
केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) द्वारा हाल ही में राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार (आरटीआई) के दायरे में लाने का फैसला स्वागत योग्य है.
इस पर राजनीतिक दलों ने जिस तरह की प्रतिक्रिया दी है उस पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए. आखिर सत्ता में बैठा हुआ कौन व्यक्ति पारदर्शी होना चाहता है? यह स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है.
दरअसल इस देश के राजनीतिक वर्ग को पूरी तरह से पता ही नहीं है कि आरटीआई है क्या. बल्कि इस कानून का इस्तेमाल करने वाला आम आदमी इसे नेताओं से ज्यादा अच्छी तरह समझता है. राजनीतिक वर्ग खुद को दूसरे लोगों की तुलना में विशेष समझता है. उसकी नकारात्मक प्रतिक्रिया इसी मानसिकता से उपजी है. ऐसे में राजनीतिक दलों से तीन सवाल आवश्यक तौर पर पूछे जाने चाहिए. पहली बात, क्या उन्हें सरकार से किसी तरह की वित्तीय मदद नहीं मिलती? अगर नहीं मिलती तो सीआईसी का फैसला गलत है. लेकिन अगर उन्हें मिलती है तो उन्हें आरटीआई के दायरे में आना चाहिए. आरटीआई अधिनियम स्पष्ट कहता है कि कोई भी गैरसरकारी संस्थान जिसे सरकार से अच्छा-खासा पैसा मिलता है वह जनता के प्रति जवाबदेह संस्था है और राजनीतिक दल इसी श्रेणी में आते हैं. इस फैसले में पीठ ने स्पष्ट किया है कि राजनीतिक दलों को टैक्स में भारी छूट के अलावा सरकारी भूमि आवंटन में भी जमकर सब्सिडी मिलती है.
दूसरी बात, क्या राजनीति दलों को करोड़ों रुपये का चंदा नहीं मिल रहा है? क्या यह राशि महत्वपूर्ण नहीं है? वे इससे इनकार नहीं कर सकते और इसलिए उनकी जनता के प्रति जवाबदेही बनती है. इस पर भी अगर वे आपत्ति करते हैं तो उन्हें यह बताना होगा कि उनको आरटीआई के दायरे में क्यों न रखा जाए. तीसरी बात, क्या राजनीतिक दल यह मानते हैं कि पारदर्शिता उनके हित में है? अगर उनको ऐसा नहीं लगता तो उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि पारदर्शिता से उनका क्या नुकसान होगा.
अगर आप सरकारी संस्था हैं तो आप आरटीआई के दायरे में आते हैं. लेकिन यह अधिनियम कुछ खास किस्म की सूचनाओं को जारी नहीं करने की रियायत भी देता है. इन रियायतों के साथ ही अनेक सरकारी प्रतिष्ठान पिछले सात साल से बिना किसी नुकसान के काम कर रहे हैं.