जरूरी है?
हम लोगों के पास चारा ही क्या बचा था. सब कुछ करके देख लिया, हाथ जोड़कर देख लिया, गिड़गिड़ाकर देख लिया, धरने करके देख लिया, अनशन करके देख लिया, खुद को भूखा मारकर देख लिया. दूसरी बात है कि देश जिस दौर से गुजर रहा है उसमें हम क्या कर सकते हैं. कोयला बेच दिया, लोहा बेच दिया, पूरा गोवा आयरन ओर से खाली हो गया, बेल्लारी खाली हो गया. उड़ीसा में खदानों की खुलेआम चोरी चल रही है. महंगाई की कोई सीमा नहीं है, इस देश में डीजल-पेट्रोल की कीमतें आसमान पर हैं. कहने का अर्थ है कि हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं बचा है. व्यवस्था में परिवर्तन लाए बिना यहां कोई बदलाव ला पाना संभव नहीं है.

पर कहा यह जा रहा है कि आपने जुलाई से काफी पहले ही पार्टी बनाने का मन बना लिया था. जुलाई का अनशन जिसमें आप भी भूख हड़ताल पर बैठे थे- एक तरह से स्टेज मैनेज्ड था. आप घोषणा करने से पहले जनता को इकट्ठा करना चाहते थे.
किसने आपसे कहा कि हमने पहले ही राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला कर लिया था?

टीम के ही कई लोगों का यह कहना है. बाद में आपसे अलग हो गए लोग भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि जनवरी में पालमपुर में हुई आईएसी की वर्कशॉप में ही चुनावी राजनीति में उतरने का फैसला कर लिया गया था.
ये सब झूठ है. पालमपुर की वर्कशॉप जनवरी में नहीं बल्कि मार्च में हुई थी. ये सच है कि 29 जनवरी को पहली बार पार्टी बनाने और चुनाव लड़ने का विषय हमारी बैठक में सामने आया था. इसके चर्चा में आने की वजह यह थी कि उसी समय पुण्य प्रसून वाजपेयी अन्ना से मिले थे. अन्ना उस समय अस्पताल में भर्ती थे. अस्पताल में ही दोनों के बीच दो घंटे लंबी बातचीत चली थी. मैं उस मीटिंग में नहीं था. पुण्य प्रसून ने ही अन्ना को इस बात के लिए राजी किया था कि यह आंदोलन सड़क के जरिए जितनी सफलता हासिल कर सकता था उतनी इसने कर ली है. अब इसे जिंदा रखने के लिए इसे राजनीतिक रूप देना ही पड़ेगा वरना यह आंदोलन यहीं खत्म हो जाएगा. अन्ना को प्रसून की बात पसंद आई थी. मीटिंग के बाद उन्होंने मुझे बुलाया. उन्होंने मुझसे कहा कि प्रसून जो कह रहे हैं वह बात ठीक लगती है. बल्कि हम दोनों ने तो मिलकर पार्टी का नाम भी सोच लिया है – भ्रष्टाचार मुक्त भारत, पार्टी का नाम होगा. फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम्हें क्या लगता है. मेरे लिए यह थोड़ा-सा चौंकाने वाली बात थी. मैं तुरंत कोई फैसला नहीं कर पाया. तो मैंने अन्ना से कहा कि मुझे थोड़ा समय दीजिए. मैं सोचकर बताऊंगा. दो-तीन दिन तक सोचने के बाद मैंने अन्ना से कहा कि आप जो कह रहे हैं मेरे ख्याल से वह ठीक है. हमें चुनावी राजनीति के बारे में सोचना चाहिए. उसी समय पहली बार इसकी चर्चा हुई. उसके बाद अन्ना तमाम लोगों से मिले और उन्होंने इस संबंध में उन लोगों से विचार-विमर्श भी किया. तो राजनीतिक विकल्प की चर्चा तो चल ही रही थी लेकिन जो लोग यह कह रहे हैं कि पहले से फैसला कर लिया गया था और हमारा अनशन मैच फिक्सिंग था वह गलत बात है. अगर यह मैच फिक्सिंग होती तो इसे दस दिन तक खींचने की क्या जरूरत थी. मैं तो शुगर का मरीज था. मेरे पास तो अच्छा बहाना था. दो दिन बाद ही मैं डॉक्टरों से मिलकर अनशन खत्म कर देता. दो दिन बाद मैं एक नाटक कर देता कि मेरी तबीयत खराब हो गई है और मैं अस्पताल में भर्ती हो जाता और हम राजनीतिक पार्टी की घोषणा कर देते.

आप कह रहे हैं कि राजनीतिक दल का प्रस्ताव अन्ना का था. खुद अन्ना ने भी मंच से कई बार यह बात कही थी कि हम राजनीतिक विकल्प पर विचार करेंगे. और अब अन्ना मुकर गए हैं. तो क्या आप इसे इस तरह से देखते हैं कि अन्ना ने धोखा दिया है आपको?
मैं इसे धोखा तो नहीं कहूंगा, लेकिन उनके विचार तो निश्चित तौर पर बदल गए हैं. अब वे क्यूं बदले हैं इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं है. देखिए, धोखा कोई नहीं देता. इतने बड़े आदमी हैं अन्ना तो मैं इसे धोखा तो नहीं कहूंगा. पर उनके विचार क्यों बदले हैं इस बात का जवाब मेरे पास नहीं है. 19 तारीख को कंस्टीट्यूशन क्लब में जो बैठक हुई थी उसमें हम सबने यही तो कहा उनसे कि अन्ना आप ही तो सबसे पहले कहते थे कि हम राजनीतिक पार्टी बनाएंगे तो अब यह बदलाव क्यों. उनका जवाब था कि पहले मैं वह कह रहा था अब यह कह रहा हूं. जब पहले मेरी बात मान ली थी तो अब भी मान लो. उनके विचार तो बदल गए हैं इस दौरान.

आप भी हमेशा कहते थे कि जो अन्ना कहेंगे हम वह मान लेंगे. तो अब आप ही उनकी बात क्यों नहीं मान लेते, यह मनमुटाव क्यों?
मैं आपकी बात से सहमत हूं. मैंने कहा था कि अगर अन्ना कहेंगे कि पार्टी मत बनाओ तो मैं मान जाऊंगा. अब मेरे सामने यह धर्म संकट है. मुझे लगता था कि अन्ना पूरा मन बना कर ही राजनीतिक विकल्प की बात कर रहे हैं. और फिर उन्होंने अपना मन बदल दिया. मैं धर्मसंकट में फंस गया हूं. एक तरफ मेरा देश है दूसरी तरफ अन्ना हैं. दोनों में से मैं किसको चुनूं. तो मेरे पास कोई विकल्प नहीं बचा है सिवाय इसमें कूदने के क्योंकि मेरे सामने सवाल है कि भारत बचेगा या नहीं. जिस तरह की लूट यहां मची है संसाधनों की उसे देखते हुए पांच-सात साल बाद कुछ बचेगा भी या नहीं यही डर बना हुआ है.

एक समय था अरविंद जी, जब आप कहते थे कि मैं अन्ना को सिर्फ दफ्तरी सहायता मुहैया करवाता हूं, नेता तो अन्ना ही हैं. फिर आप यह भी कहते रहे कि अन्ना अगर कहेंगे तो मैं राजनीतिक पार्टी नहीं बनाऊंगा. और अब आप अलगाव और राजनीतिक  पार्टी की जिद पर अड़ गए हैं. क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि यह सिर्फ आपकी महत्वाकांक्षा के चलते हो रहा है?
किस चीज की महत्वाकांक्षा?

सत्ता की महत्वाकांक्षा.
लोग किसलिए राजनीति में जाते हैं. सत्ता से पैसा और पैसा से सत्ता. अगर पैसा ही कमाना होता मुझे तो इनकम टैक्स कमिश्नर की नौकरी क्या बुरी थी मेरे लिए. एक कमिश्नर एक एमपी से तो ज्यादा ही कमा लेता है. अगर सत्ता का ही लोभ होता तो कमिश्नर की नौकरी छोड़ पाना बहुत मुश्किल होता मेरे लिए. आप सोचिए कि सत्ता का मोह होता तो इस तरह की नौकरी छोड़ पाने की मानसिकता मैं कभी बना पाता? कुछ लोगों का कहना है कि आपने तो शुरू से ही राजनीति में आने का तय कर रखा था. ये बड़ी दिलचस्प बात है. 2010 के सितंबर में मैंने जन लोकपाल बिल का मसौदा तैयार किया, फिर मैंने सोचा कि अब मैं इन-इन लोगों को एक साथ लाऊंगा, फिर अन्ना से संपर्क करूंगा, फिर अन्ना चार अप्रैल को अनशन पर बैठेंगे, फिर खूब भीड़ आ जाएगी और फिर संयुक्त मसौदा समिति बनेगी जो बाद में हमें धोखा देगी और फिर उसके बाद अगस्त का आंदोलन होगा जिसमें पूरा देश जाग जाएगा, और फिर संसद तीन प्रस्ताव पारित करेगी, फिर संसद भी धोखा दे देगी, और फिर मैं राजनीतिक पार्टी बना लूंगा. काश कि मैं अगले तीन साल के लिए इतनी रणनीति बना पाऊं.

आप लोगों ने एक सर्वेक्षण की आड़ में राजनीतिक दल की जरूरत स्थापित करने की कोशिश की. पर उस सर्वेक्षण की अहमियत क्या है? न तो उसका कोई वैज्ञानिक आधार है न ही सैंपल का क्राइटेरिया. 80 फीसदी लोगों ने दल का समर्थन किया है. जब तक हम सैंपल, एज ग्रुप, विविध समुदायों की बात नहीं करेंगे तब तक इसकी क्या अहमियत है? किसी खास सैंपल ग्रुप में हो सकता है कि सारे लोग नक्सलियों को सड़क पर खड़ा करके गोली मारने के पक्षधर हों, या फिर समुदाय विशेष को देश से निकाल देने के पक्षधर हों ऐसे में आपका सर्वेक्षण कोई वैज्ञानिक आधार रखता है?
दो चीजें आपके प्रश्न में हैं. एक तो ये कहना कि जो लोग इस आंदोलन से जुड़े थे वे इस मानसिकता के थे या उस मानसिकता के थे. मैं इस बात से सहमत नहीं हूं. ये सारे लोग इसी देश का हिस्सा हैं. इस देश के लोगों को इस तरह से बांटना ठीक नहीं है. दूसरी बात जो आप कह रहे हैं मैं उससे सहमत हूं कि सर्वे इसी तरह से होते हैं. तमाम लोग सर्वे करवाते हैं. हर सर्वे किसी न किसी सैंपल पर आधारित होता है. अब यह आप पर निर्भर है कि आप उसे तवज्जो देना चाहते हैं या नहीं. उस सर्वे के आधार पर आप कोई निर्णय लेना चाहें या न लेना चाहें यह आपके ऊपर निर्भर है. यह तो अन्ना जी ने ही कहा था कि एक बार सर्वे करवा कर जनता का मिजाज जान लेते हैं. देखते हैं वह क्या सोचती है. उनके कहने पर हम लोगों ने सर्वे करवाया. अन्नाजी ने ही कहा था कि इस विधि से सर्वे करवाया जाए. हमने उसी तरीके से सर्वे करवाया. लेकिन उस सर्वे के बावजूद अन्नाजी ने अपना निर्णय इसके खिलाफ दिया. ये यही दिखाता है कि सर्वे आप करवाकर लोगों का मिजाज भांप सकते हैं फिर निर्णय आप अपना ले लीजिए. उस सर्वे ने हमारे निर्णय को प्रभावित किया हो ऐसा मुझे नहीं लगता, लेकिन सर्वे आपको एक मोटी-मोटा आइडिया तो देता है.

ये बात बार-बार आ रही है कि चुनावी विकल्प का इनीशिएटिव अन्ना का था…
इनीशिएटिव अन्ना का था,  लेकिन बाद में वे ही पीछे हट गए.

हम इसको कैसे देखें… 19 तारीख की बैठक के बाद आपकी इस संबंध में फिर से अन्ना से कोई बात हुई?
उसके बाद तो कोई बात नहीं हुई लेकिन उसके पहले मैं लगातार उनके संपर्क में था. लेकिन उनके निर्णय की वजह क्या रही मैं खुद नहीं समझ पा रहा हूं.

दोनो व्यक्ति मिलकर एक-दूसरे को संपूर्ण बनाते थे. अरविंद की संगठन और नेतृत्व क्षमता और अन्ना की भीड़ को खींच लाने की काबिलियत मिलकर दोनों को संपूर्णता प्रदान करती थी. उनके जाने से इस पर कितना असर पड़ा है? इस नुकसान को कैसे भरेंगे?
अन्नाजी के जाने से नुकसान तो हुआ ही है. इस पर कोई दो राय नहीं है.

कोई संभावना शेष बची है अन्ना के आपसे दुबारा जुड़ने की…
बिल्कुल. अन्ना एक देशभक्त व्यक्ति हैं. देश के लिए जो भी अच्छा काम होता है अन्नाजी उसका समर्थन जरूर करेंगे ऐसा मुझे विश्वास है.

हमारी राजनीतिक व्यवस्था में धनबल और बाहुबल का बहुत महत्व रहता है. उससे निपटने का कोई वैकल्पिक तरीका है आपके पास या फिर उन्हीं रास्तों पर चल पड़ेंगे?
नहीं. उसी को तो बदलने के लिए हम राजनीति में जा रहे हैं. आज की जो राजनीति है वही तो सारी समस्या की जड़ है. आज हमारे सरकारी स्कूल ठीक से काम नहीं कर रहे हैं, सरकारी अस्पतालों में दवाइयां नहीं मिलतीं, सिर्फ इसलिए क्योंकि हमारी राजनीति खराब है. बिजली, पानी, सड़कें ये सब इस अक्षम राजनीति की वजह से ही आज तक खराब बनी हुई हैं. यह तो भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुकी है. पैसे और बाहुबल का जोर है. उसी को बदलने के लिए हम राजनीति में जा रहे हैं.

तो तरीका क्या है? क्योंकि पैसे के बिना तो इतने बड़े देश में आप राजनीति नहीं कर पाएंगे, यह सच्चाई है.
इधर बीच मुझसे कई ऐसे लोग मिले हैं जिन्होंने कम से कम पैसे में चुनाव जीतकर दिखाया है. उन लोगों से हम उनके तरीकों पर विचार करेंगे और उन्हें अपनाने की कोशिश करेंगे.

जैसे… कौन लोग हैं?
जैसे बिहार के विधायक हैं सोम प्रकाश. उन्होंने सिर्फ सवा लाख रुपये खर्च करके चुनाव जीता था. और यह पैसा भी वहां के स्थानीय लोगों ने ही इकट्ठा किया था. ऐसे कई लोग आजकल मुझसे मिल रहे हैं देश भर से. बाला नाम का एक लड़का है जिसने अमेरिका से वापस आकर जिला परिषद का चुनाव जीता है. उसके पास भी पैसा नहीं था. पर उसने जीतकर दिखाया है. ये लोग हमसे जुड़ भी रहे हैं.

तो उम्मीदवारों के चयन की क्या प्रक्रिया होगी? इसी तरह के लोग जुटाए जाएंगे?
हम लोग कई सारे मॉडलों का अध्ययन कर रहे हैं. बहुत सारे सुझाव लोगों की तरफ से भी आए हैं. यह कोई पार्टी नहीं है, यह इस देश के लोगों का सपना है. हमने लोगों से पूछा कि इसका नाम क्या होना चाहिए, उम्मीदवार चयन की प्रक्रिया क्या होनी चाहिए, पार्टी का एजेंडा क्या होना चाहिए आदि. बीस हजार लोगों ने हमें चिट्ठियां भेजी हैं. भारत सरकार ने जब जन लोकपाल बिल पर लोगों से सुझाव मांगे थे तब तेरह हजार सुझाव आए थे. तब सरकार ने अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन भी दिए थे. हमारे पास कोई विज्ञापन मशीनरी नहीं है सिर्फ जुबानी आह्वान पर बीस हजार से ज्यादा सुझाव लोगों के आ गए. ये दिखाता है कि जनता के भीतर इसको लेकर कितना उत्साह है. इन सभी सुझावों को संकलित करके हमने कुछ ड्राफ्ट तैयार किए हैं. दो अक्टूबर को हम यह पहला ड्राफ्ट जनता के सामने रखेंगे. यह एक तरह से पहला ड्राफ्ट होगा जिसे फाइन ट्यून किया जाएगा लोगों के सुझाव के आधार पर.

बार-बार ड्राफ्टिंग-रीड्राफ्टिंग से जनता का उत्साह कम नहीं हो जाएगा? यह हमने जन लोकपाल की ड्राफ्टिंग के समय भी देखा.
जनता तो इसमें इंटरेस्ट ले रही है. जितनी बार हम उनसे राय मांगते हैं, लोग बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. जनता तो नीतियों के बनाने में हिस्सेदारी चाहती है.

पार्टियों के साथ हमने देखा है कि जब चुनाव सिर पर आते हैं तब वे सभी विचारधारा को त्याग कर जाति-धर्म और समीकरणों के आधार पर उम्मीदवार चुनती हैं. ये समस्या आपके सामने भी आएगी. तो इससे निपटने का क्या तरीका होगा आपके पास?
देखिए, जब जन चेतना जागती है तब बहुत सी दीवारें टूटती हैं. जैसे पिछली बार जब अगस्त का आंदोलन चल रहा था तब मुझसे दिल्ली पुलिस का एक कांस्टेबल मिला. उसने मुझे बताया कि मैं पिछले 16 साल से रिश्वत ले रहा था लेकिन पिछले दस दिन से मैंने रिश्वत नहीं ली है. जितने आनंद का अनुभव मैंने इन दस दिनों में किया है वह पहले कभी नहीं किया था. उसके भीतर से ही चेतना जागी. गुड़गांव में एक अल्टो गाड़ी डेढ़ साल पहले चोरी हो गई थी. उस पर अन्ना का स्टीकर चिपका हुआ था. इस बार जुलाई में जब हम अनशन कर रहे थे तब उस व्यक्ति ने कार एक थाने के पास ले जाकर छोड़ दी.कार पर एक चिट लगी थी कि अन्ना की गाड़ी अन्ना को मुबारक. जब जन चेतना जागती है तब यह धर्म-जाति की सारी दीवारें तोड़ देती है. मुझे विश्वास है कि भारत में वह समय आ गया है. ये वर्जनाएं धीरे-धीरे टूटेंगी.

चुनाव से पहले या बाद में किसी पार्टी से गठबंधन करेंगे?
कभी नहीं.

किरण बेदी को लेकर सवाल उठ रहे हैं. शुरुआत से ही वे साथ रही हैं. अब लग रहा है कि वे दुविधा में हैं. अन्ना के साथ भी दिखना चाहती हैं और आईएसी के साथ भी.
उनकी क्या योजनाएं है ये तो उनसे ही पूछना पड़ेगा. इस बारे में वही बता पाएंगी. उनके मन की दुविधा को मैं नहीं समझ सकता हूं.

दुविधा में हैं वो…
निश्चित तौर पर दुविधा में तो हैं. पर उनके प्रश्न आप उन्हीं से पूछें.

आप लोग लंबे समय से साथ रहे हैं, बातचीत के स्तर पर, कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी के स्तर पर आप उन्हें किस दशा में पाते हैं. कुछ तो संकेत मिल रहा होगा..
मैं कैसे बताऊं उनके मन की बात.

तो मैं ये मान लूं कि पहले वाली गरमाहट रिश्तों में नहीं रही?
यह बात तो साफ ही है कि वे राजनीतिक विकल्प के साथ नहीं जुड़ना चाहती. उनके अपने कारण हैं उसके लिए. मैं क्या कहूं.

किरण और अन्ना के अलावा सारे लोग आपकी राय से सहमत हैं…
सारे लोग.

शिवेंद्र सिंह चौहान (जिन्होंने फेसबुक पर पहली बार इंडिया अगेंस्ट करप्शन का पन्ना तैयार किया था) आंदोलन के शुरुआती लोगों में से थे. उनसे आपकी किस बात को लेकर तनातनी हो गई?
मुझे कोई आइडिया नहीं है कि शिवेंद्र क्यों नाराज हैं.

आपने उन्हें मनाने की कोशिश की…
मैंने कई बार कोशिश की.

कोई नाम सोचा है आपने अपनी पार्टी का?
अभी तो कोई नहीं.

अगली गतिविधि क्या होगी?
दो अक्टूबर से पहले 29 सितंबर को एक बार दिल्ली के सारे वॉलेंटियर्स की एक बैठक होगी. यह छोटी सी बैठक है.

जब आप राजनीति में उतरेंगे तो सिर्फ भ्रष्टाचार पर तो राजनीति नहीं होगी. तब आपको कश्मीर से लेकर नक्सलवाद और अयोध्या विवाद जैसे मुद्दों पर एक स्पष्ट राय रखनी पड़ेगी. जो लोग आपका राजनीति में उतरने का समर्थन करते हैं, वही लोग प्रशांत जी के कश्मीर पर विचार का विरोध करते हैं. इनसे कैसे निपटेंगे?
सारे लोग मिलकर बातचीत के जरिए यह बात तय करेंगे. चार लोग बैठकर पूरे देश की नीति तय कर देते हैं. ऐसे ही तो यहां राजनीतिक पार्टियां काम करती हैं. हम सबके साथ बैठकर बात करेंगे कि आखिर देश क्या चाहता है. हम एक ऐसा मंच तैयार करना चाहते हैं जहां सारे लोग बैठकर आपस में मुद्दे सुलझा सकें. किसी मुद्दे पर अगर समाज दो हिस्सों में बंटा है तो उस पर चर्चा होनी चाहिए.

आप किसी पर भरोसा नहीं करेंगे तो कैसे काम चलेगा और जब हम पर्याय देने की बात करते हैं तब लोग कहते हैं कि महत्वाकांक्षी हो गया है. मेरा सवाल है कि देश को पर्याय कहां से मिलेगा और उम्मीद क्या बची है. जो रवैया है राजनीतिक पार्टियों का उससे यह देश बर्बाद नहीं हो जाएगा कुछ दिनों में?

राजनीतिक विकल्प आ जाने के बाद भी क्या आंदोलन किसी रूप में बचा रहेगा या फिर यह खत्म हो जाएगा?
यह आंदोलन ही रहेगा पार्टी नहीं बनेगा. पहले आंदोलन के पास तीन-चार हथियार थे – अनशन एक हथियार था, धरना एक हथियार था, याचिका दायर करना एक हथियार था. अब उसके अंदर राजनीति एक और हथियार जुड़ गया है. मुख्य मकसद आंदोलन ही है, राजनीति एक अतिरिक्त हथियार के तौर पर जुड़ जाएगी.

 (15 अक्टूबर 2011)

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