फिल्म समीक्षा
फिल्म » शिप ऑफ थीसियस
निर्देशक» आनंद गांधी
लेखक » खुशबू रांका, पंकज कुमार, आनंद गांधी
कलाकार » आइदा-ऐल-कशेफ, नीरज कबी, सोहम शाह, फराज खान, विनय शुक्ला
कहानियां तीन हैं. तीसरी में एक मारवाड़ी लड़का, जो बकौल अपनी नानी बस पैसे के बारे में सोचता है, और बकौल खुद अच्छी जिंदगी जीता है क्योंकि अच्छा खाता-पीता है, दोस्तों के बीच उसकी इज्जत है और उसमें दया है, मानवता है. तो वह लड़का और उस जैसी पृष्ठभूमि वाला उसका दोस्त इस बारे में बात करते हैं कि एक आदमी के सारे पुर्जे दूसरे लोगों में लगा देते हैं तो फिर वह आदमी जिंदा है या मर गया, या वह कौन है. क्या आदमी में कुछ है उसके पुर्जों से अलग? और वह दोस्त, जो अब तक की फिल्म में ना सोचने वाला ही लगता आया है, कहता है कि कुछ तो होगा यार पुर्जों से अलग. यही थीसियस के जहाज की दुविधा है. और यहीं फिल्म वह बात कहती है जो उसका शीर्षक है. कि एक-एक कर एक जहाज के सारे पुर्जों की जगह दूसरे जहाज के सारे पुर्जे लगा दिए जाएं और उसी तरह एक-एक कर दूसरे जहाज में पहले के, तो कौनसा जहाज कौन-सा होगा?