संवैधानिक ताक़तों के बीच पिसती जनता

शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’ भारत की राजधानी दिल्ली संवैधानिक ताक़तों की लड़ाई का केंद्र बनी हुई है। यह लड़ाई दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तथा दिल्ली के उप राज्यपाल की शक्तियों को लेकर है। दिल्ली का प्रतिनिधित्व करने वाले उप राज्यपाल को केंद्र सरकार दिल्ली का ही नहीं, बल्कि दिल्ली के मुख्यमंत्री का भी बॉस बनाकर रखना चाहती है। संवैधानिक अधिकारों की यह लड़ाई सन् 2015 से चल रही है। देश के शीर्ष अदालत ने दोबारा बीती 11 मई को दिल्ली का बॉस चुनी हुई सरकार को बताया। परन्तु केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत के ख़िलाफ़ जाकर एक ऐसा अध्यादेश पारित कर दिया, जिसके अनुसार अब दिल्ली के बॉस उप राज्यपाल ही रहेंगे। इस लड़ाई की मुख्य वजह केंद्र की तरफ़ से सारे अधिकार अपने क़ब्ज़े में रखना है, तो दूसरी तरफ़ मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का दावा है कि इससे दिल्ली का विकास रुका हुआ है, क्योंकि ज़रूरी फाइलों को उप राज्यपाल अपने पास बिना कारण के बिना कोई कारण बताये रोक लेते हैं, जिससे विकास के कामों में अड़चन आती है। उनका आरोप यह भी है कि उप राज्यपाल ने कई अनावश्यक अधिकारियों की भर्ती कर रखी है, जो दिल्ली के विकास कार्यों में टांग अड़ाते हैं। अब जब अधिकारों की लड़ाई को लेकर केंद्र सरकार तथा दिल्ली की सरकार आमने-सामने हैं। आम आदमी पार्टी के नेता तथा कार्यकर्ता केंद्र के इस अध्यादेश के ख़िलाफ़ सडक़ पर उतरने को तैयार हैं। दिल्ली सरकार दोबारा शीर्ष अदालत जाने की तैयारी में है। ख़ास बात यह है कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने शीर्ष अदालत में जाने के ऐलान के तुरन्त बाद केंद्र सरकार शीर्ष अदालत के दरवाज़े पर यह फ़रियाद लेकर पहुँच चुकी है कि शीर्ष अदालत अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करे। परन्तु केंद्र सरकार का शीर्ष अदालत के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अध्यादेश लाकर यह साबित करता है कि केंद्र सरकार का शीर्ष अदालत में जाना एक ड्रामा भर है, ताकि इसे अदालत की अवहेलना न कहा जाए। परन्तु अवहेलना तो केंद्र सरकार ने कर दी है, जिसके लिए शीर्ष अदालत को कड़ा संज्ञान लेना चाहिए। क्या केंद्र को शीर्ष अदालत का फ़ैसला इतना ख़राब लगा कि उसने अदालत के फ़ैसले के 10 दिनों के अन्दर ही अपनी ताक़त के दम पर एक ऐसा अध्यादेश बना दिया, जो पहले नहीं था। लगभग आठ साल की क़ानूनी लड़ाई लडऩे के बाद दिल्ली सरकार को अपने अधिकार शीर्ष अदालत के ज़रिये वापस मिले थे, जो अब केंद्र सरकार के इस क़दम ने छिन रहे हैं। हालाँकि अभी इसे अन्तिम निर्णय नहीं माना जा सकता, जब तक कि शीर्ष अदालत इसे न मान ले। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हमेशा कहते हैं कि अगर केंद्र सरकार तता उनके द्वारा चयनित उप राज्यपाल को ही सारी शक्तियाँ देनी हैं, तो फिर चुनावों की क्या ज़रूरत है? लोकतंत्र के माध्यम से जनता द्वारा सरकार बनाने की ज़रूरत ही क्या है? इन प्रश्नों में तर्क है, जिसका जवाब केंद्र सरकार के पास भी शायद न हो। राजनीति के कुछ जानकारों का कहना है कि वास्तव में केंद्र सरकार लोकतंत्र की हत्या करके तानाशाही की ओर बढ़ रही है। कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि अगर भाजपा 2024 के चुनाव में केंद्र में आ गयी, तो चुनाव नहीं होने दिये जाएँगे तथा मोदी अधिकृत एक सरकार हमेशा के लिए सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लेगी। यह कोई ऐसा आरोप नहीं है, जो यूँ ही लग रहा है; बल्कि इसकी पुष्टि कुछ भाजपा नेताओं के उन बयानों से होती है, जिनमें उन्होंने कहा था कि आने वाले समय में चुनावों की ज़रूरत नहीं होगी। भाजपा नेता साक्षी महाराज ने तो यहाँ तक कह दिया था कि लगता है 2024 में चुनाव नहीं होंगे। केंद्र सरकार की तानाशाही का दूसरा उदाहरण है कई ऐसे अध्यादेशों को ख़त्म करना, जो राजनीतिक फ़ायदे में अड़चन थे। किसानों ने तीन कृषि क़ानूनों को ख़त्म करा दिया; लेकिन अभी कई ऐसे क़ानून बन चुके हैं, जो जनहित में तो हैं ही नहीं; लोकतंत्र की हत्या के लिए काफ़ी हैं। दिल्ली में जिस तरह एक चुनी हुई सरकार को अपंग बनाने का काम केंद्र सरकार ने किया है, उससे दिल्ली का विकास संभव ही नहीं है। ऐसा लगता है कि अब केंद्र सरकार दिल्ली के विकास कार्यों में और भी टांग अड़ाने का काम करेगी। हो सकता है कि भविष्य में दिल्ली में हर महीने मिल रही मुफ़्त 200 यूनिट बिजली, मुफ़्त 2000 लीटर पानी, मुफ़्त इलाज, मुफ़्त शिक्षा तथा महिलाओं की मुफ़्त यात्रा पर भी केंद्र सरकार रोक लगा दे। इसकी वजह यह है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत के यही मंत्र हैं। 01 अप्रैल, 2015 से तत्कालीन उप राज्यपाल नजीब जंग के समय से चली आ रही दिल्ली सरकार तथा उप राज्यपाल के बीच की यह लड़ाई इन आठ वर्षों में दिल्ली के तीसरे उप राज्यपाल वी.के. सक्सेना के कार्यकाल में विकट टकराव की स्थिति में पहुँच चुकी है, जिसके बीच जनता पिस रही है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार आने से कई व्यवस्थाएँ सुधरी हैं। सीवर ठीक हुए हैं। गंगा वाटर की सप्लाई बेहतर हुई है। पानी के टैंकरों पर मारामारी का माहौल ख़त्म हुआ है। सीसीटीवी कैमरे लगने से सुरक्षा व्यवस्था में सुधार हुआ है। सडक़ें ठीक हुई हैं। नालियाँ ठीक हुई हैं। चाँदनी चौक जैसी जगह पर सुधार इसका एक बड़ा उदाहरण है, जहाँ कोई नहीं सोच सकता था कि वहाँ की तंग गलियाँ कभी सुधर सकती हैं।