इंडियन मुजाहिदीन : आतंक और गुत्थी

इंडियन मुजाहिदीन इस देश के लिए जितना बड़ा खतरा है उतनी ही जटिल पहेली भी. एक ऐसी पहेली जिसे सुलझाने की सुरक्षा एजेंसियों की कवायद उसे और उलझाती हुई लगती है. बीते जून के आखिर में गुजरात पुलिस ने इस संगठन के एक अहम सदस्य  दानिश रियाज से पूछताछ की रिपोर्ट जारी की थी. रांची के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर 29 वर्षीय रियाज को क्राइम ब्रांच ने 22 जून को बड़ोदरा रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार किया था. वह सिकंदराबाद-राजकोट एक्सप्रेस में सवार था. उस पर आरोप था कि 2008 में दिल्ली और अहमदाबाद में हुए विस्फोटों के कथित मास्टरमाइंड अब्दुल सुभान कुरैशी को उसने रांची में पनाह दी थी. पूछताछ के दौरान रियाज ने बताया था कि संगठन से जुड़े तमाम लोगों के जेल में होने या फिर नेपाल और पाकिस्तान भाग जाने के चलते इंडियन मुजाहिदीन फिलहाल काफी पस्त हालत में है. उसने यह भी कहा कि कुछ ही सदस्यों के बचे होने के चलते संगठन के लिए खुद को सक्रिय बनाए रखना और अपनी गतिविधियों के लिए पैसे इकट्ठा करना काफी मुश्किल हो गया था.

2008 में सुरक्षा एजेंसियों को पहली बार अहसास हुआ कि आतंकवाद अब घर में भी पनप चुका है

लेकिन मुंबई बम धमाकों के बाद आ रही खबरों पर यकीन किया जाए तो अब रियाज ने पूछताछ करने वाले अधिकारियों को बताया है कि 2008 के बटला हाउस एनकाउंटर के बाद  इंडियन मुजाहिदीन के जो सदस्य देश से बाहर निकलने में सफल रहे थे वे अब तालिबान के संपर्क में हैं और सऊदी अरब व पाकिस्तान में ट्रेनिंग हासिल कर रहे हैं. इंडियन मुजाहिदीन के पस्त हालत में होने के उसके पिछले बयान से यह आश्चर्यजनक रूप से भिन्न है. अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर सुधीर सिन्हा ने तहलका को बताया कि अभी तक रियाज ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा है, जिससे उसका संबंध मुंबई विस्फोटों से जोड़ा जा सके. सिन्हा का कहना था, ‘लेकिन हां, पूछताछ के दौरान हमें यह जरूर पता चला कि लोग कैसे भर्ती किए जाते हैं और इनके काम करने का तरीका क्या है. मुझे नहीं लगता कि उस पर इस मामले में सीधे आरोप लगाए जा सकते हैं.’

दानिश, सुभान और इंडियन मुजाहिदीन से जुड़े ज्यादातर लोगों में एक खास बात है. दिखने और जीवनशैली के मामले में वे उन खांचों में फिट नहीं होते जिनमें आम तौर पर एक आतंकवादी को रखकर देखा जाता है.   वे आधुनिक कपड़े पहनते हैं, अंग्रेजी बोलते हैं और दूसरे शब्दों में कहा जाए तो किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने वाले किसी प्रोफेशनल जैसे दिखते हैं. 2008 में देश भर में हुए बम विस्फोटों के बाद इंडियन मुजाहिदीन के सदस्यों को पहली बार गिरफ्तार करने वाले मुंबई एटीएस के मुखिया स्वर्गीय हेमंत करकरे उन्हें देखकर हैरान थे. उन्होंने इस संवाददाता से कहा था, ‘इन्हें देखकर कौन कहेगा कि ये आतंकी हो सकते हैं. इनकी पृष्ठभूमि देखिए. इनकी पढ़ाई-लिखाई का शानदार रिकॉर्ड किसी को भी हैरान कर सकता है.’

इस तरह देखा जाए तो इंडियन मुजाहिदीन की कहानी सुरक्षा तंत्र के लिए एक पहेली है. इसलिए क्योंकि इससे जुड़े लोग इस्लाम की वहाबी या सलाफी शाखाओं को मानने वाले मदरसों में पढ़े कट्टरपंथी की छवि में फिट नहीं बैठते. न ही वे गरीब और पिछड़ी पृष्ठभूमि वाले परिवारों से आते हैं. वे ऐसे बेरोजगार मुसलिम नौजवान नहीं हैं, जिनका पालन-पोषण गरीब और बड़े परिवारों में हुआ हो और वे कुछ पैसों के लालच में आईएसआई एजेंटों के बहकावे में आ गए हों.

सिमी के इन सदस्यों का परिचय आमिर रजा से किसने कराया और इंडियन मुजाहिदीन कैसे बना?

2008 में गिरफ्तार किए गए इंडियन मुजाहिदीन के सदस्यों में से ज्यादातर कट्टर नहीं थे. उनका रिकॉर्ड बताता था कि उनकी शिक्षा सामान्य पब्लिक या कॉन्वेंट स्कूलों में हुई है. बल्कि इंडियन मुजाहिदीन में आने से पहले इनमें से ज्यादातर को इस्लामी विचारों और सिद्घांतों के बारे में खास पता भी नहीं था. इंडियन मुजाहिदीन में आने के बाद भी उनके जुनून की मुख्य वजह पूरी दुनिया में जेहाद करने वाली विचारधारा की बजाय 2002 के गुजरात दंगों और बाबरी मस्जिद विध्वंस का बदला लेना रही.
बटला हाउस एनकाउंटर में मारा गया आतिफ अमीन इंडियन मुजाहिदीन के संस्थापकों में से एक था. उसकी एक गर्लफ्रेंड भी थी. एनकाउंटर से एक दिन पहले इंडियन मुजाहिदीन के 12 सदस्य बटला हाउस अपार्टमेंट में इकट्ठा हुए थे और रात के खाने के लिए उन्होंने पिज्जा और कोक जैसी पाश्चात्य चीजें मंगाई थीं. उनमें से ज्यादातर सोशल नेटवर्किंग साइटों पर भी सक्रिय थे. बाद में उनके ट्विटर और फेसबुक अकाउंट उनसे जुड़ी सूचनाओं के महत्वपूर्ण स्रोत साबित हुए.

2005 में दिल्ली में दीवाली के दिन हुए विस्फोटों से लेकर 2008 के दिल्ली विस्फोटों तक की सारी घटनाएं कॉलेज के छात्रों, सॉफ्टवेयर इंजीनियरों, मैकेनिकों, डॉक्टरों, शिक्षकों और छुटभइये अपराधियों द्वारा अंजाम दी गईं. हर विस्फोट के बाद उनमें से ज्यादातर अपने सामान्य काम-काज में लग जाते थे. छात्र अपनी पढ़ाई में, प्रोफेशनल अपनी नौकरी में और कारोबारी अपने धंधे में.
इन सभी को आपस में जोड़ने वाली एक ही चीज थी-भारतीय समाज से अलग-थलग पड़ने का अहसास और सरकारी तंत्र से घृणा. बड़ी हद तक इसकी वजह मुसलिम-विरोधी दंगों में व्यवस्था की हिस्सेदारी भी थी जो कुछ हद तक वास्तविक थी और कुछ हद तक काल्पनिक.

कुछ सालों पहले तक तक जब बात विस्फोटों के सूत्र तलाशने की हो तो भारत में आतंकवाद-विरोधी एजेंसियों कुछ तय गतिविधियों तक ही सीमित रहती थीं. मसलन कश्मीरी आतंकवादियों और पाकिस्तान में उनके आकाओं के बीच होने वाली बातचीत और ई-मेलों का आकलन करना. या फिर ढाका या नेपाल में अपने कारिंदों से आईएसआई एजेंटों की बातचीत के टेपों और पाकिस्तान या बांग्लादेश की सीमा पर गिरफ्तार घुसपैठियों की पूछताछ की रिपोर्टों का विश्लेषण करना. आतंकवाद-विरोधी कवायदों के केंद्र में पाकिस्तान और वहां से काम कर रहे आतंकवादी संगठन थे. वैसे कभी-कभी उनके कुछ भारतीय सहयोगियों की पहचान और गिरफ्तारियां भी होती रही लेकिन ऐसे लोग चंद पैसों के लिए सामान या सूचनाएं पहुंचाने के काम तक ही सीमित रहे.

2006 में मुंबई में हुए सीरियल बम धमाकों के मामले में सात अज्ञात और काल्पनिक पाकिस्तानी नागरिकों के साथ-साथ स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) के कुछ पुराने सदस्यों पर भी मुकदमा चलाया गया. महाराष्ट्र पुलिस ने सिमी के सदस्यों पर आरोप लगाया था कि उन्होंने अज्ञात पाकिस्तानी आतंकवादियों को मदद पहुंचाई है.

पूर्व सिमी सदस्यों के फिर से इकट्ठा होने की गतिविधियों की निगरानी हो रही थी तो कोई पूर्व संकेत क्यों नहीं मिले?

लेकिन 2008 में इंडियन मुजाहिदीन के सामने आते ही भारत में इस्लामी आतंकवाद का परिचय बदल गया. बटला हाउस एनकाउंटर के बाद सुरक्षा एजेंसियों को अहसास हुआ कि पड़ोस से आने के साथ-साथ अब आतंकवाद घर में भी पनप चुका है.
इस आतंकी संगठन के केंद्र में जो नौजवान थे उन्हें पाकिस्तान की आईएसआई की तरफ से कुछ पैसों और संसाधनों की सहायता जरूर मिली थी लेकिन वे सीमा पार से किसी आतंकी संगठन के रिमोट द्वारा संचालित नहीं थे. लश्कर-ए-तैयबा और आईएसआई से जुड़ाव उनकी रणनीति के लिए जरूरी था, मगर उनके वजूद के लिए इसकी कोई अनिवार्यता नहीं थी. नयी पीढ़ी के इन जेहादियों का न तो कोई आपराधिक रिकॉर्ड था और न ही कट्टरपंथ की ओर ही कोई झुकाव. इसलिए ये बगैर किसी शक को जन्म दिए अपना काम करते रहे. सुरक्षा एजेंसियां अंधेरे में तीर चलाती रहीं और हर आतंकी हमले के बाद बांग्लादेश के हूजी और पाकिस्तान के लश्कर-ए-तैयबा का नाम उछलता रहा.

कम से कम तीन बड़े आतंकी हमले ऐसे थे (2005 में दिल्ली में दीवाली पर हुए विस्फोट,  2006 में बनारस में हुए धमाके और  7/11 मुंबई ट्रेन विस्फोट) जिनके बारे में सुरक्षा एजेंसियां गलत साबित हुईं. दीवाली विस्फोट मामले में एक कश्मीरी आतंकवादी और बनारस विस्फोट मामले में हूजी से संबंध रखने वाले एक मौलवी को अभियुक्त बनाया गया था. जबकि 7/11 विस्फोट के मामले में एजेंसियों ने सिमी के कुछ पूर्व सदस्यों को अभियुक्त बनाया था. बाद में जांच से पता चला कि इन तीनों ही विस्फोटों के पीछे इंडियन मुजाहिदीन का हाथ था. पहले इसे लेकर कैसे सतही आकलन हो रहे थे इसकी एक बानगी उस बयान से मिलती है जो 2008 के अहमदाबाद विस्फोटों के अभियुक्तों की गिरफ्तारी की घोषणा करते हुए तत्कालीन गुजरात पुलिस कमिश्नर पीसी पांडे ने दिया था. उनका कहना था, ‘आप सिमी (SIMI) से एस और आई हटा दीजिए और यह इंडियन मुजाहिदीन (IM) बन जाता है.’
लेकिन बात इतनी सरल नहीं है. अपने संस्थापकों की तरह ही इंडियन मुजाहिदीन भी एक जटिल सांप्रदायिक ताने-बाने की पैदाइश है.

इंडियन मुजाहिदीन लगभग तभी बना था जब दक्षिणपंथी हिंदू आतंकवादी संगठन अभिनव भारत बना था. दोनों संगठनों के मूल में नफरत है. जहां अभिनव भारत का लक्ष्य हिंदू राष्ट्र था वहीं इंडियन मुजाहिदीन का मकसद कथित तौर पर भारतीय मुसलमानों के खिलाफ होने वाली ज्यादतियों का बदला लेना था. इसका संस्थापक आमिर रजा खान था जिसे जैश-ए-मोहम्मद का करीबी माना जाता है. उसके भाई आसिफ ने अपहरण के मामलों को अंजाम देने के लिए एक छुटभइये अपराधी आफताब अंसारी से हाथ मिला लिया. दोनों ने मिलकर 2000 में भास्कर पारेख के पुत्र और कोलकाता के व्यवसायी पार्थो रॉय बर्मन का अपहरण भी किया. ये मामले काफी चर्चित रहे थे. एक सीबीआई रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि फिरौती में मिले चार करोड़ रुपयों का एक चौथाई हिस्सा मुल्ला उमर के जरिए मोहम्मद अत्ता को 9/11 के अमेरिकी हमले करने के लिए दिया गया था. रकम के कुछ हिस्से का इस्तेमाल संसद पर हमला करने के लिए किया गया.

जो लोग जेल में बंद हैं उनसे भी ऐसी कोई सूचना नहीं निकाली जा सकी है जिससे नये हमलों को रोका जा सके

2002  में राजकोट में आसिफ रजा खान के एनकाउंटर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अहमदाबाद के एक उच्च पुलिस अधिकारी के मुताबिक यह संभव है कि मुल्ला उमर, आफताब अंसारी और आसिफ एक-दूसरे को जानते रहे हों. क्योंकि 1996 से 2000  के बीच तीनों तिहाड़ जेल की एक ही कोठरी में कैद रहे थे. आसिफ की गिरफ्तारी आरडीएक्स रखने के एक मामले में हुई थी जबकि अंसारी हत्या और मुल्ला उमर कुछ पश्चिमी पर्यटकों के अपहरण के आरोप में गिरफ्तार हुआ था. बाद में उमर को आईसी-814 के यात्रियों के बदले भारत सरकार ने कांधार में छोड़ दिया था. उमर को 2002 में अमेरिकी रिपोर्टर डेनियल पर्ल की हत्या के लिए मौत की सजा सुनाई गई.

आमिर रजा खान ने आफताब अंसारी के साथ 2002 में कोलकाता के अमेरिकन सेंटर पर अपने भाई की मौत का बदला लेने के लिए फायरिंग की. इसे इंडियन मुजाहिदीन द्वारा किया गया पहला हमला माना जाता है. हालांकि संगठन ने इसकी जिम्मेदारी नहीं ली.
उधर, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से लॉ ग्रेजुएट आफताब अंसारी का विवाह पाकिस्तानी महिला से हुआ है और उसके अंडरवर्ल्ड से मजबूत संबंधों की बात कही जाती है. अमेरिकन सेंटर पर फायरिंग के मामले में उसे गिरफ्तार कर लिया गया था और 2002 से वह कोलकाता में हिरासत में है. आफताब को हूजी के साथ बहुत करीब से काम करने के लिए जाना जाता है. उस पर भारत और नेपाल दोनों जगहों की गतिविधियों की जिम्मेदारी थी.

सादिक इसरार और अहमद बाशा की स्वीकारोक्तियों के अनुसार 2002 में ही आमिर ने सिमी के पूर्व सदस्यों के साथ संपर्क साधना शुरू किया था. ये दोनों दक्षिण भारतीय मुसलमानों के बाहुल्य वाले मुंबई के उपनगरीय इलाके टुर्भे के चीता कैंप के रहने वाले हैं. लेकिन अहम सवाल यह है कि सिमी के इन सदस्यों का परिचय आमिर रजा से किसने कराया और इंडियन मुजाहिदीन कैसे बना? यहां एक महत्वपूर्ण लिंक बनता दिखाई पड़ता है. खुफिया एजेंसियों के अनुसार रियाज और इकबाल शाहबंदरी भाइयों ने आमिर का परिचय 1993  के मुंबई दंगों के बाद बने संगठन सिमी से कराया. शाहबंदरी भाइयों को आजकल भटकल ब्रदर्स के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि ये कर्नाटक के भटकल कस्बे के निवासी हैं. इन भाइयों को ही इंडियन मुजाहिदीन के सबसे महत्वपूर्ण चेहरे के बतौर देखा जाता है.

रियाज अपने दोस्तों को बताता था कि सिमी बिना रीढ़ का संगठन है. कहा जाता है कि वह दूसरे युवाओं को सिमी के खिलाफ कर रहा था. उसका भाई इकबाल  हकलाता था और मुंबई में इत्र बेचता था. व्यवसायी परिवार से ताल्लुक रखने वाले भटकल ब्रदर्स बहुत धार्मिक नहीं थे. उनका एक दोस्त बताता है, ‘वे जींस पहनने वाले आम लड़के थे जो न तो दाढ़ी रखते थे और न ही नमाज पढ़ते थे. हकीकत तो यह है कि उनका मजहब से कोई खास लेना-देना ही नहीं था.’

सुरक्षा एजेंसियों के मुताबिक 2003 तक भटकल ब्रदर्स इंडियन मुजाहिदीन के ज्यादातर सदस्याओं के संपर्क में आ चुके थे. वे सिमी के मातृ संगठन जमात-ए-इस्लामी से नाराज थे कि वह उतना कट्टर नहीं है जितना उसे होना चाहिए. वे इस बात से भी नाखुश थे कि गुजरात दंगों के अपराधी खुले घूम रहे हैं. जल्दी ही एक योजना बना ली गई. सादिक शेख (मुंबई ट्रेन धमाकों का मुख्य अभियुक्त जो अभी जेल में है) और अब्दुल सुभान कुरैशी उर्फ तौकीर को हैदराबाद, आजमगढ़, मुंबई और अहमदाबाद के मुसलिम बहुल इलाकों से कुछ नौजवानों को चुनने की जिम्मेदारी दी गई. बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगों का बदला सबका साझा लक्ष्य बन गया था.

2007 में धमाके शुरू हुए. इंडियन मुजाहिदीन अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ रहा था. आरोप पत्र बताते हैं कि बटला हाउस एनकाउंटर में मारा गया आतिफ अमीन और उसके आजमगढ़ माड्यूल ने लोग मुहैया कराए, सादिक शेख ने संपर्क साधने वाले की जिम्मेदारी निभाई, इकबाल भटकल ने मीडिया सेल की जिम्मेदारी ली और रियाज भटकल ने बम बनाने के सामान और विस्फोटक मुहैया कराए. अलग-अलग ब्रिगेड बनीं. दक्षिण में हमले के लिए शहाबुद्दीन ब्रिगेड, उत्तर के लिए मोहम्मद गजनवी ब्रिगेड और वीवीआईपी पर हमलों के लिए शहीद अल-जरकावी ब्रिगेड. अभियुक्तों के बयानों और दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल, मुंबई की एटीएस, जयपुर की एसआईटी और आंध्र प्रदेश के ऑक्टोपस द्वारा जमा किए गए आधिकारिक दस्तावेजों के अनुसार आंकड़े इस तरह हैं- लुंबिनी पार्क और गोकुल चाट भंडार विस्फोट हैदराबाद ( 25 अगस्त, 2007), उत्तर प्रदेश की अदालतों में विस्फोट (20 नवंबर, 2007), जयपुर विस्फोट (13 मई, 2008), बेंगलुरु विस्फोट (25 जुलाई, 2008), गुजरात विस्फोट (26 जुलाई, 2008) और सितंबर, 2008 के दिल्ली विस्फोटों में 215  से अधिक लोग मारे गए. इन सभी विस्फोटों का आरोप इंडियन मुजाहिदीन पर है.

तब से पूरे देश में 65 लोगों की गिरफ्तारियां हुई हैं और उनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए गए हैं. करीब 50 लोग अभी भी फरार हैं. और करीब 1,000 लोग गवाही दे चुके हैं. सभी विस्फोटों में अमोनियम नाइट्रेट और सेलफोन अलार्म का इस्तेमाल हुआ. हाल के मुंबई विस्फोटों में भी ऐसा ही किया गया. लेकिन इस बार ई-मेल नहीं आए. इससे पहले तक विस्फोट के ठीक बाद किसी असंदिग्ध नागरिक के वाई-फाई अकाउंट को हैक करके ई-मेल भेजा जाता रहा था कि ‘हम इंडियन मुजाहिदीन के लोग इस हमले की जिम्मेदारी लेते हैं. यह देश में पुलिस की बर्बर गिरफ्तारियों और अन्याय को हमारा जवाब है.’

दो साल पहले तहलका को गुजरात बम विस्फोट केस के मुख्य गवाह ने, जिसकी गवाही के आधार पर  पुलिस ने 22 लोगों को गिरफ्तार किया था, बताया था कि इस मामले में उसकी गवाही पर गिरफ्तार किए गए ज्यादातर लोग बेगुनाह थे और ब्लास्ट में बाहर से आए मुस्लिम नौजवानों का हाथ था. तहलका ने इसकी तहकीकात के लिए साबरमती जेल में बंद आरोपितों से बात कर इसकी पुष्टि भी की थी. इसके बाद ही हमने सवाल उठाया कि अगर खुफिया विभाग पुराने सिमी सदस्यों पर निगरानी रख रहा था तो ये लोग विस्फोट करवाने में कैसे सफल रहे.

वही सवाल अब भी उठाया जा सकता है. मुंबई पुलिस ने इंडियन मुजाहिदीन के दो कथित सदस्यों को कुछ समय पहले हिरासत में लिया था. उनमें से एक, फैज उस्मानी की पिछले पखवाड़े पुलिस हिरासत में मौत हो गई (बॉक्स देखें). पूछताछ करने वाली एजेंसियों का मानना है कि फैज अपने भाई इकबाल उस्मानी, जो अहमदाबाद विस्फोट में शामिल होने की वजह से जेल में है, और रियाज भटकल के लिए काम करता था. अगर ऐसा था तो एजेंसियों के पास हालिया मुंबई धमाकों से पहले कोई सूचना क्यों नहीं थी? सादिक शेख भी हिरासत में है और उससे मिली जानकारी से भी दूसरों तक पहुंचा जा सकता था. तालिबान और पाकिस्तान को गुप्त सूचनाएं देने के इल्जाम में पिछले महीने गुजरात पुलिस द्वारा धरे गए दानिश रियाज से सूचनाएं क्यों नहीं निकाली गईं? पांच से 18 जून तक मध्य प्रदेश एटीएस ने भी इंडियन मुजाहिदीन के 18 सदस्यों को पकड़ा था. और अगर पूर्व सिमी सदस्यों के फिर से इकट्ठा होने की गतिविधियों की भी निगरानी हो रही थी तो कैसे कोई पूर्व संकेत नहीं मिल पाए?

तहलका ने जब 2009 में इंडियन मुजाहिदीन के बारे में जानकारी जुटाने के लिए एजेंसियों और पकड़े गए लोगों से तीन राज्यों में जाकर बात की थी तो ऐसा नहीं लगा था कि सिमी का इनसे कोई संबंध हो. सभी कथित सदस्य 20 से 30 साल के बीच के धार्मिक युवा थे. पुणे में इनमें से ज्यादातर वहां की कुरान फाउंडेशन का हिस्सा थे, सूरत में खिदमत ग्रुप के. दिल्ली में ये लोग आतिफ अमीन के करीबी दोस्त थे और आंध्र प्रदेश में सरानी नाम के एक ग्रुप का हिस्सा जिसे तकनीक में दिलचस्पी रखने वाले युवाओं ने बनाया था. कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि ये लोग पैसे के प्रलोभन में कुछ कर रहे हैं या फिर इनके पास कहीं से पैसा आ रहा है. ज्यादातर ने अपना मकसद सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना बताया. बाबरी मस्जिद, चेचन्या और फिलिस्तीन इनके लिए पैमाने थे. इन नौजवानों ने खुद ये त्रासदियां नहीं झेली थीं मगर वे पीड़ितों से सहानुभूति रखते थे. 

ऐसा भी लगता है कि गिरफ्तार किए गए ज्यादातर लोग वे हैं जो इंडियन मुजाहिदीन में बहुत निचले स्तर पर काम करते हैं या फिर उन्हें आरोपितों को शरण देने के लिए गिरफ्तार किया गया. रियाज, यासीन और इकबाल भटकल, आमिर राजा खान, आलमजेब अफरीदी और सुभान कुरैशी जैसे मुख्य आरोपित फरार हैं. आरोपित और गवाहों के बयान बताते हैं कि कुरैशी अहमदाबाद धमाकों के एक महीने पहले तक गुजरात में ही था. इसके बावजूद वह पकड़ा नहीं जा सका.

\सादिक शेख का नाम भी अतीत में  आईएम के मास्टरमाइंड के रूप में सामने आ चुका है. उस पर मुंबई ट्रेन धमाकों के पीछे हाथ होने का आरोप है. साथ ही दिल्ली और गुजरात धमाकों के षड्यंत्र रचने के अलावा उस पर इन धमाकों के लिए लोगों को भर्ती करने का भी आरोप है. महाराष्ट्र एटीएस जो काफी समय तक मानती आ रही थी कि ट्रेन धमाकों में इंडियन मुजाहिदीन का हाथ नहीं है, को बड़ा झटका तब लगा जब 2009 में एक न्यूज चैनल ने गुजरात पुलिस का एक वीडियो दिखाया. इस वीडियो में यह सादिक कहते हुए दिखा कि ट्रेन में धमाके उसने आईएम के कहने पर किए थे. इसके बाद महाराष्ट्र एटीएस को अपना बचाव करते हुए कहना पड़ा कि सादिक ही ट्रेन ब्लास्ट के लिए जिम्मेदार है मगर यह काम उसने हूजी के कहने पर किया था. इसी विरोधाभास के चलते मुंबई हाई कोर्ट को ट्रेन ब्लास्ट केस में सादिक को छोड़ना पड़ा था. इसके बावजूद शेख गुजरात और दिल्ली ब्लास्ट केस में शामिल होने की वजह से अहमदाबाद की जेल में सलाखों के पीछे है. महाराष्ट्र के गृह विभाग के एक अधिकारी कहते हैं,’जांच एजेंसियों के इस केस में गलत तरीके से जांच-पड़ताल करने और आपस में सामंजस्य न होने की वजह से ही यह केस एजेंसियों के खिलाफ चला गया है. इसमें कोई शक नहीं है कि ये लोग हमलों में शामिल थे मगर गलत केसों में उन्हें गिरफ्तार करके उनकी गिरफ्तारी को सही करार देने की कोशिश करना अब जांच एजेंसियों को भारी पड़ रहा है.’

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ से आने वाला शेख अपने परिवार के साथ मुंबई के चीता कैंप में रहा था. रेफ्रिजेरेशन में कोर्स करने के बाद शेख ने पांच साल तक गोदरेज में काम किया और बाद में सीएमएस नाम की कंपनी से जुड़ गया. उसकी कंपनी का रिकॉर्ड दिखाता है कि गुजरात धमाकों के दिन वह शहर में ही था. मुर्गीपालन का काम करने वाले उसके भाई का कहना है कि जब से उसके पिता को शेख के बारे में पता चला है वे पूरी तरह खामोश हो गये हैं. असद कहता है, ‘हमसे कहा जाता है कि उसने ही मुंबई और गुजरात ब्लास्ट किया है और उसके बाद वह पाकिस्तान और बांग्लादेश चला गया…मगर वह बिना पासपोर्ट के कैसे जा सकता है? वह हमेशा या तो हमारे साथ रहा या फिर आजमगढ़ में. आजमगढ़ के लोग इसकी गवाही भी दे सकते हैं.’ 

परिवार के अनुसार, 17 अगस्त को जब सादिक काम के लिए निकला तभी उसे हिरासत में ले लिया गया था. उस दिन जब वह काम पर नहीं पहुंचा तो उसकी कंपनी ने दो बार फोन भी किया. कुछ समय बाद सादिक ने फोन करके कहा कि वह दो दिन के लिए बाहर जा रहा है. जब दो दिन बाद भी वह नहीं लौटा तो उसकी भाभी ने उसे फोन किया जो सादिक ने उठाया और कहा कि वह अभी व्यस्त है और दोदिन बाद घर लौट आएगा. उसके बाद उसका फोन नहीं लगा.

उसके परिवार को उसकी गिरफ्तारी की जानकारी क्राइम ब्रांच ने 24 अगस्त को दी. मुंबई पुलिस ने सादिक को एक विदेशी हाथ बताया जिसने लश्कर-ए-तैयबा की मदद से इंडियन मुजाहिदीन की स्थापना की थी. खबर लिखे जाने तक महाराष्ट्र के गृह सचिव ने तहलका से कहा था, ’अभी इंडियन मुजाहिदीन का नाम लेना काफी जल्दबाजी होगा. हम लोग बाकी सुरागों पर भी काम कर रहे हैं. लेकिन हां, इंडियन मुजाहिदीन हमारे लिए चिंता का विषय जरूर है. यह एक गंभीर खतरा है और हम लोग इन लोगों को पकड़ने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगे ’

लेकिन अभी पुरानी आतंकी घटनाओं की जांच-पड़ताल भी जांच एजेंसियों के आपसी विरोधाभास की वजह से विवाद के साये में है. ऐसा भी नहीं लगता कि जेल में इन हमलों का कोई मास्टरमांइड ही सलाखों के पीछे हो. सिर्फ वही लोग हैं जो ऊपर से आदेश लेकर हमलों को अंजाम देते हैं.

जहां तक जेल में बंद लोगों की बात है तो उन पर कई वर्षों से मामला चले जा रहा है क्योंकि न तो महाराष्ट्र एटीएस ने उनकेे खिलाफ कोई पुख्ता केस बनाया है और न ही गुजरात एटीएस ने. साथ ही इन लोगों के हिरासत में होने का भी कोई खास फायदा अभी तक नहीं मिला है क्योंकि इनसे ऐसी कोई सूचना नहीं मिली है जिससे नये हमलों को रोका जा सके. इसके अलावा पुख्ता खुफिया सूचनाएं हैं कि भगोड़े यासीन और रियाज भटकल कर्नाटक में अपने-अपने घर जाते रहते हैं. दरअसल जांच एजेंसियों में आसान शिकारों को पकड़ कर तसल्ली कर लेने की परंपरा बन गई है.  इसके चलते असल और बड़े अपराधी कानून के शिकंजे में नहीं आ पा रहे. इसका नतीजा पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है.