हिंदी पट्टी से पत्ता साफ

फोटो:विकास कुमार

आंकड़े अक्सर बेहद बोझिल और उबाऊ होते हैं. लेकिन कभी-कभी उनसे कुछ दिलचस्प तस्वीरें भी उभर जाती हैं. एक आंकड़ा यह है कि हालिया चार विधानसभा के चुनावों में कुल 589 विधानसभा सीटें दांव पर लगी हुई थी. कांग्रेस को इनमें से महज 126 सीटें हाथ लगी हैं. प्रतिशत में यह 22 के आस पास बैठता है. देश की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी के बारे में यह आंकड़ा क्या कहता है? इसका मतलब यह है कि कांग्रेस देश के उत्तर और मध्य से लगभग विलुप्त हो चुकी है.

जिन चार राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं उनमें राजस्थान को छोड़ दें तो बाकी तीन, दिल्ली, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ पूरी तरह से ‘लैंड लॉक्ड’ प्रदेश हैं. न तो इनकी सीमाएं किसी देश से लगती हैं न ही ये समुद्र को छूती हैं. कहने का अर्थ है कि नक्शे के बिल्कुल बीचो-बीच मौजूद ये राज्य देश का हृदयस्थल बनाते हैं. यह भूगोल तो लगभग सबको पता ही है तो फिर इसका यहां जिक्र क्यों? दरअसल इस भूगोल मेंे ही कांग्रेस का इतिहास और नागरिक शास्त्र दोनों चौपट हो गया है. इतिहास इस लिहाज से कि इतनी दुर्गति कांग्रेस को एकाध बार ही देखनी पड़ी है और नागरिक शास्त्र इसलिए कि आज यहां कांग्रेस के पास कहने को अपना कोई भी समर्पित वोटबैंक नहीं बचा है. इन चार राज्यों के अलावा उत्तर भारत (हिंदी हृदय प्रदेश) के दो अन्य महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार से कांग्रेस का सूपड़ा साफ हुए एक अर्सा हो चुका है. 2012 में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों को अगर संकेत मानें तो यहां 2014 में भी पार्टी के दिन बहुरने नहीं जा रहे. यही बात बिहार के बारे में भी कही जा सकती है. झारखंड में भी कांग्रेस की जोड़-तोड़ वाली सरकार है. यानी उत्तर भारत में पार्टी साफ हो चुकी है.

हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. अतीत में दो मौके ऐसे आए हैं जब कांग्रेस हिंदी पट्टी से लगभग लापता हो गई थी. पहला मौका था आपातकाल के बाद सन 77 में हुए लोकसभा चुनाव और दूसरा 1989 के आम चुनाव जब वीपी सिंह भ्रष्टाचार के खिलाफ मशाल लेकर चले थे. हालांकि 1989 में कांग्रेस की असफलता अल्पकालिक और सिर्फ लोकसभा तक सीमित थी और उत्तर के कई राज्यों की सत्ता फिर भी पार्टी के हाथ में थी. लेकिन 1977 और उसके कुछ समय बाद तो वह केंद्र और उत्तर के राज्यों, दोनों में बुरी तरह ढेर हो गई थी. जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल वापस लेकर लोकसभा चुनाव करवाने की घोषणा की तो उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान में कुल मिलाकर कांग्रेस को दो लोकसभा सीटें मिली थीं. इन राज्यों में लोकसभा की कुल सीटों का आंकड़ा था 196. 1989 में यह आंकड़ा 25 पर सिमटा था. कह सकते हैं कि आपातकाल के बाद हिंदी पट्टी में कांग्रेस के सामने पहली बार इतना बड़ा संकट खड़ा हुआ है.

सवाल है कि यह संकट क्यों खड़ा हुआ है. आज कांग्रेस के सामने आपातकाल जैसी कोई आसाधारण स्थिति नहीं थी. जनता ने दो बार लगातार कांग्रेस के पक्ष में नतीजे दिए थे. उसके पास काम करने का पर्याप्त मौका था. पर सरकार की जो छवि बनी वह एक भ्रष्टाचारी, दंभी, कॉर्पोरेट समर्थित और गरीब विरोधी की बनी. वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई बताते हैं, ‘राजनीतिक दलों का हाई और लो फेज आता है. कांग्रेस पार्टी आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान जैसे राज्यों में अपने हाई प्वाइंट को छू चुकी है, अब उसका लो फेज चल रहा है. इस स्थिति को राजनीतिक पार्टियां अपने गुड गवर्नेेेेंस के जरिए संभालती रहती हैं. पर यूपीए की सरकार गवर्नेंस के मोर्चे पर पूरी तरह से असफल रही है. कहीं पर राजनीतिक ताकत और कहीं पर कार्यकारी ताकत का फार्मूला एक कार्यकाल में तो सफलतापूर्वक चल गया, लेकिन इसे इतना लंबे समय तक खींचना संभव नहीं है. कांग्रेस इस गड़बड़ी को पहचान नहीं सकी.

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विचित्र किंतु सत्य

दिल्ली में पहली बार खंडित जनादेश

दिल्ली में भाजपा और कांग्रेस आसानी से बहुमत हासिल करने में कामयाब होते रहे हैं. लेकिन इस बार अपना पहला चुनाव लड़ रही आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन बाकियों के लिए ऐसा विध्वंसक रहा कि किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया. पहली बार दिल्ली में त्रिशंकु हालात बन गए. यही वजह है कि सरकार बनाने को लेकर यहां पहली बार इतनी अधिक माथा पच्ची चल रही है. 1993 में दिल्ली की पहली विधानसभा का गठन हुआ था. 1993 के पहले चुनाव में यहां भारतीय जनता पार्टी को जीत मिली थी. उसके बाद 1998, 2003 और 2008 में कांग्रेस ने तीन बार दिल्ली की सत्ता संभाली. अब दिल्ली पहली बार त्रिशंकु विधानसभा देख रही है.

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