‘गर्भवती होने पर’

गर्भवती होना स्त्री के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना होती है.  लेकिन इसको लेकर जो ज्ञान आम  जन को है उसमें पचासों सलाहों, गलतफहमियों, अंधविश्वासों, मूर्खताओं तथा सामाजिक जिदों का ऐसा घालमेल हो गया है कि इसके चलते चाहे जब गर्भवती स्त्री की स्वयं की तथा उसमें पल रहे शिशु की जान तक खतरे में आ सकती है. इसीलिए आज हम गर्भवती स्त्री की देखभाल को लेकर समाज में फैली इन्हीं गलतफहमियों की बातें करेंगे.

पहली गलतफहमी तो यह है कि जब डॉक्टर ने एक बार देख लिया और सब ठीक बता दिया तो उसके पास अब डिलीवरी के समय ही जाएंगे. लेकिन गर्भ के इन नौ माहों में, अंदर ही अंदर बहुत कुछ हो सकता है. डॉक्टर ही जांच करके पकड़ सकता है कि बीपी बढ़ रहा है, गर्भाशय में बच्चा ठीक पोजिशन में है कि नहीं, पेशाब में प्रोटीन तो नहीं आ रहा इत्यादि. तो घर में न बैठे रहें. पहले छह महीने में हर माह, सातवें व आठवें महीने में हर 15 दिन पर तथा आखिरी माह में हर सप्ताह डॉक्टर को दिखाकर उसकी बताई सारी जांचें कराएं.

दूसरी गलतफहमी यह रहती है कि डॉक्टर तो अल्ट्रासाउंड इत्यादि जांचें पैसा कमाने के लिए कराते रहते हैं. पहले के जमाने में बिना इन जांचों के भी हमारी माता जी ने छह बच्चे पैदा किए थे कि नहीं? तब तो डॉक्टर मात्र नाड़ी पकड़कर ही सब जान लेता था… ऐसा नहीं है. पुराने जमाने में कितनी डिलीवरी बिगड़ जाया करती थीं, बच्चे मर जाते थे या विकृत पैदा हो जाते थे. आज अल्ट्रासाउंड मशीन द्वारा डॉक्टर देख सकता है कि बच्चा ठीक साइज का है, प्लासेंटा ठीक जगह है तथा उचित साइज का है, मां के गर्भाशय में उचित मात्रा में ‘एमनिओटिक’ द्रव है आदि. ये सूचनाएं स्वस्थ बच्चा पैदा होने की आश्वस्ति देती हैं. पांचवें माह का अल्ट्रासाउंड (जिसे टार्गेट स्कैन कहते हैं) बताता है कि गर्भ में पल रहे बच्चे में कोई पैदाइशी विकृति तो नहीं हैं. इसी तरह पहले तीन माह में, फिर छह माह तथा आठ माह पर यदि ब्लड शुगर जांच कराने को कहा जाए तो यह न सोचें कि मुझे या मेरे खानदान में तो आज तक डायबिटीज नहीं रही तो मैं यह सब क्यों कराऊं? गर्भ के दौरान होने वाली ‘गेस्टेशनल डायबिटीज’ ऐसे ही पता चलती है और न पता चले तो मां और बच्चे, दोनों को मुसीबत में डाल सकती है.

तीसरी गलतफहमी गर्भावस्था में खानपान को लेकर है. पचासों गलतफहमियां हैं. यह खाओ, इतना खाओ, यह कतई मत खाओ से लेकर स्पेशल किस्म के भोजन तक. कुछ बातें याद रखें. एक तो यह कि भूखे कभी न रहें. तनिक-सी भी भूख लगे तो तुरंत खा लें. थोडा-थोडा करके बार-बार खाते रहें. दो-दो घंटे पर खाएं. अलग से कुछ खाने को नहीं कहा जा रहा. वही दाल, सब्जी, रोटी, चावल, फल. भूख लगेगी तो अंदर पल रहा शिशु भी बेचैन होकर घूमता है जिसे आप लात चलाना कहते हैं. आम तौर पर एक घंटे में शिशु एक-दो बार ही पेट में घूमता है. यानि बच्चा तब भी घूमे तो तुरंत कुछ खा लें. न हो तो ग्लूकोज हीे घोलकर पी लें. यदि बच्चा तब भी बार-बार घूमे तो डॉक्टर को दिखाकर आएं. न घूम रहा हो तब भी. शुरुआत में उल्टियां होने के बावजूद खाना खाते रहें. फल सब््जियां पर्याप्त हैं. दूध भी. हमारे यहंा खाने को लेकर असली परेशानी तो डिलीवरी के बाद होती है. घर वाले ताकत वाले मेवे के लड्डू खिलाने पर जोर देते हैं और खाना रोक देते हैं. डिलीवरी के बाद उसी दिन से वही खाना खाने दें जो हम सब खाते हैं.

चौथी गलतफहमी को हम गलतफहमी न मानकर एक प्रश्न मानते हैं. आजकल प्राय: कामकाजी महिलाएं जब मां बनने वाली होती हैं तो प्रश्न उठता है कि अपने काम का क्या करें. क्या न करें?  इसका जवाब यह है कि पहले तीन माह तक दो पहिया वाहन से जहां तक हो न जाएं. वाहन में किक नहीं मार पाएंगी. कार, आरामदायक बस आदि से आखिरी सप्ताह तक काम पर जा सकेंगी. चौथे-पांचवे माह के बाद कार न चलाएं, स्टियरिंग से फंस कर बढ़े हुए पेट में चोट लग सकती है. दोपहर का खाना खाकर पांव दूसरी कुर्सी पर रखकर दो घंटे दफ्तर में ही आराम करें. बॉस को आपकी आराम की जरूरत को समझना होगा.

­­­पांचवी गलतफहमी यह है कि पोछा, झाड़ू तथा जमीन पर बैठकर ऐसे ही काम करने से पेल्विस की (कमर की) हड्डी में लचक आएगी जिससे नार्मल डिलीवरी की संभावना बढ़ जाएगी. यह गलत है. ऐसे कामों से उल्टा गर्भ को नुकसान पहुंच सकता है. हां खडे़ होकर या किचन के प्लेटफार्म के पास कुर्सी लगाकर बैठे-बैठे सारे काम किए जा सकते हैं.

छठवीं गलतफहमी यह है कि गर्भ के दौरान सहवास (सेक्स) नहीं करना चाहिए. ऐसा नहीं है. हां शुरू के तीन महीने तक संभोग बिल्कुल भी न करें. फिर आराम से कर सकते हैं. उचित तथा आपके पेट पर दबाव न डालने वाले आसन में संभोग करें.

सातवीं गलतफहमी यह है कि आजकल तो डॉक्टरों से बचकर चलना चाहिए वरना फालतू ही सीजेरियन ऑपरेशन कर डालते हैं. ऐसा नहीं है. ज्यादातर डॉक्टर जिम्मेदार और ईमानदार सलाह ही देते हैं. यदि बच्चा गर्भाशय में सिर की जगह ‘ब्रीच प्रेजेंटेशन’ या ‘तिरछा-आड़ा’ फंसा हो, यदि  पेल्विस की हड्डी संकरी हो, यदि बच्चा बड़े साइज का हो, यदि बच्चा अंदर किसी तकलीफ में होने के संकेत दे रहा हो या प्लासेंटा बच्चेदानी के मुंह के पास होने के कारण नार्मल डिलीवरी में बहुत खून बहने का डर हो तो सीजीरियन ऑपरेशन ही करना होगा.