किसान आन्दोलन न उगलते बने, न निगलते

तीन नये कृषि कानून किसान के लिए हितकारी हैं या अहितकारी? इस पर राष्ट्रव्यापी बहस का कोई निष्कर्ष नहीं निकल रहा। प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, भाजपा सांसद, भाजपा शासित राज्य सरकारें इन्हें लम्बी अवधि के लिए किसानों की तकदीर बदलने वाले कानून बता रहे हैं। वहीं विपक्षी दलों की सरकारें और खुद किसान इन्हें काला कानून बता रहे हैं। अर्थशास्त्री भी इन कानूनों पर अलग-अलग राय रखते हैं। कुछ इसे दीर्घकालीन के लिए बहुत अच्छा बताते हैं, तो कुछ इसे रद्द करने के पक्षधर हैं। किसान इन कानूनों पर बहस नहीं चाहते। वे सीधे अन्तिम नतीजे, यानी इन्हें वापस लेने की माँग पर अडिग हैं।

कृषि राज्यों का विषय है; लेकिन केंद्र को इस पर कानून बनाने का अधिकार है। कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य से लेकर भविष्य की नीतियाँ और कानून बनाने का हक उसे हासिल है। केंद्र ने करीब 23 कृषि उत्पादों पर समर्थन मूल्य तय कर रखे हैं; लेकिन विडंबना यह कि गेहूँ और धान (चावल) पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और अपवाद स्वरूप कुछ राज्यों को छोड़कर कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं बिकता।

राजस्थान में इस बार बाजरा की ज़ोरदार फसल हुई है। देश का 41 फीसदी बाजरा इसी राज्य में होता है। इसका समर्थन मूल्य 2150 रुपये है; लेकिन राज्य की किसी भी मंडी में यह इस भाव पर राज्य सरकार नहीं खरीद कर रही। कारोबारी इसे 1300 से 1400 रुपये प्रति कुंतल खरीद रहे हैं। ज़ाहिर है जब सरकार खाद्यान्न की खरीद नहीं करेगी, तो किसान को आधे-अधूरे दाम पर भी बेचना पड़ेगा। कानून तो समर्थन मूल्य से नीचे खरीद पर सज़ा का है; लेकिन सज़ा होती किसी को नहीं है।

राज्य सरकारें केंद्र पर और केंद्र राज्य सरकारों पर ज़िम्मेदारी डाल देती हैं और पिस रहा है अन्नदाता। नये कृषि कानूनों में स्पष्ट है कि किसान देश के किसी भी हिस्से में अनाज बेच सकता है। यह कानून उसे यह अधिकार देता है; लेकिन खरीदने कौन देता है? हरियाणा, मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकारें हैं और केंद्र में भी उसी की सरकार है। लेकिन मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह बाहरी राज्यों के उत्पाद को किसी भी हालत में न बिकने देने की सार्वजनिक घोषणा कर रहे हैं। ऐसा वह समर्थन मूल्य से कम खरीद करके राज्य में समर्थन मूल्य पर बेचने वालों के लिए कहते हैं, तब तो ठीक; और अगर किसानों को रोकते हैं, तो फिर कानून में अधिकार कैसा?

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल तो अपने राज्य के अलावा किसी अन्य राज्य के बाजरे की खरीद न होने देने की बात कहते हैं। पड़ोसी राज्य राजस्थान में बाजरा 1300 से 1400 में बिक रहा है, वहाँ का किसान हरियाणा में बाजरा के समर्थन मूल्य पर उसे नहीं बेच सकता। लगभग सभी फसलों में यही हो रहा है। पंजाब और हरियाणा में धान और गेहूँ समर्थन मूल्य पर बिकता है। नये कृषि कानूनों के तहत क्या भविष्य में यही व्यवस्था रहेगी? दोनों राज्यों के किसान इसी से चिन्तित हैं। अब तक सबसे बड़ा मुद्दा यही रहा है; लेकिन अब तो किसान तीनों कानूनों को वापस लेने की माँग पर अड़ गये हैं। जब तक उनका वश चलेगा, वे इस माँग से पीछे नहीं हटने वाले।

कृषि कानूनों से अलग किसान को अपने उत्पाद का समर्थन मूल्य हर हालत में मिलना चाहिए, जो मिल नहीं रहा है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारें समर्थन मूल्य वाले सभी 23 उत्पादों की पूरी तरह से खरीद नहीं कर सकतीं। केंद्र सरकार 25 से 30 फीसदी से ज़्यादा खरीद की इच्छुक नहीं दिख रही। बल्कि वह इस खरीद से भी पल्ला झाडऩा चाहती है। यह काम बड़े कॉर्पोरेट घरानों को सौंपना चाहती है। असमंजस यह है कि सरकार एक तरफ मंडी सिस्टम को मज़बूत करने की बात कह रही है, वहीं दूसरी तरफ फसल को खेत से खरीद की बात भी कहती है। फिर मंडी सिस्टम कितने राज्यों में ठीक से चल रहा है? कुछ राज्यों को छोड़ दें, तो वर्षों से कारोबारी मनमाने भाव पर खरीद कर रहे हैं। किसान की अपनी मजबूरी है। पर केंद्र की क्या मजबूरी है? जो वह किसान की ऐसी हालत होने दे रहा है।

कृषि कानूनों पर किसान आन्दोलन को राज्यों के मुख्यमंत्री अलग-अलग तरीके से आँक रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह इन्हें काला कानून बता रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल भी यही उपमा दे रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कृषि कानूनों को किसानों के लिए बेहद हितकारी बता रहे हैं, वहीं पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इसे किसानों का बेड़ा गर्क करने वाला बताते हैं। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर इसे क्रान्तिकारी बता रहे हैं, तो राजस्थान के मुख्यमंत्री इसे किसानों के लिए अहितकारी बता रहे हैं। मनोहर लाल खट्टर और उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला तो न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने पर कुर्सी छोडऩे की बात करते हैं। लेकिन बात गेहूँ और धान की नहीं, सभी 23 कृषि उत्पादों की है, जिनके समर्थन मूल्य समय-समय पर तय किये जाते हैं।

राजनीतिक दल किसानों को वोट बैक के तौर पर देखते हैं। उनकी माँगों का समर्थन करना उनकी मजबूरी भी है। मौज़ूदा आन्दोलन में भी खूब राजनीति हो रही है। केंद्र सरकार इसे विपक्ष का प्रायोजित खेल बता रही है, वहीं विपक्ष केंद्र सरकार और भाजपा को अपने गिरेबान में झाँकने कह रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर तीनों कानूनों की प्रतियाँ फाड़कर केंद्र सरकार को कृषि कानूनों पर एक तरह से लानत भेजने का संदेश दिया। वे अपने को किसानों का हितैषी कहते हैं, पर कौन नहीं जानता कि पंजाब में किसानों के वोट बैंक पर उनकी भी नज़र है। इस मुद््दे पर पंजाब कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल (शिअद) और आम आदमी पार्टी में किसानों का सबसे ज़्यादा हमदर्द बनने की जैसे होड़ लगी है।

केंद्र सरकार के तीन कृषि कानून उसके गले की फाँस बन गये हैं। हालत कुछ न निगलते बने न उगलते जैसी ही है। सरकार के हरसम्भव प्रयास के बावजूद किसान कानूनों के रद्द करने पर ही अडिग हैं; जबकि सरकार उचित संशोधनों से आगे नहीं बढऩा चाहती। सुप्रीम कोर्ट ने भी चिंगारी से शोले बने इस किसान आन्दोलन को राष्ट्रीय मुद्दा बताया है; जिसका तुरन्त कोई-न-कोई समाधान निकालने की बात कही है। कई दशकों बाद यह पहला बड़ा किसान आन्दोलन है, जिसमें वह केंद्र सरकार को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि कानून किसानों पर ऐसे नहीं थोपे जा सकते।

नागरिकता कानून, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाने और तीन तलाक जैसे कानूनों पर विरोध ज़रूर हुआ; पर कोई राष्ट्रव्यापी मुद्दा नहीं बन सका। तो क्या माना जाए कि केंद्र ने इसे मुद्दा बनने दिया, जिसकी वजह से यह जन आन्दोलन खड़ा हुआ। केंद्र ने किसानों के विरोध को बेहद हल्के में लिया। शुरू में किसान यूनियनें तीनों बिलों के नहीं, बल्कि कुछ ही प्रावधानों के खिलाफ थी, जिसमें सबसे बड़ी बात न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी थी। सितंबर-अक्टूबर में जब पंजाब और हरियाणा में आन्दोलन की सुगबुगाहट शुरू हुई थी, तभी केंद्र सरकार पहल कर किसान संगठनों से संवाद करती, तो आज जैसी स्थिति की नौबत नहीं आती। ऐसी स्थिति के लिए केंद्र सरकार ज़िम्मेदार है। किसान संगठन के प्रतिनिधि कृषि मंत्री से बात करके कोई-न-कोई समाधान निकालने के इच्छुक थे; लेकिन उन्हें कोई आमंत्रित नहीं कर रहा था। फिर बुलाया, तो केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर बैठक में शामिल नहीं हुए। अधिकारियों से बातचीत विफल रही और उसके बाद किसान संगठनों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं, बल्कि तीनों कानूनों को ही वापस लेने की माँग खड़ी कर दी। इसके बाद हवा बन गयी कि बिना कानूनों को वापस लिये या रद्द किये बिना कोई राह निकलनी असम्भव है।

पाँच दौर की बातचीत में आखिर क्या नतीजा निकला? सरकार हर ऐतराज़ पर संशोधन करने पर सहमत है; लेकिन वह कानूनों को स्थगित या रद्द करने के बिल्कुल पक्ष में नहीं है। उधर, किसान इससे कम पर राज़ी नहीं हो रहे, तो क्या आन्दोलन इसी तरह महीनों चलता रहेगा? किसान तो सम्भव है लम्बी तैयारी करके आये हों, पर सरकार तो नहीं। आन्दोलन जितना लम्बा चलेगा, उतना मज़बूत होगा और केंद्र सरकार के लिए उतनी ही ज़्यादा मुसीबतें होंगी। किसानों के दिल्ली कूच से पहले कमज़ोर पड़ चुका आन्दोलन इतना बड़ा कैसा हो गया? क्योंकि यह जनान्दोलन में बदला और हर वर्ग का समर्थन इसे मिलने लगा।

सरकार बातचीत से समस्या का समाधान करना चाहती है, जबकि किसान संगठनों को इस रास्ते से मंज़िल मिलनी मुश्किल लग लग रही है। फिलहाल आन्दोलन में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तरी प्रदेश के किसान ही ज़्यादा हैं। लेकिन देश भर के किसान इसमें आने शुरू हो गये हैं। किसान संगठन इसे राष्ट्रव्यापी बनाना चाहते हैं, जिसकी उम्मीद बढ़ रही है। भारतीय किसान यूनियन (हरियाणा) के प्रमुख नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी कहते हैं, तीनों काले कानूनों से पंजाब और हरियाणा का किसान ही नहीं, बल्कि देश के हर राज्य का किसान प्रभावित होगा। केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की गांरटी लेने की बात कहती है, लेकिन वह मिल कहाँ रहा है?

बिहार में धान समर्थन मूल्य से 400-500 रुपये नीचे बिकता है, तो क्या वहाँ के किसानों को हमारा साथ नहीं देना चाहिए? किसी भी राज्य की बात कर लें, न्यूनतम समर्थन मूल्य की कहीं कोई गारंटी नहीं है; वह केवल कागज़ों में है। हम तीनों कानूनों को रद्द करने की माँग के साथ समर्थन मूल्य पर किसान का उत्पाद हर हालत में बिके इसके लिए कानून चाहते हैं। कृषि कानूनों पर केंद्र सरकार अब बचाव की मुद्रा में है; जबकि अन्नदाता अब भारी पडऩे लगा है। अहिंसा के रास्ते पर चला आन्दोलन सफल रहेगा, इसकी उम्मीद बहुत ज़्यादा है।

पगड़ी सँभाल जट्टा

तीनों नये कृषि कानूनों पर किसानों का यह आन्दोलन वर्ष 1907 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आन्दोलन सरीखे जैसा है। तब भी अंग्रेज सरकार दोआब बारी एक्ट, पंजाब लैंड कोलोनाइजेशन एक्ट और पंजाब लैंड एलाइनेशन एक्ट लेकर आयी थी। इसका घोर विरोध हुआ था। इसकी अगुवाई भी आज़ादी से पहले के पंजाब ने की थी। तब लायलपुर (अब फैसलाबाद, पाकिस्तान) में इसकी शुरुआत शहीद भगतसिंह के चाचा अजीतसिंह ने की थी। अंग्रेज सरकार इस आन्दोलन से इतनी डरी कि उसने अजीत सिंह को 40 साल के लिए देश निकाला दे दिया। बाहर रहकर भी उन्होंने आन्दोलन को समर्थन दिया। आखिरकार अंग्रेजों को उक्त तीनों कानून वापस लेने पड़े। अजीत सिंह 1957 में वतन लौटे, लेकिन तब तक देश आज़ाद हो चुका था। तब संयुक्त पाकिस्तान के झंग स्याल नामक अखबार के सम्पादक बाँके दयाल ने पगड़ी सँभाल जट्टा गीत लिखा था, जो आन्दोलन का मुखर गीत बना। आन्दोलन पगड़ी सँभाल जट्टा के नाम से मकबूल हुआ। बाद में गीत कई फिल्मों में शामिल हुआ; क्योंकि इसके बोल बड़े ही क्रान्तिकारी हैं-

‘पगड़ी सँभाल जट्टा

पगड़ी सँभाल ओए…

तेरा लुट न जाए माल ओए

ओ जट्टा पगड़ी सँभाल ओए

तोड़ गुलामी की ज़ंजीरे, बदल दे तू अपनी तकदीरें…।’