
अब भी उनकी निगाह मेन्यू से लिपटी हुई है.
उसकी आंखें उनकी ऊपर-नीचे टोहती, सरकती नजर को छूकर अनमनी- सी इधर-उधर उचकती, अपनी बढ़ाती ऊब को नियंत्रित नहीं कर पा रही हैं.
बूढ़े होने को आए, जाने इतना समय क्यों लगाते हैं चीजें चुनने में कि उनके स्वाद की ललक ही क्षीण हो जाए? मेन्यू में दर्ज खाद्य वस्तुओं की सूची इतनी लंबी-चौड़ी भी नहीं कि चुनने में भ्रम की स्थिति गह ले! जानते हैं वह और खूब अच्छी तरह से जानते हैं, कितनी मुश्किल से वह उनका साथ पाने के लिए अपने गहरे गुंथे समय में से कुछ समय झटक पाती है. सुबह नींद टूटते ही वह सोचना शुरू कर देती है-आज उसे क्या कुछ निबटाना है और सांझ को उनसे कैसे मिलना है. बीच में कई-कई रोज समय न हथिया पाने के चलते उनसे मिलना संभव नहीं हो पाता. फोन पर बातें करके ही संतुष्ट हो लेना पड़ता है. फोन पर बतियाकर उन्हें संतुष्टि नहीं होती. उन्हें उसकी नौकरी पर खीझ होने लगती है. काम निबटाकर वह क्यों नहीं अपने बॉस से कह पाती कि उसे उनसे मिलने पहुंचना है? कौन-सा कानून उसे मिलने से रोक सकता है? जाने कैसा दफ्तर है उसका! उनके दफ्तर में तो लड़कियां रजिस्टर साइन करने के बाद दिखतीं ही नहीं.
बातें सुनते-सुनते वह उनका ध्यान दूसरी ओर मोड़ना चाहती है- उनके जुकाम का मुद्दा उठाकर या उनके साइटिका पेन का हाल पूछ कर. नयी किताब कौन-सी पढ़ रहे हैं वे ?
‘ क्या करूं जुकाम के लिए? ‘ उसके आड़े हाथों लेते ही वे समर्पण की मुद्रा की ओट हो लेते हैं.
वह सयानों-सी समझाने लगती है. केमिस्ट की दुकान से फौरन विटामिन-सी की गोलियां मंगवाएं. सिर पर तौलिया डालकर सुबह-शाम भाप लें. उनकी आवाज से लग रहा है, उन्हें हरारत है.
उनका जवाब उसे तनिक आश्वस्त कर देता है. उसे अधिक चिन्तित होने की जरूरत नहीं. बुखार लगता जरूर है कि उन्हें, मगर थर्मामीटर उनके इस लगने को सिरे से झुठला देता है. कितने अकेले हैं! वह भी इस उम्र में.
जहां तक उसे याद है, छह महीने-भर शेष हैं उनके अवकाश प्राप्त करने में. एकाध वर्ष का एक्सटेंशन मिल सकता है उन्हें.एक्सटेंशन पाने के लिए वह विशेष जुगाड़ करने के पक्षधर नहीं हैं. अपने आप मिल जाए तो उन्हें काम करने में कोई आपत्ति भी नहीं. उन्हें पूरी उम्मीद है कि उनके काम की संजीदगी पहचानी जाएगी.
वैसे आज भी उनसे मिलना मुश्किल ही था.
उसकी मेज पर से निबटी फाइलें उठाकर ले जाने आए चपरासी मांदले ने सहसा ही उसे सुखद सूचना दी, ‘कपूर साहब लंच के बाद ही चले गए, मैडम! साढ़े चार की उनकी फ्लाइट थी. कोलकाता गए. परसों लौटेंगे, यानी शेष फाइलें वह कल निबटा सकती है. प्रसन्नता की उमड़न दबाते हुए उसने मांदले से जानना चाहा था- अचानक कपूर साहब कोलकाता क्यों चले गये? मांदले रहस्यमयी हंसी हंसा था- उनकी बीवी ने उनके ऊपर तलाक का मुकदमा ठोक रखा है और कल उसकी सुनवाई की तारीख है. बीवी कपूर साहब के साथ रहना नहीं चाहती. बोलती है कि कपूर साहब मर्द नहीं हैं.
उसकी प्रसन्नता काफूर हो गयी. मांदले से पूछना चाहती थी, ‘कपूर साहब के बच्चे हैं ?’
उनका फोन नंबर मुंह जबानी याद है उसे. सहसा उंगलियां नंबर डायल करने लगीं.
संयोग से फोन उन्होंने ही उठाया. उसने उन्हें बताया कि वह चार के करीब दफ्तर छोड़ सकती है. आजाद मैदान क्रॉस कर वह चार बीस तक चर्च गेट ‘गेलार्ड’ पहुंच जाएगी. उनका क्या कार्यक्रम है?
‘सक्सेना के पितियाउत बड़े भाई को हृदयाघात हुआ है आज सुबह. सक्सेना छुट्टी लेकर उन्हें देखने बांबे हॉस्पिटल गया हुआ है. उसका काम भी जिम्मे आ पड़ा है.’
‘ठीक है’ निचला होंठ ऊपरी दंतपंक्ति के नीचे आ दबा.
‘ दुखी मत होओ. अच्छा सुनो, तुम पहुंचो गेलार्ड. अपना और श्रीवास्तव का काम पाठक के जिम्मे टिकाकर पहुंचता हूं चार बीस तक. ‘
उसे उनकी यही विशेषता भाती है. उसके आग्रह को वे टाल नहीं पाते. काम बहुत महत्वपूर्ण है उनके लिए मगर उससे अधिक नहीं.
सबसे अच्छी बात जो उनकी उसे लगती है, वह है- मां के विषय में वह उससे कभी कुछ नहीं जानना चाहते हैं. जितना समय वह उसके संग व्यतीत करते हैं, उसके बचपन के दिनों में टहलते रहते हैं. दूसरी शादी क्यों नहीं की उन्होंने? शादी वह करे, जिसे अकेलापन काटे. उस घर में रहते प्रतिपल वह उनके पास बनी रहती है. घर के प्रत्येक कोने में उसकी तस्वीरें सजी हुई हैं. घर की कड़ी खोलते ही वह किसी भी तस्वीर से बाहर छलांग लगा, उनके स्वागत में दौड़कर उनकी टांगों से लिपट जाती है, ‘ दिखाइए, मेरे लिए क्या लाए हैं? ‘ जेब से उसकी पसंद की चॉकलेट निकालकर वह बैठक में रखे डिवाइडर पर रखी चॉकलेट खाती उसकी तस्वीर के सामने रख देते हैं. चॉकलेट इकट्ठी होती रहती है. मिलने पर इकट्ठी चॉकलेट वे उसे थमा देते हैं. उनके सामने ही वह चॉकलेट के रैपर हटाकर एक के बाद एक खाना शुरू कर देती है और खाते-खाते हंसी से दोहरी होती हुई उस किस्से पर चमत्कृत हो उठती है, जिसे सुनाते हुए वह बताते हैं कि पिछली रात उन्होंने उसके साथ घर की बैठक में जमकर क्रिकेट खेली. बॉलिंग वह इतनी जोरदार करती है कि उसकी गेंद से रसोई की दो खिड़कियों के शीशे चटख गए. ट्रे में रखी कॉन्टेसा रम की भरी बोतल उलट गई.
जब तक वह रसोई से कांच की किरचें बुहारते, कूदकर वह अपने कद से बड़ा क्रिकेट का बल्ला संभाले उसी तस्वीर में जा छिपी, जो उनके बिस्तर की साइड टेबल पर सुनहरे फ्रेम में जड़ी रखी हुई है. दुष्ट डर गई थी. कहीं मां से उसे डांट न पड़ जाए कि तुम इतनी आक्रामक गेंदबाजी क्यों करती हो भला?
अब बताए, वह अकेले कहां हैं?
उनसे मिलकर घर देरी से पहुंचने पर उसका एक ही बहाना होता है- जाने क्यों, अंबरनाथ लोकल अचानक रद्द कर दी गई.
लोकल गाड़ियों का बहाना खासा कारगर बहाना है और विलंब से पहुंचने वालों के लिए अचूक रक्षाकवच.
सौतेले पिता, डाबीवली के एक छोटे-से जूता कारखाने में मामूली अधिकारी हैं, जिनकी घर में उपस्थिति घर को चमड़े की असहनीय बू से भर देती है. शायद घर को उस बू से बचाने के लिए ही मां रसोई में टंगे छोटे-से मंदिर के अगरबत्ती स्टैंड की अगरबत्तियों को कभी बुझने नहीं देती. अक्सर घर देरी से लौटने पर सौतेले पिता भी वही बहाना गढ़ते हैं, जो बहाना वह गढ़ती है. उसे विस्मय इस बात पर होता है कि मां उसके बहाने पर कभी उग्र नहीं होतीं, जबकि सौतेले पिता का बहाना उन्हें बहाना लगता है.
मां के सिटकनी-चढ़े बंद कमरे में आती उनकी सिसकियां उसे उदास करती हैं.

दीवारों को भेदने वाले उनके आर्त बोल भी, कि कारखाने में किसी स्त्री के साथ चल रही प्रेमपींगों के चलते ही वे घर विलंब से लौटते हैं. लोकल ट्रेन उनकी सुविधानुसार रद्द होती रहती है. सब समझ रही हैं वे. पछता रही हैं. जाने क्यों, उन जैसे रंडुवे के प्रेम के झांसे में आकर वे पसीज उठीं और अपनी बसी-बसाई गृहस्थी उजाड़ ली जबकि पहली पत्नी की ताई (दीदी) ने उन्हें फोन करके सतर्क किया था- सुनीता की मृत्यु दुर्घटना नहीं थी, आत्मदाह था.
‘ चीज पकौड़ों के साथ कसाटा आइसक्रीम खाओगी तुम ?’
‘ इतनी देर में यही चुन पाए आप?’ वह खीझ दबा नहीं पाई.
‘ कसाटा तो तुम्हें बचपन से पसंद है.’
‘बचपन पीछे छूट चुका.’
‘ तुम्हारा नहीं.’ उनका स्वर संजीदा हो गया.
‘ पसंद बदल नहीं सकती?’
‘ बदल गई होती तो मैं फिर कुछ और चुनता तुम्हारी नई पसंद.’ उन्होंने संकेत से बेयरे को पास बुलाया.
‘किस बात से ऐसा लगता है आपको’
‘बैठते ही तुम मेन्यू मेरी ओर सरकार देती हो हमेशा, तुम्हें यकीन है, खाने की जो भी चीजें मैं चुनूंगा, तुम्हारी पसंद की होंगी.’
उसे हंसी आ गयी. मेज पर मोतिया बिछ गया.
उनकी तुनक कम नहीं हुई, ‘अगर यह सच नहीं है तो मेन्यू स्वयं देख लिया करो.’
हंसी रुक नहीं रही थी. उन्हें तुनकाने में उसे मजा आ रहा था, ‘अब ऑर्डर भी दीजिए. लिखवाइए बेयरे को.’
ऑर्डर लिखवाने के उपरांत वे मुड़े उसकी ओर, ‘हंसी क्यों तुम?’
‘मजाक नहीं उड़ा रही मैं आपका.’
‘फिर क्या उड़ा रही हो?’
‘हंसी इसलिए आ गई कि मैं फिजूल आपसे उलझ रही हूं. सच यही है, मैं चाहती हूं मैं वही खाऊं, जो आप मेरे लिए चुनें. यह भी जानती हूं, आप इतना वक्त इसीलिए लगाते हैं क्योंकि मेरी पसंद की दस-पंद्रह चीजें गड्डमड्ड होने लगती हैं आपके सामने और आप सोचने लगते हैं, पिछली बार जो कुछ खा चुकी हूं, इस बार उसे दोहराया न जाए. क्या मैं गलत हूं?’
उनके चेहरे पर गहरा उच्छ्वास संवला आया, ‘नहीं! लेकिन उसने कभी तुम्हारी तरह नहीं सोचा…’
‘जरूरी नहीं था कि सभी एक तरह से सोचें?’ यह अचानक मां बीच में कहां से आ गई, जो कभी नहीं आती.
वे लगभग उखड़ आए–’ पैरवी कर रही हो? ठीक है, मगर फिर अगले को भी किसी से यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी कि मैं उसी की भांति सोचूं, जो उसे पसंद है वही करूं?’
उसे लगा, वह घुमड़न से उलझ नहीं सकती.
उसे अगले पल यह भी लगा, उसे उठना चाहिए और काउंटर पर जाकर अपनी शिकायत दर्ज करानी चाहिए कि ऐसे क्यों हो रहा है. हफ्ते भर बाद वह यहां आई है और यहां लगातार ‘कम सेप्टेंबर’ की वही पुरानी धुन बज रही है, जिसे वह पिछले हफ्ते सुन चुकी है? क्या उनके संकलन में कुछ और अच्छी धुनें नहीं हैं, जिन्हें बदल-बदलकर बजाया जा सके? ऑर्डर आने में अभी देर है. धुनें बदलवाना जरूरी है. वह उठकर काउंटर की ओर बढ़ चली. उसे मालूम है, उसके अचानक उठने और काउंटर की ओर बढ़ने पर वह कोई सवाल नहीं करेंगे. ऐसा नहीं है कि वे सवाल नहीं करते हैं. सवाल करते हैं–कभी-कभी. उसे उनके तीन महीने पूर्व किए गए एक सवाल का जवाब अभी देना बाकी है. सवाल आसान नहीं है. न उसका जवाब इतनी आसानी से दिया जा सकता है. सवाल उसके होने से जुड़ा है. वह है, तो उसे उस ‘होने’ को महत्व देना ही पड़ेगा. जिम्मेदार व्यक्ति न अपने प्रति गैर-जिम्मेदार हो सकता है, न दूसरों के प्रति. यही उसकी अड़चन है, जिसने उसे ठिठका रखा है.
वह जानते हैं,वह उन्हें बहुत प्यार करती है. उन्होंने बहुत चिरौरी की थी मां से–उन्हें सब कुछ छोड़कर जाना है, जाएं. जैसा चाहेंगी, लिखकर दे देंगे. कोर्ट-कचहरी की फजीहत उन्हें पसंद नहीं. हां, बच्चे के बगैर जीना उनके लिए कठिन है. दुनिया में उसे आंखें खोलने के साथ ही उन्हें गहरे अहसास हो गया था कि वह उस आंखें मिलमिलाती नन्हीं जान के बिना नहीं रह सकते.
उन्होंने उसके जन्म के समय की अपनी भावनाओं को उससे आठ वर्ष की उम्र में बांटा था कि उसके जन्म के समय उसे पहली बार देखने पर उसकी दादी ने उनसे कहा था, ‘मुन्ना, छोरी बूबहू तेरे जैसी लगे है. अंगड़ाई तोड़ तू ऐसे ही आंखें मिलमिला रहा था, जब पहली दफे सौर में मैंने तुझे दाई की गोद में देखा था.’
उसके आग्रह पर धुन बदल गयी.
वातानुकूलित खुनक-भरे वातावरण में राजकपूर की ‘श्री420’ के गीत ‘प्यार हुआ इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यों डरता है दिल..’ की मद्धिम छूती-सहलाती-सिहराती धुन तैरने लगी.
बदली धुन ने उन्हें भी अपने साथ गुनगुनाने के लिए मजबूर कर दिया.
‘तन्वी’
‘बोलो, पा!’
‘पुराने गाने पुराने मूल्यों की तरह हैं, नहीं?’
‘पुराने गानों में बड़ा दम है. कविता हैं.’ ‘मूल्य’ शब्द से उसने स्वयं को बचाना चाहा.
उन्हें भी समझ में आ गया–वह माहौल को कड़ुवाहट में डुबाने से बच रही है.
बेयरा ऑर्डर ले आया.
चीज बाल्स, जिन्हें वह पकौड़े कहते हैं, बड़ी प्लेट में सजे भाप छोड़ रहे हैं. ‘कसाटा’ कलबत्ता दो अलग-अलग प्लेटों में है. उन्होंने एक प्लेट उसकी और खिसकाई और चीज पकौड़ा उठाकर दांतों से कुतरने लगे. उनके दांतों में उम्र मरोड़े लेने लगी है. पिछले महीने निचले जबड़े की दाहिनी एक दाढ़ को निकलवाया है उन्होंने.
‘अजीब चलन हो गया है. किसी भी रेस्तरां में चले जाओ, अंग्रेजी की धुनें ही बजती हुई मिलेगी वहां.’
‘रेस्तरां का चलन ही वहां से आया है.’
‘क्यों, हमारे यहां ढाबे और मिठाइयों की दुकानों नहीं हुआ करती हैं?’