सुलगती घृणा

मनुष्यों के दिमाग़ में घृणा सुलग रही है। विशेषकर हर उस दिमाग़ में गन्धक और पोटाश की तरह घृणा का ढेर है, जिसमें धर्मांधता भरी हुई है। जैसे ही धर्मांधता के मार्गदर्शक या शासक इसे हल्की-सी रगड़ देते हैं, वैसे ही यह घृणा हिंसात्मक रूप में फूँस की आग की तरह धधक उठती है। धर्मों में मत-भिन्नता और धर्मों का वास्तविक ज्ञान नहीं होना इसके सबसे बड़े कारण हैं। मणिपुर में घृणा रूपी गन्धक में धर्म की चिंगारी रखी जा चुकी है। यही वजह है कि मणिपुर में हिंसा ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही है। वास्तव में धर्मों की विविधता लोगों के अलग-अलग मतों के कारण है। मतों की भिन्नता मनुष्य के स्वभाव में है। इसी मत-भिन्नता के चलते संसार भर के लोग सदियों से लड़ते-झगड़ते रहे हैं। आज भी लड़-झगड़ रहे हैं; और आगे भी लड़ते-झगड़ते रहेंगे। लडऩा-झगडऩा केवल मनुष्य का स्वभाव ही नहीं है। पशु भी लड़ते-झगड़ते हैं। इसका अर्थ यह है कि झगडऩा हर प्राणी के स्वभाव में है। लेकिन बाक़ी प्राणियों में मनुष्य के स्वभाव की तरह मत-भिन्नता के झगड़े नहीं हैं। यह केवल मनुष्य का स्वभाव है। दो लोगों के बीच की मत-भिन्नता दोनों में दूरी पैदा करती है। लेकिन धर्मों और जातिवाद के चलते उपजी मत-भिन्नता ने लोगों को एक-दूसरे से दूर तो किया ही है, उनके मन में घृणा भी पैदा की है। हाल यह है कि आज सब एक-दूसरे से अकारण ही घृणा कर रहे हैं। सब एक-दूसरे को फूटी आँख देखना नहीं चाहते। एक-दूसरे को मार डालने पर आमादा हैं। यह एक कटु सत्य है कि अगर लोगों का एक-दूसरे से वास्ता न हो, एक-दूसरे के बग़ैर सबका काम चल जाए, धन-सम्पत्ति की किसी को किसी से लालसा न हो, और एक-दूसरे के प्रति आकर्षण न हो, तो संसार में सबसे पहले लड़-झगडक़र समाप्त होने वाली प्रजाति मानवों की होगी। कोई किसी को नहीं पूछेगा। सब एक-दूसरे को हिक़ारत की नज़र से देखेंगे। सब एक-दूसरे से घृणा करेंगे। यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह बिना स्वार्थ के ईश्वर को भी भूल जाता है। अकारण उस ईश्वर को भी याद नहीं करता, जिसने इसे बनाया है। जिसने इस मनुष्य के लिए सृष्टि बनायी है। समस्त प्राणियों का शासक बनाया। लेकिन अगर जीवन में तनिक भी कुछ अनर्थ हो, तो कितने ही मनुष्य ईश्वर से ही घृणा करने लगते हैं। ईश्वर को कोसने लगते हैं। अज्ञानता ने मनुष्य की बुद्धि को ऐसे भ्रष्ट किया है कि वह ईश्वर से भी स्वार्थ के लिए ही जुडऩा पसन्द करता है। धर्मों के प्रति अंधश्रद्धा और बिना तर्क के हर तथ्य को आँख बन्द करके मान लेने के चलते मनुष्य का स्वभाव ऐसा हुआ है। धर्मों के चलते उपजी घृणा से धर्मांधता फैलाने वाले पाखण्डियों और शासकों के अलावा किसी की स्वार्थ सिद्धि नहीं होती है। इसलिए यही पाखण्डी और शासक अपने-अपने धर्मों के लोगों के मनों में एक-दूसरे के प्रति घृणा की आग धधकाकर रखते हैं।