शुभकामना का शव

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इलेस्ट्रेशन: नीलाकाश क्षेत्रीमयूम

तैंतीस वर्षीय कामना खुद के लिए तो मर चुकी थी पर आए दिन कोई न कोई उसे बताता कि वो अभी जीवित है. यह सुन कर वो उठती. खुद को समेटती, जैसे उसके जिम्मे काम बहुत हों या कुछ कदम चलती और फिर अपनी परछाईं पर ढह जाती. उन दिनों लू तेज थी या उसे एड्स होने की अफवाह, बता पाना कठिन है पर वो दस-पचास कदम चलते ही निढाल पड़ जाती, जैसे आज ही वो दक्खिन दिशा वाले पीपल की जड़ों पर मरणासन्न पड़ी हुई थी. दलसिंगार चरवाहे ने उसे अपनी लाठी से कोंच कर बताया कि वो अभी जीवित है और उसे अपने घर जाना चाहिए. कहे तो वो मदद करे. मदद की बात पर कामना ने अपनी समूची शक्ति बटोर कर दलसिंगार के लिए दो तीन गालियां फुसफुसाईं और फिर वहीं निढाल हो गई.

दिन-ब-दिन कामना का वजन घटता जा रहा था. वह इतनी कमजोर और पस्तहाल हो गई थी कि अपने ही खर्राटों से उसकी जाग खुल जाती. गांववासियों की राय थी: ऐसा उसके लड़ाकूपन की वजह से है. हर दूसरे-तीसरे दिन अपने ब्लाउज की सिलाई चुस्त करते हुए वह भी सोचती थी, आखिर उसके शरीर का वजन जा कहां रहा है. सौ कदम की दूरी तय करने में दो-दो या तीन बार सुस्ताती थी फिर भी जवाब हर किसी का देती थी.

पहले उस पर वैधव्य गहराया. दो वर्ष बाद ससुराल वालों ने उसके लड़ने झगड़ने से आजिज आकर उसे नईहर भेज दिया. छोटा हाथी ( टाटा एस नामक छोटी ट्रॉली ) में पीछे बैठ कर विदा हुई. ड्राईवर के साथ उसका भतीजा उसे छोड़ने आ रहा था. विदा से ठीक पहले, सास और दोनों जेठानियों ने खोईंछा भरा. सास ने सारा प्रयोजन बाएं हाथ से निबेरा. दाहिने हाथ में खटिया का पाया पकड़कर, कल रात, कामना को पीटने से उनका हाथ भी सूज गया था. तो भी आज अपने भाव में वो बोसीदा लग रही थीं. उन्होंने दूब, हल्दी, सिंदूर, खड़े दाने का पसेरी भर चावल और इक्कीस रुपये, कामना की कुचैली साड़ी में रखे.

इनमें कोई संवाद संभव नहीं था. सास ‘घर दुआर धरती अकास’ को बता रही थी, मनई के दुख मनई ही जाने. हम तो चाहत रहे पतोहू यही रहे पर भगवान तहार लीला अपरंपार. जेठानियों ने मुट्ठी खड़ा चावल और ग्यारह ग्यारह रुपये खोईंछा में डाले और छोटी जेठानी ने कामना के सूजे गालों पर चिकोटी मसला और छेड़ चलाया: जा छिनरो, काट मजा. कामना की गर्दन पर, पीछे की तरफ से ही, अगर कल रात खटिए के पाए न मारे गए होते तो वह जवाब जरूर देती, पर पहली बार किसी को जवाब दिए बिना जाने दिया.

नईहर तक के अधूरे रास्ते तय करते हुए उसे तकलीफ उठानी पड़ी. पर अपने गांव का सीमाना देखते ही जाने उसमें कौन सी लहर व्याप गई कि उससे ससुराल वालों को सरापना (श्राप देना) शुरू किया. फूहड़-फूहड़ गालियों की बौछार ऐसी कि छोटा हाथी के इंजन का शोर भी कामना की आवाज को पी नहीं पा रहा था. छोड़ने वाले उसे मय सामान गांव के सीवान पर ही उतार कर चले गए.

आठ वर्ष बाद नईहर – देश आकर वो भूलभूलैयां में पड़ गई थी. पहचाने लोगों की शक्ल-ओ-सीरत सब बदल गई थी. नए निहोरे लौंडे लपाड़े घूमते दीखते जो कामना की मौजूदगी कुछ इस तरह स्वीकारते थे, ‘यही है झगड़हिनिया कमिनिया.’ गांव की गलियां लोगों के ख्यालों से भी तंग हो गई थीं. गालियों और झगड़े वाले अपने शब्द भंडार में वो अर्थ भर नहीं पाती जो उसके भाव उकेरते थे, फिर भी उन्हीं किन्हीं दिनों इस आशय का कुछ सोचा: अब उसका इस दुनिया में जीने का मन नहीं करता. भौजाइयां उसे बतातीं कि कौन-सा कमरा किसका है तब भी वह मुस्कराती, यह सोचते हुए कि अपने ही घर में पता पूछना पड़ रहा है.

पहली दफा कचहरी जाने के दिन उसकी भौजाईयां उसे तैयार करा रही थीं. मंझली ने पाया कामना को बुखार है. किसी और को इत्तला करने से पहले पति को बता आई. बहन के मानस में सम्मान छेंकने की लड़ाई में हल्की बढ़त बनाते हुए मंझले ने बात बढ़ाई, ‘बहिनी को लेकर पहले वैद्य से मिलते हैं फिर कोई कोर्ट कचहरी होगी.’

कमजर्फ वैद्य ने मुस्की काटते हुए सबको सुनाया,  ‘दुल्हिन को प्रेम ज्वर है.’ वैद्य के शब्द चयन पर लोग अमूमन शर्म और हैरानी व्यक्त कर रह जाते हैं. अपनी वैद्यकी पर लोगों के यकीन के नाते वो सार्वजनिक दिल्लगियां करते रहता था. पर इधर तो लड़ाई ही दूसरी थी. दो मानसिक गरीब पर शारीरिक मजबूत घराने लड़ रहे थे और फिर आपस का बांट बखरा वाला अंदेशा भी भाइयों में व्यापने लगा था. इसलिए छोटे ने मंझले की बढ़त कुचलते हुए वैद्य को चिल्ला कर हड़काया. कहना कठिन है बहन कितनी चैतन्य थी और कितनी तरजीह इन बातों को दे रही थी.

दवा दारू लेकर वो सब तहसील कचहरी पहुंचे. कचहरी की जगह सीली थी. बाहर तिरपाल ताने उंघते अनमने से टाइपिस्ट, कचहरी की दीवार फाड़कर झांकने के अंदाज में उगे पीपल के कुछ पौधे. अधिकतर कमरों में बंद ताले. गाली-गुफ्तार से हहराता कचहरी का अहाता. कामना का अंदेशा सच साबित हुआ. ससुराल वाले भी आए थे. इन सबके बीच पायलगी देर तक चली. यह सब उम्र के मुताबिक नहीं, रिश्ते के मुताबिक हुआ. जैसे, उम्र में छोटे जेठ का पैर कामना के बड़े भाई ने छुआ. ऐसे मिल रहे थे मानो किसी और के झगड़े में आए हों. कामना किसी टाइपिस्ट की चौकी पर नीम तले बैठी रही. बिना घूंघट किए. दोनों पक्ष के वकील, वकालत छोड़कर सब कुछ जानते थे. समझौते को दुनियादारी की संज्ञा से पुकारते और चाहते थे कि इन दोनों पक्षों की सुलह भी कचहरी के बाहर हो जाए. यही तरीका है. पहले जायदाद के फायदे दिखा कर अदालती मामला दर्ज करा दो, कई दफे फीस और खर्चे तमाम वसूल लो फिर सुलहा-सुलुफ करा दो. कामना के भाई सब, बहन को उसका, सोलह बीघे वाला, अधिकार दिलाना चाहते थे.

न्यायाधीश की टुटही कुर्सी के सामने ही दोनों पक्ष आपस में भिड़ गए. ससुराल वालों में से एक ने बंदूक निकाल ली. बंदूक के दरस पाकर सबसे पहले सिपहिया सब कचहरी से फरार हो गए. ससुराल वाले अपने वकील तक को बोलने नहीं दे रहे थे. सबसे बड़ा जेठ गुस्से में बोलते-बोलते अपनी ही जीभ दांतों से काट बैठा तो संझले ने मोर्चा संभाला, जिसके पास बंदूक थी, ‘मलिकार ( न्यायाधीश को संबोधित ), मौली गांव के कुबाभन सब बहन की कमाई खाना चाहते हैं. धंधा कर लो, बहिंचो. बड़का, बहिनी को अधिकार दिलाने आए. मलिकार, अभी से हमारी पुश्तैनी जमीन के ग्राहक चक्कर लगाने लगे हैं. बहन के हिस्से की जमीन मिलते ही ये सब बेच खाएंगे.’

लंबा एकालाप चला, उसने कामना को भी खूब सुनाया, लेकिन एक गलती कर दी. गर्मा-गर्मी के दौरान कामना को एक गाली दे दी, जिसपर वह फूट कर रो पड़ी. गाली थी, भतरकाटी ( पति की हत्यारन ). इतना सुनना था कि उन बहादुरों की बंदूकें धरी की धरी रह गईं. कामना के भाइयों ने उसके जेठों और देवरों को कुर्सियों से मार-मार कर कुर्सियां तोड़ डाली. कूटने के बाद छोटे भाई ने हांफते कहा, ‘बहिन का हिस्सा तो तोर बाप भी लिखेगा रे, दोगलासन.’

ये लोग ससुराल वालों को कूंचकांचकर और बहन रुलाई रुकवाकर लौट रहे थे तब सिपहिया लोग आते दिखे. वही सब सिपाही जो दोनाली देख कर भाग गए थे. बिना किसी दरयाफ्त के उन सबों ने सफाई पेश की, ‘खैनी चूना वास्ते टहलने निकल आए थे. सब निबट गया ? पांड़े बाबा, बोहनी कराओ.’ मंझले भाई ने सौ-सौ के चार नोट अपनी जांघ पर रखे और कहा, ‘ले जाओ दरोगा जी, तेल लगाने के काम आएगा.’ बड़के ने आंख तरेर कर बात घुमाई, कहा, ‘लड़बक, और पैसे उठा कर नायब के पैंट और जांघिए में कहीं खोंस दिए.’

पुलिसवाले सोच नहीं पा रहे थे कि दरोगा वाले संबोधन से खुश हो लें या बाकी बातों का बुरा मान जाएं. बड़े भाई ने फिर कहा, ‘दरोगा बाबू, गांव की ओर कभी आओ.’ इस तरह पुलिसवाले अपनी आबरू को लेकर आश्वस्त हुए. दरअसल, इस इलाके में पुलिस इतनी बदनाम थी कि अगर ये दो-चार की संख्या में हुए और कोई गलती कर दी तो बड़ी मार पिटाई खाते थे. हां अगर दलबल के साथ हों तो फिर मामला उल्टा हो जाता था. यहां इन्हें डर था कि कुछ भी उल्टा सीधा हुआ नहीं कि सारी कचहरी मिल कर मारेगी.

भारत से दूर-देश के इस हरे भरे फिर भी अधमरे इलाके में वकीलों का बोलबाला था. अदालतों के आ जाने से जायदाद और मिल्कीयत के मामलों में पंचायती या बाहुबली फैसले अवैध हो गए थे. वकील थे कि वकालत से अलग सब करते थे. वो कोई भी राय दे सकते थे और मौके बेमौके उसे सही साबित कर सकते थे. कामना के ही मामले में जब दोनों तरफ के वकीलों ने सलाह दी, तारीखों पर आया करो, सब आते रहे. कचहरी में ही झगड़ते रहे. फिर सलाह दी, कामना जिस घर अधिक समय गुजारेगी, उसकी दावेदारी अधिक होगी. इस मशविरे पर कामना के अपहरण का सिलसिला शुरू हुआ, जो तब तक चला जब तक कामना बीमार न पड़ गई.

दोनों तरफ के लोग जब झल्लाते, ऊबते, अदालती खर्चों से चिहुंकते तो कामना की पिटाई करते थे. ऐसे तो उसका बड़ा मान-जान था पर परेशान होते ही लोग उसे ऊंच-नीच कहना शुरू करते थे, जिसके जवाब में वो गरियाती और फिर पिटती. कभी कभी वो गाली न भी दे, तब भी लोग उसे पीट बैठते. इसका पता कामना की रुलाई से चलता.

जब वो मार के बरक्स गाली दे-दे कर लड़ती और अपने ऊपर के वार बचा-बचा कर लड़ती तो उसकी रुलाई में शोर हुआ करता. चिल्लाहट. रूखी सी कर्कश रुलाई. चोट उसे फिर भी आई होती पर उसके रोने से आप समझ जाते कि यह रुलाई मुकाबले में पराजित की रुलाई है. लेकिन जब वो बेकसूर पिट जाती, बिना गाली गलौज किए, तब उसकी रुलाई राहगीरों तक के मर्म को भेद देती.

कभी-कभी तो उसका रोना इतना विह्वल कर देता कि खुद पीटने वाला भी रोने लगता, वो चाहे उसके जेठ-देवर हों या सगे भाई. भौजाईयां भी चाहती कि वो खूब पिटे पर पिटाई शुरू होते ही वो ननद के पक्ष में रोने लगतीं. ऐसे में पीट चुके लोगों का तर्क होता था – क्या हुआ जो उसने मुंह से गाली नहीं दी, पर उन्होंने गाली को उसके गले में ही देख लिया था. कामना जिससे भी पिटती, उससे बातचीत बंद कर देती थी. धीरे-धीरे नईहर गांव के दर्जी से अलग कोई उससे बात करने वाला नहीं बचा. सबको इसका दु:ख था कि क्यों नहीं कामना खुद से अपनी जायदाद उनके नाम कर देती है.

ससुराल वालों को कामना का व्यवहार इतना अखरा कि उन्होंने कामना के पति वाली बीमारी का हल्ला कामना के नाम पर फूंक दिया. भाइयों का भी यही हाल लेकिन वे इस उम्मीद में चुप थे कि आज नहीं तो कल, सब मिलना ही है. कामना के सातों भाइयों में बंटवारा हो चुका था और सिवाय कामना की जायदाद के वो किसी मुद्दे पर एकमत नहीं हो सकते थे.

दर्जी की बात दूसरी थी. जब से कामना नईहर लौटी, उसका स्वास्थ्य गिरता चला जा रहा था. आए दिन, कपड़े चुस्त कराने या पुराने कपड़ों को उघड़वा कर नया बनवाने के लिए कामना दर्जी तक जाया करती.

दर्जी का नाम मियां जी पड़ चुका था और उन्होंने अपने डरे सहमेपन के नाते गांव में अच्छा खासा सम्मान  कमा रखा था. जब भी कामना वहां जाती, देर तक बैठती. लोग आते, अक्सर औरतें और दर्जी से बातचीत के बीच कामना को ऐसे देख लेते जैसे वो किसी परिचित गांव की अपरिचित है. वो वहीं बैठी रहती, जब लोग चले जाते तो कुछ न कुछ बतियाती. होशियारों का शुबहा था कि दर्जी ही कामना का वकील बना है.

जबकि कामना मियां जी से जो बातें करती उसका कुल लक्ष्य होता था, जैसे वह दर्जी के माध्यम से अपने जीवन को जानना समझना चाहती हो. कामना का एकमात्र अपराध अकेला पड़ जाना था. इतना वो समझती थी. इसका दुख भी उसे था. वो दर्जी से अपने बारे में. अपनी शादी के बारे में पूछती. अपने पिता का चेहरा वो भूलने लगी थी. पिता उसे खास कोई प्यार भी नहीं करते थे. फिर भी खोई हुई उम्मीद की रोशनी की तरह उनके बारे में पूछती. मियां जी सिलाई मशीन की धुन पर उसे बहुत कुछ सुनाते. कुछ स्मृतियों के आसरे, कुछ गढ़कर, कुछ अपने जीवन का मिलाकर.. कामना के जीवन के किस्से पूरते.

मियां जी के किस्सों पर सवार कामना अपना जीवन देखती. पलटती और पाती कि उसे सब हूबहू याद आ रहा है. मसलन बचपन से ही उसके झगड़ालू होने को उसके खिलाफ इस्तेमाल किया गया. गांव में लड़ाका के नाम से वह मशहूर थी. कोई नहीं जानता, पंद्रह बीस सगे-चचेरे भाई-बहनों के बीच कब क्या हुआ कि कामना झगड़ालू दर झगड़ालू होती गई. लोग उसके इस स्वभाव का फायदा उठाते थे. किसी भी गलती के लिए उसे दोषी ठहराते हुए जैसे सब यही मान कर चलते थे कि झगड़ालू है तो भूल गलती इसी की होगी.

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नीलाकाश क्षेत्रीमयूम

कामना के ब्याह में भी यह आरोप इस्तेमाल हुआ. ब्याह तय होने के तीन-चार महीने तक लोग यही बातें करते रहे कि खेतिहर के घर जा रही है– भाग्यशाली है, दूल्हे के पिता का नाम काम बड़ा है, बरसों-बरस से दोनों पहर का चूल्हा इनके घर जलता रहा है, दूल्हे का बड़ा भाई कचहरी में चपरास लगा है.

शादी तय तपाड़ होने के पांच महीने बाद कामना की मां को यह ख्याल आया, दूल्हा कैसा होगा ? किसी ने देखा भी है या नहीं ? कामना के पिता से पूछा. उनका कहना था, लड़का क्या देखना, यह नसीब की बात है. कामना के भाई ने बताया, ‘लड़का ट्रक चलाता है, जल्द ही अपना ट्रक खरीद लेगा, अभी ट्रक लेकर निकला हुआ है, ब्याह के दिनों ही आएगा.’ किसी ने पूछा, ‘लड़के का नाम ?’ दरअसल लड़के के पिता, घर बार का नाम इतना बड़ा और व्यापक था कि दूल्हे का नाम किसी को मालूम ही नहीं था.

मां को शायद पसंद न आया. सोचा, दामाद ट्रक घुमाता है, ऐबी होगा. जब तक वो शिकायत कर पाती उससे पहले ही कामना के सात भाई, सात भाभियां, तीन बहनें, तीन जीजा और पिता, सब ने समवेत स्वर में कहा- ऐसी झगड़ालू के लिए और भला कैसा लड़का चाहिए. भाइयों ने चूंकि मिलकर अभी कुछ ही दिनों पहले इसे मारा पीटा था इसलिए उनसे और उनके परिवारों से बातचीत बंद थी. वजह, चुरा कर दूध पीना, बतलाई गई थी.

कामना के बड़े भाई रामआसरे को कुछ एहसास हुआ और उन्होंने हजाम को बुलावा भेजा. हजाम आया, बख्शीश में ग्यारह रुपये पाकर नायगांव की राह चल पड़ा, जहां दूल्हे का नाम मिल सकता था.

कामना बिहंसते हुए कहती थी, ‘वहां भी सबको पानी पिला दूंगी.’ लोग मजे लेते थे. वो जानती थी, लोग आनंद ले रहे हैं इसलिए वो बढ़-चढ़ के दावे करती थी. उसका सोचना बड़ा प्यारा और जिद भरा था. वो अकेले पड़कर थक चुकी थी. हर झगड़े-झंझट के बाद वो पाती थी कि तमाम मारपीट गाली गलौज खत्म होते ही वो अकेले पड़ गई है. जिसके लिए लड़ रही होती, वो ही, पता नहीं किस मुकाम पर कामना का साथ छोड़ विरोधियों से मिल जाता. बहाना वही, ‘बहुत लहजबान है.’ कई बार तो ऐसे बद्तर मौके भी आए जब उसे अपना भोजन अलग पका कर खाना पड़ा.

कामना ने तय कर रखा था कि नए घर में प्रवेश करते ही वो अपने आप को बदल लेगी. कोई जवाबा –जवाबी नहीं. कोई झंझट नहीं. ‘कुछ भी ऐसा नहीं करना कामना’ खुद से ही कहती, ‘कि सब तुम्हें अलग-थलग कर दें.’

उम्रवान और दुनिया देखे पति के लिए शादी की रस्म ही महत्वपूर्ण थी. सो, दो से तीन दिन ही में चलता बना. ख्याल उसके भी नेक थे पर विवाह के रोमांच से वह भिज्ञ था इसलिए शुरू दिन से ही एक प्रेमिल निस्पृहता उसने पत्नी के लिए बना ली थी. कामना ने भी अपने गांव में नवेली ब्याहताओं की जो गति देखी, सुनी थी इसलिए उसे किसी बात का आश्चर्य नहीं हुआ. दुख भी नहीं. एक तो उसके साथ उसका दृढ़ निश्चय था जिसमें उसके ऊपर लगे झगड़ालू का निशान उतारना था, दूसरे गांव का उसका अनुभव कि उसने चुप-चुप रहते हुए जीना शुरू किया.

लोगों की निगाह पर वो तब चढ़ी जब उसका पति सवा साल बाद बीमार, मरणासन्न, लौटा. साथ लौटे खलासी ने बीमारी का नाम एड्स बताया और यह भी कि डॉक्टर ने कहा है, अब चलने-चलाने का वक्त आ पहुंचा है.

बीमार पति को कामना के कमरे में डाल दिया गया. कामना को उसके आगम की खबर हो चुकी थी, फिर भी सारा काम निबटा कर, घर बुहारना, चौका लीपना, बर्तन मांजना, दिया बाती करना, मसाला पीसना, खाना पकाना, ठाकुर जी को भोग लगाना,  सबको खिलाना, सास का बिस्तर लगाना, भैंस का भात चढ़ाना, खली भिगोना ..सब निबटाकर अपने कमरे में लौटी. ढिबरी की नीम रौशनी में पति को आधा-अधूरा देखा. इच्छा और अनिच्छा के बीच के किसी भाव से ही सही, पैर छुए. अशक्त पति फुसफुसाया. न मालूम कहां का चोर उसके मन में समाया कि बच्चों के लिए रखे दूध में से पसर भर निकाल पर पति के लिए लेने गई. ला ही रही थी कि पकड़ी गई. ससुराल में उसकी यह पहली पिटाई थी.

दो महीने तक स्वरूप जीवित रहा. इस बीच का उनका जीवन कामना की खातिर सर्वोत्तम साबित हुआ. ऐसा नहीं कि साथ खूब मिला. न. दरअसल साथ होने के एहसास को वह पहली मर्तबा जी रही थी. सुबह जल्द उठ कर कामना स्वरूप का बिस्तर बाहर लगा देती, यह विदाई समूचे दिन की होती थी.

एक रात स्वरूप ने हाजत की बात बताई. किसी को बताये बिना कामना खुद स्वरूप के साथ बाहर चली आई. निबटान तक वो वहीं मेड़ पर बैठी रही. यह उसके लिए पहला मौका था जब वो पति के साथ घर से बाहर निकली थी. चांद से भरी भारी रात में उसने पहल कर कहा, बैठते हैं.

अशक्त स्वरूप कामना के लिए कुछ करना चाहता था, इसलिए बैठ गया. जब बैठना मुश्किल लगने लगा तब उसने अपना सारा वजन कामना की गोद में डाल दिया. दोनों चुप थे. स्वरूप ने एक बात जरूर कही, ‘कोई भी मरना नहीं चाहता है.’ कामना आसमान देख रही थी. उसे बाबर का किस्सा मालूम नहीं था और न ही वह गीत लेकिन वह जो कुछ भी सोच रही थी कि काश पति को उसकी उम्र मिल जाए. सुबह होने तक वो दोनों वहीं रहे.

गलती भी की कि प्रेम किया.

7 COMMENTS

  1. इस कहानी ने शीर्षक से ही बाँध लिया. अंत आते आते कहानी जकड़ लेती है. चन्दन प्पांडे ने इससे पहले भी कुछ लिखा हो तो पढ़ना चाहूँगा.

    अभिनव चतुर्वेदी,
    लखनऊ

  2. चन्‍दन पांडेय ने अपने अभिनव अंदाज में इस कहानी के माध्‍यम से बताया है कि जब असीम निर्लज्‍ज्‍ा कामनायें जगती हैं तो अपनो को भी चिंदी-चिंदी करने में किसी शर्म लिहाज नैतिकता का ख्‍याल नहीं रखती और साथ ही भ्रष्‍ट व्‍यवस्‍था का भी साथ मिल जाए तो स्थिति कितनी मर्मांतक हो सकती है, मानव कैसे दानव बनकर कैसा मुर्दाखोर बन सकता है यह बखुबी इस कहानी में देखा जा सकता है….बेहद मार्मिक कहानी

  3. कहानी पढ़ने का अभ्यास नहीं रहा फिर भी यह कहानी दो सिटिंग में पढ़ गया. गाँव की याद आ गई. मेरी एक मामी थी उनके यहाँ भी जमीन जायदाद को लेकर झगड़े होते थे. कहानी अच्छी लगी.

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