वैमनस्य के पुलिंदे
धर्म अगर वैमनस्य कराएँ, तो उन्हें धर्म कहना उचित नहीं है। वैमनस्य तो बँटवारा कराता है। वैमनस्य जितना बढ़ेगा, बँटवारा उतना ही बढ़ेगा। बँटवारा जितना बढ़ेगा, वैमनस्य भी उतना ही बढ़ेगा। लोगों में मरने-मारने की स्थितियाँ प्रबल होती जाएँगी। इन स्थितियों में प्यार नहीं, नफ़रत को बढ़ावा मिलता है। नफ़रत से अपराध की सम्भावनाएँ बढ़ती हैं। धर्मों का यह काम नहीं होना चाहिए। धर्मों की रचना तो लोगों को सन्मार्ग पर लाने और ईश्वर से जोडऩे के लिए की गयी है। लेकिन जो धर्म इंसानों को ही जोडक़र नहीं रख पाएँ, उन धर्मों से लोगों को ईश्वर से जोडऩे की उम्मीद करना ही बेमानी है।
हालाँकि लोगों ने धर्म उन निर्जीव किताबों को समझ लिया है, जिनमें धर्म के मार्ग बताये गये हैं। और धर्म का मार्गदर्शक उन्हें समझ लिया है, जिन्हें स्वयं धर्म का ज्ञान ही नहीं है। यही वजह है कि धर्म ग्रन्थों को ढोने वालों को लोग इतना महत्त्व दे देते हैं कि उनके हर बुरे क़दम को भी सही मान लेते हैं। विडम्बना यह है कि जो स्वयंभू लोग धर्म के ठेकेदार बने हुए हैं, वही वैमनस्य और बँटवारे की खाई खोदते हैं। लोग नहीं समझते कि जो धर्म के नाम पर लोगों को बाँट रहे हैं। लोगों में वैमनस्य का भाव भर रहे हैं, वे ईश्वर से उन्हें जोडऩे का मार्ग कैसे बता सकते हैं? वे किसी को मोक्ष का सही रास्ता कैसे बता सकते हैं? उन्हें तो यही नहीं पता कि स्वर्ग और नर्क कहते किसे हैं? जिन्हें इतनी छोटी बात नहीं पता, वे मोक्ष के बारे में भला क्या समझ सकते हैं? सब लिखी-लिखायी बातों को रटकर, उसमें मिर्च-मसाला लगाकर बता देते हैं। पता किसी को कुछ नहीं। महामूर्खों की एक पूरी फ़ौज खड़ी है दुनिया के हर धर्म में, जो स्वयं भी अन्धे हैं और लोगों को लगातार मूर्ख बनाये जा रहे हैं। सब अपने-अपने तथाकथित धर्म को बचाने के लिए लोगों को आतंकवादी बनाने पर तुले हैं। और कह रहे हैं कि आप अगर अपने धर्म के लिए मर जाओगे या मार दोगे, तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा।
ये कैसी बेहूदा बातें हैं? भला किसी को मारकर कोई स्वर्ग कैसे पा सकता है? उसका पूरा जीवन ही बेचैनी में बीतेगा। जब बर्बाद हो जाएगा, तो उसे बाद में स्वर्ग कैसे मिलेगा? क्या ईश्वर इतनी अन्यायी हो सकता है कि अपने ही बच्चों को आपस में लड़वाकर, कटवाकर, मरवाकर उनमें से कुछ को स्वर्ग दे दे और कुछ को नरक? अगर ऐसा है, तो फिर ईश्वर न्यायप्रिय कैसे हुआ? फिर वह सबका पिता भी कैसे हुआ? फिर वह ईश्वर भी कैसे हुआ? वह भाग्यों का निर्णय कैसे लेगा? ईश्वर कोई तुम्हारा अन्यायी नेता तो नहीं, जो सत्ता पाने के बाद स्वयं ही न्यायाधीश बन बैठा है, और जो उसके लिए समाज में मारकाट मचाते हैं, निहत्थों और लाचारों पर अन्याय करते हैं, उन्हें बड़े-बड़े पद देता है; भले ही वे कितने भी $गलत क्यों न हों? ईश्वर आख़िर ईश्वर है। उसके लिए सब बराबर हैं। क्या मनुष्य और क्या दूसरे जीव-जन्तु। और यह बात सब जानते हैं। फिर भी इसके उलट सब मूर्खों की तरह नफ़रत की बातों स्वीकार करके तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के इशारे पर न जाने कौन-कौन से अपराध करने पर आमादा हैं। वैमनस्य को धारण किये बैठे हैं और आपस में लगातार बँटते जा रहे हैं।