रंजिश की सियासत का शिकार शहर

विधानसभा चुनावों के करीब 11 महीने बाद दिसंबर, 2019 में राजस्थान के कोटा शहर में 100 नवजात शिशुओं की मौत को लेकर देश भर में जिस तरह ज़बरदस्त सियासी कोहराम मचा, क्या उसके पीछे कोई बड़ी राजनीति थी? कोचिंग की लाइफ लाइन कहा जाने वाला यह शहर करीब एक पखवाड़े तक ऐसा अखाड़ा बना रहा, जहाँ हर कोई अपनी राजनीति चमकाने पर तुला था। गहलोत सरकार पर तमाम तरह की लानत-मलामत बरस रही थी। केन्द्रीय नेतृत्व के निर्देश पर कोटा पहुँची लॉकेट चटर्जी, कांता कर्दम तथा जसकौर मीणा समेत तीन सांसदों की टोली मुख्मयंत्री गहलोत को असंवेदनहीन ठहराने पर तुली थी कि राजस्थान में बच्चों की माँओं के आँसू निकल रहे थे और मुख्यमंत्री झारखंड के जश्न में मस्त दिखे। पूरा तमाशा इस बात को साबित करने पर टिका हुआ था कि अस्पताल में किसी तरह के इंतज़ाम ही नहीं हैं। बच्चे अकाल मौत पर रहे हैं और व्यवस्था बुरी तरह छीज रही है।

राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए प्रियंक कानूग की अगुआई में राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयेाग भी बदइंतज़ामी की घुसपैठ टटोलने में जुटा रहा। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की टीम भी अपने तरीके से अस्पताल की बदहाली को नाप रही थी। उधर लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला दिल्ली में केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कृयाण मंत्री हर्षवद्र्धन तथा केन्द्रीय स्वास्थ्य सचिव प्रीति सूदन समेत उच्चाधिकारियों के साथ ताबड़तोड़ बैठकें कर अपने कोटा संसदीय क्षेत्र के अस्पताल में नवजात शिशुओं की असमय मौत पर चिन्ता जताते हुए सारी व्यवस्थाओं की समीक्षा करने पर दबाव डाले रहे थे। शक-शुबहा में सेंध लगाकर ‘ब्रेकिंग न्यूज’ निकालने की जुगत में तकरीबन सभी खबरिया चैनलों के नुमाइंदे, अस्पताल की सरहद पर मौज़ूद थे। खबरों में हर रोज़ अस्पताल के कथा सूत्र नये सिरे से खुल रहे थे। अस्पताल की खामियों के छोटे-से-छोटे मुद्दों को समेटते कथा सूत्र घर-आँगन, सडक़ों, बाज़ारों और शहरों को पार करते हुए हर ब्रेक के साथ सरकार को कटघरे में खड़ा करते जा रहे थे। प्रदेश में नौनिहालों की अकाल मौतों की घटना कोई नयी नहीं थी। इसका तथ्यगत इतिहास भी उपलब्ध है। सूत्रों का कहना है कि 2.01। में वसुंधरा सरकार के दौरान कोटा और बांसवाड़ा तो बच्चों की असंख्य मौतों का गवाह रहा है। लेकिन केन्द्र सरकार हिली तक नहीं। ऐसी घटनाएँ देश के अन्य हिस्सों में भी उभर रही थी। इसी दिसंबर में गुजरात के राजकोट में 111 और अहमदाबाद में 85 नवजात बच्चों ने दम तोड़ दिया। लेकिन किसका दम खुश्क हुआ? अलबत्ता कहानी कोटा की ही रोमांचक बनी। विश्लेषकों का कहना है कि आिखर क्यों केन्द्र सरकार ने अपने ही मुख्यमंत्री रूपाणी से जवाबतलबी तक नहीं की। अस्पताल की कथित समग्र असफलता का रिपोर्ट कार्ड चाहे जो रहा हो, लेकिन सूत्रों का कहना है कि इस छद्म युद्ध के ज़रिये केन्द्र सरकार की मंशा गहलोत सरकार को घेरने की थी। सूत्रों का कहना है कि भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व रविवार 22 दिसंबर को जयपुर में गहलोत द्वारा सीएए के िखलाफ निकाले गये मार्च से सख्त खफा था  और उन्हें ‘संवेदनहीन मुख्यमंत्री’ साबित करने पर तुला था। कोटा में नौनिहालों की अकाल मौत ने भाजपा नेतृत्व को अनायास ही यह मुद्दा थमा दिया। ‘जाँच की इस सियासत’ में अस्पताल बंदोबस्त में बेशक कोई मज़बूत साक्ष्य नहीं मिले; लेकिन जो मिले वो रुटीन वाले थे और देश के हर अस्पताल में आम तौर पर पाये जाते हैं। इनकी चुभन देश के हर चिकित्सा केन्द्रों में महसूस की जा सकती है। लेकिन खबरिया चैनलों की अंधाधुंध पटाखेबाज़ी ने राज्य सरकार का दामन मैला करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। सनद रहे कि केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की टीम का रिपोर्ट कार्ड बेशक सरकार को तसल्ली देने वाला था कि बच्चों के इलाज को लेकर हमें किसी तरह की लापरवाही नहीं मिली। अलबत्ता इंटेसिव केयर में स्टॉफ ओर डॉक्टरों की कमी राज्य सरकार का मुद्दा है।

चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि शिशुओं का स्वास्थ्य और उनकी मृत्यु दर हर प्रदेश में चिन्ता का सबब रही है। सुधारों की ज़रूरत की समीक्षा करते हुए उन्होंने कहा कि अस्पतालों में पर्याप्त जीवन रक्षक उपकरण उपलब्ध हों। कॉलेज अस्पतालों में आने वाले सभी गम्भीर शिशुओं को फौरन वेंटीलेटर मिले। बच्चों केा अस्पताल में कतार से मुक्ति मिले। अपाइंटमेंट नम्बर का डिजिटल डिस्पले सिस्टम शुरू किया जाए और उपचार अथवा जाँच में एक से अधिक दिन की वेटिंग होने पर वैकल्पिक व्यवस्था की जाए। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि बच्चों की मौत के ऑडिट से ही खामियों से इत्तिफाक हो सकता है। यह बेहतर पड़ताल पर ही निर्भर है। अगर इस मुद्दे को निगहबानी में रखा गया होता, तो गफलत की ज़िम्मेदारी निजी अस्पतालों पर भी हो सकती थी। करीब 55 बच्चे तो मरणासन्न स्थिति में निजी अस्पतालों ने ही जे.के. लोन अस्पताल को रेफर किये थे। क्या निजी अस्पतालों के पास सरकारी अस्पताल के मुकाबले बेहतर उपकरण नहीं थे? उधर मीडिया विश्लेषकों की मानें तो भारत में बीमार स्वास्थ्य क्षेत्र को सेहतमंद बनाने के लिए राजकाज और कायदे कानून की मरम्मत ज़रूरी है। विश्लेषकों का कहना है कि नागरीय सुविधाओं से जुड़े महत्त्वपूर्ण मुद्दों सेहत, सडक़ और शिक्षा, तीनों ही सबसे बड़ी त्रासदी सुधारों का अधूरापन है। इन स्थितियों में असगंतियों को अगर कम नहीं आँका जा सकता, तो क्या इन पर सियासी कोहराम मचाया जाना चाहिए? जबकि विसंगतियाँ ही तो विवादों का परनाला खोलती हैं। कोटा स्थित जे.के. लॉन अस्पताल के मुद्दे को लेकर अगर सियासत की लपटें उठीं, तो क्या इसकी वजह यहीं नहीं थी? लेकिन ऐसा क्यों कर हुआ कि सुॢखया बटोरने की आरजू में सरकार के ही उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट का ही नक्कारखाना गूँज उठा और उन्होंने यह कहकर लपटों को हवा दे दी कि ऐसे संज़ीदा मामले में ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिए? उनका यह कौशल खामियों की दुरुस्ती की तरफ लौटने की बजाय ‘होनी-अनहोनी’ का ठीकरा चिकित्सा मंत्री रघु शर्मा के सिर पर फोडऩे जैसा था।’ विश्लेषकों का तो यहाँ तक कहना था कि पायलट ने बेशक रघु शर्मा को निशाने पर लिया था। लेकिन कुल मिलाकर उनका स्थायी भाव गहलोत गवर्नेंस को खोखले वादों वाली मशीन बताने का छद्म संकेत था। प्रश्न है कि सरकार को सवालों से वेधने के लिए पायलट मृतक शिशुओं के घरों तक भी पहुँचे। मीडिया विश्लेषक प्रांजल सिसोदिया कहते हैं कि क्या यह सरकार को और वेधने की कोशिश नहीं थी? लेकिन केन्द्रीय दल की रिपोर्ट और चिकित्सा मंत्री रघु शर्मा दोनों के सुर एक ही थे कि नवजात शिशुओं की मौत मुख्य रूप से वार्डों के टूटे खिडक़ी दरवाज़ों से दािखल होते सर्द हवाओं के सनसनाते थपेड़ों से हुई। हालाँकि, सुरक्षा उपकरणों की कमी भी एक बड़ी वजह थी। नतीजन रघु शर्मा को खुलकर बोलने का मौका मिला गया कि  अस्पताल में खिड़कियों टूटी पड़ी थी। सिवरेज का पानी आ रहा था। यह काम डॉक्टर तो करेगा नहीं। यह काम तो सार्वजनिक निर्माण विभाग का है। हम चिट्ठियाँ लिखते रहे, लेकिन निर्माण विभाग ने इमारत के दरकने के दर्द को अनसुना कर दिया। हम तो अपनी ज़िम्मेदारी ले रहे थे। उन्हें भी तो अपनी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। यह महकमा तो सचिन पायलट के पास है। वे अपनी ज़िम्मेदारी से मुकर क्यों रहे हैं? इस अलाव में हाथ तापने के लिए काठ की हाँडी भी चढ़ी। जब दो भाजपा विधायकों अशोक डोगरा और चंद्रकांता मेघवाल ने अस्पताल की व्यवस्था में सुधार के लिए विधायक कोष से पाँच लाख देने की घोषणा की। क्या इस पर विश्वास किया जाना चाहिए था? आिखर दोनों बूंदी के विधायक हैं। क्योंकर कोटा में अपनी दरियादिली दिखा सकते थे? जनता क्या इस सियासी पैंतरे पर आँखें मूूँदकर भरोसा कर लेगी? लेकिन राजनीति चमकाने के खुन्नसी मिजाज़ के हवाले होकर जिन लोगों ने कोटा पर कालिख पोतने का काम किया, उन्हें कोई क्यों माफ करेगा? ऐसे मामलों में रफू-पैबंद नाकाफी होते हैं। बवाल पैदा करने वाले तो खिसक लिए, लेकिन भुगतना तो कोटा को ही है।

धारीवाल न थे तो मौका चुना

ताकत, मौका और मनमानी का गठजोड़ सबसे बड़ा खतरा कहा जाता है। सियासत इसको पोसती है। यह गठजोड़ भरोसे को तोडक़र भ्रम की सृष्टि करता है। यह रंज़िश की राजनीति को सर्वशक्तिमान बना देता है। इसके साये में पैदा होने वाले कॉकरोच उसी ठोर को डसते हैं, जहाँ वो रहते हैं। राजनीति विश्लेषकों का कहना है कि कोटा में नवजात मौतों को लेकर ‘झूठ-सच’ के जितने बगूले उठे? उसकी जड़ों में ताकत, मौकों और मनमानी के गठजोड़ का मट्ठा डला हुआ था। राज्य सरकार में कद्दावर मंत्री शान्ति धारीवाल की गैर-मौज़ूदगी शोलों को हवा देने में मुफीद साबित हुई। पारिवारिक वैवाहिक उत्सव के चलते धारीवाल आते, तो कैसे आते? लेकिन मनमानी और ताकत की मांसपेशियाँ फुलाने वालों के लिए यह अचूक मौका था। इस बवंडर के सूत्रधारों की बेचैन निगाहें नवजात मौतों पर संताप को लेकर नहीं थी। दरअसल, उन्हें त्रासदी की ओट लेकर सियासत करनी थी। विश्लेषकों का कहना है कि अगर धारीवाल कोटा में होते अथवा होने की स्थिति में होते, तो यहाँ गुमराह राजनीति के खिलौनों की मजाल नहीं होती…! लेकिन कोटा आकर अस्पताल बंदोबस्त का दौरा करते हुए धारीवाल की नसीहत चतुर-सुजान राजनेता सरीखी कही जाएगी कि राजनीति तो चलती रहती है। लेकिन लापरवाही से किसी की मौत नहीं होनी चाहिए। ये शब्द अस्पताल प्रबंधन में गले में ज़बरन ठूँसे गये अपराध बोध को मिटाने में तो काफी से कहीं ज्यादा ही माने जाएँगे।