विराट कोहली इस मोर्चे पर काबू में दिखते हैं. उनकी फिटनेस का ही नतीजा है कि वे इस दौर के सबसे अच्छे फील्डरों में शुमार होते हैं. वैसे इस मामले में खुद से भी बेहतर वे सचिन तेंदुलकर को बताते हैं. कोहली का मानना है कि तेंदुलकर फिटनेस का प्रतिमान हैं और उन्होंने 40 की उम्र तक भी फिटनेस का जो स्तर बनाकर रखा है, उसी से उन्हें प्रेरणा मिलती है. यानी वे बिल्कुल सही राह पर हैं. शुरुआत में कोहली के आक्रामक रवैये और देर रात तक चलने वाली आईपीएल पार्टियों में उनकी मौजूदगी पर भी सवाल खड़े किए गए थे. 2012 में ऑस्ट्रेलिया में एक मैच के दौरान हूटिंग करते दर्शकों को उंगली दिखाने के लिए भी उनकी आलोचना हुई और जुर्माने के तौर पर उनकी मैच फीस भी कटी. लेकिन बीते कुछ समय के दौरान उनके साक्षात्कार गौर से देखें तो अब वे काफी बदले हुए नजर आते हैं. वक्त के साथ उनमें आई परिपक्वता साफ दिखती है. वे मानते हैं कि जब उम्र कम होती है तो आदमी को बहुत-सी चीजों की समझ नहीं होती लेकिन धीरे-धीरे उन्हें समझ में आ गया है कि मर्यादा में रहना महत्वपूर्ण है. हालांकि वे अपनी आक्रामकता को सही ठहराते हैं. उनके मुताबिक हर इंसान की अपनी कुछ विशेषताएं होती हैं. रिकी पॉन्टिंग या विव रिचर्ड्स भी अपने दौर में विरोधी टीम पर बैट और व्यवहार दोनों तरह से हमलावर रहते थे और ये दोनों ही क्रिकेट के महान खिलाड़ियों की सूची में शामिल हैं. कोहली यह भी कहते हैं कि उनका एक साधारण परिवार से ताल्लुक रखना उनके पांव जमीन पर रखने में उनकी मदद करता है. वे मानते हैं कि अतीत में उनसे गलतियां हुईं लेकिन वे उनसे सबक सीखकर आगे बढ़ना चाहते हैं.
उन्होंने ऐसा किया भी है. वक्त के साथ उनसे ज्यादा उनका प्रदर्शन उनके बारे में बोलने लगा है. बचपन के दिनों से कोहली के कोच राजकुमार शर्मा मानते हैं कि सहज आत्मविश्वास और असाधारण प्रतिभा उनमें शुरू से ही रही है. पूर्व क्रिकेटर कृष्णामाचारी श्रीकांत के मुताबिक इन गुणों में परिपक्वता के मेल ने कोहली के खेल को एक अलग ही स्तर पर पहुंचा दिया है.
इसलिए आश्चर्य नहीं कि दुनिया उनके पीछे है. खेल से जुड़े सामान बनाने वाली मशहूर कंपनी एडिडास के साथ उन्होंने हाल ही में तीन साल के लिए 10 करोड़ रु सालाना फीस के साथ एक अनुबंध किया है और खबरों के मुताबिक विज्ञापनों से होने वाली कमाई के मामले में अब वे तेंदुलकर और धोनी से भी आगे निकल गए हैं. कोहली 13 उत्पादों के ब्रांड एंबेसडर हैं. डियोड्रेंट से लेकर सीमा सुरक्षा बल तक तमाम विज्ञापनों में उनका चेहरा दिखता है. इसका एक कारण मैदान पर उनका प्रदर्शन है और दूसरा यह माना जाता है कि वे किसी पेशेवर मॉडल और अभिनेता से कम नहीं लगते. दरअसल विज्ञापन किसी चॉकलेट का हो या शैंपू का, कोहली की मौजूदगी के अलावा उनका अभिनय भी उसे प्रभावशाली बनाता है. इसके बारे में पूछने पर वे चुटकी लेते हुए कहते हैं कि उन्हें शूटिंग के सिलसिले में सेट पर लंबा वक्त बिताना अच्छा नहीं लगता इसलिए वे पूरी कोशिश करते हैं कि रीटेक न हो और शायद यही चीज उनकी एक्टिंग को सहज बना देती है. हालांकि उनकी नजर में विज्ञापनों का उतना महत्व नहीं है. एक हालिया साक्षात्कार में वे कहते हैं, ‘मैं जानता हूं कि यह सब मेरे प्रदर्शन की बदौलत है, इसलिए मैं उस पर ज्यादा ध्यान देता हूं. विज्ञापन मेरे लिए बोनस की तरह हैं.’
कहें वे कुछ भी, बाजार उनके पीछे भाग रहा है. क्रिकेट के कारोबारी पहलुओं पर अपने आकलन के लिए चर्चित ब्रिटिश पत्रिका स्पोर्ट्सप्रो ने साल 2013 के लिए ऐसे 50 खिलाड़ियों की सूची बनाई है जो प्रचार के लिए सबसे मुफीद हैं. कोहली इसमें 13वें स्थान पर हैं और वे रफेल नाडाल और मारिया शारापोवा जैसे दिग्गजों से भी आगे हैं. कुछ समय पहले विख्यात अंतरराष्ट्रीय फैशन पत्रिका जीक्यू ने उन पुरुषों की सूची में उन्हें दुनिया में तीसरे नंबर पर रखा था जिनका वस्त्र विन्यास बहुत आकर्षक माना जाता है. पत्रिका का कहना है कि कोहली भारत में जितना अपनी बल्लेबाजी के लिए जाने जाते हैं उतना ही अपनी स्टाइल के लिए भी. इस सूची में अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा भी हैं.
लेकिन क्या यह सर्वगुणसंपन्नता उन्हें सचिन तेंदुलकर के पार ले जा सकती है?
दरअसल नायकों के उभरने में उनकी योग्यता के साथ-साथ परिस्थितियों का भी योगदान होता है. योग्यता पर किसी शक-शुबह की गुंजाइश रही नहीं, इसलिए इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब पाने के लिए इसे दूसरी तरह से पूछा जाना चाहिए. क्या आज हमारे देश में ऐसी परिस्थितियां हैं जो सचिन जैसे किसी दूसरे महानायक के उभार को मदद दे सकें?
[box]कीर्तिमानों का सिलसिला
एकदिवसीय क्रिकेट में सबसे तेजी से 5000 रन
एकदिवसीय क्रिकेट में सबसे तेजी से 17 शतक के आंकड़े तक पहुंचने वाले बल्लेबाज
पिछले तीन साल के दौरान एकदिवसीय मैचों में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले भारतीय बल्लेबाज
2012 में टेस्ट मैचों में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले भारतीय बल्लेबाज
पाकिस्तान के खिलाफ एकदिवसीय मैचों में सबसे बड़ा स्कोर (183) बनाने वाले बल्लेबाज
एकदिवसीय मैचों में दो बार लगातार पांच मैचों में 50 या उससे ज्यादा रन बनाने वाले एकमात्र खिलाड़ी[/box]
1990 के पूर्वार्ध में जब सचिन का उदय हुआ तो परिस्थितियां भी जैसे एक महानायक का इंतजार ही कर रही थीं. 1983 में भारत के विश्वकप जीतने के बाद देश में एकदिवसीय क्रिकेट की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई थी. यह ऐसा समय भी था जब सार्वजनिक उपलब्धियों के नाम पर गर्व करने लायक चीजें या तो खत्म हो चुकी थीं या हो रही थीं. हॉकी का स्वर्णिम काल बीत चुका था और अब वह पतन की ओर जा रही थी. 1980 में बैडमिंटन के शिखर पर पहुंचे प्रकाश पादुकोन ढलान पर थे. टेनिस में विजय अमृतराज काफी उम्मीदें पैदा करने के बाद हाशिये पर जा रहे थे. शतरंज में विश्वनाथन आनंद का तब तक उदय नहीं हुआ था. खुद क्रिकेट में ही दिग्गज बल्लेबाज सुनील गावस्कर रिटायर हो चुके थे और दूसरे दिग्गज कपिल देव अपने करियर के आखिरी और सूखे दौर में थे. राजनीति लोगों का विश्वास खो चुकी थी, साहित्य, कला, संगीत, नृत्य जैसी विधाओं की लोकप्रियता बहुत सीमित थी और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में भारतीय प्रतिभा का कोई बड़ा दखल नहीं दिख रहा था. उस दौर में बड़ी हो रही पीढ़ी के सामने कोई नायक उपलब्ध था तो वह या तो सिनेमा का हीरो था या क्रिकेटर. ऐसे समय में तेंदुलकर आए. उनकी प्रतिभा ने उस समय की पीढ़ी में एक नया आत्मविश्वास भरा. उसे यकीन दिलाया कि वह बेहिचक पश्चिम से लोहा ले सकती है. एक शिक्षक पिता की इस संतान की सफलता में मध्यवर्गीय भारत ने अपनी सफलता देखी. अपने समय की पीढ़ी को क्रिकेटरों ने अंतरराष्ट्रीय पहचान का भरोसा दिलाया और सचिन तेंदुलकर इस चलन के अगुवा बने.
इत्तेफाक से यह वही दौर था जब देश का बाजार दुनिया के लिए खुल रहा था. अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को यहां पैठ और पहचान बनाने के लिए अपने नायकों और प्रतीकों की जरूरत थी. सचिन के रूप में उन्हें ऐसा आदर्श मिला. बाजार ने क्रिकेट को हाथों-हाथ लिया और उसे अपनी जरूरतों के हिसाब से बदला भी. क्रिकेट देश का दूसरा धर्म बन गया और सचिन इसके देवता. 24 साल के करियर में वे लगभग विवादमुक्त रहकर क्रिकेट खेलते रहे. वे मैदान में हों या उससे बाहर, उनका प्रदर्शन और व्यवहार सबके लिए आदर्श बना रहा. मशहूर पत्रकार प्रभाष जोशी ने एक बार सचिन के बारे में कहा था, ‘देश चाहता है कि सपूत हो तो तेंदुलकर जैसा, टीम चाहती है कि खिलाड़ी हो तो सचिन जैसा, माता-पिता चाहते हैं कि बेटा हो तो तेंदुलकर जैसा, गुरु चाहते हैं कि शिष्य हो तो तेंदुलकर जैसा और अब तो बेटा-बेटी चाहते हैं कि पापा हों तो तेंदुलकर जैसे.’
लेकिन आज हालात बदल गए हैं. उसी बाजार का क्रिकेट में हद से ज्यादा दखल हो गया है. नतीजा यह है कि अब बहुत-से लोग क्रिकेट को खेल की तरह नहीं बल्कि किसी तमाशे की तरह देख रहे हैं. उन्हें जैसे बस कुछ ओवरों की सनसनी और आइटम गर्ल्स की तरह आने-जाने वाली चीयरलीडर्स से मतलब है. एक खेल के रूप में क्रिकेट की शास्त्रीयता और नैतिकता पीछे छूट गई है. इसी दौर में क्रिकेट ने टीमों के मालिक देखे हैं और खिलाड़ी जैसे उनके जरखरीद गुलाम दिखते हैं. तिस पर आईपीएल जैसे आयोजनों में फिक्सिंग की घटनाएं कोढ़ में खाज बनकर आई हैं. बहुत-से लोग मानने लगे हैं कि खिलाड़ी गेंद और बल्ले से कविता रचने वाले देवता नहीं, महज पैसे के पीछे भागने वाले इंसान हैं. और यहीं क्रिकेट का वह जादू टूट रहा है जो इसे जुनून और धर्म में बदलता है. यह बात सिर्फ खेल विशेषज्ञ नहीं कह रहे. अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) भी इसे मानती है. 2011 में आई उसकी एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता में लगातार गिरावट आ रही है, खासकर वनडे और टेस्ट क्रिकेट की. टी-ट्वेंटी का हाल भी खास जुदा नहीं है. इस गिरावट की गवाही खाली स्टेडियम और ओवरों के बीच में आते बगैर विज्ञापन वाले ब्रेक भी दे रहे हैं. यह कुछ साल पहले सोचा भी नहीं जा सकता था. यानी निश्चित तौर पर लोगों का धर्म और उसके देवताओं पर से भरोसा उठ रहा है.
ऐसे में क्या विराट कोहली तेंदुलकर जैसा नायकत्व हासिल कर पाएंगे?
दिग्गज क्रिकेटर ब्रायन लारा सहित तमाम लोग मानते हैं कि जीनियस जो खाली जगह छोड़ते हैं उसे कभी नहीं भरा जा सकता. हाल ही में लारा का कहना था कि विराट कोहली भले ही एकदिवसीय क्रिकेट में असाधारण रूप से खेल रहे हैं लेकिन उनसे आप जब भी क्रिकेट की बात करेंगे तो वे सबसे पहले सचिन की बात करेंगे. सचिन जब आए थे तो जिन दूसरे नायकों, यानी राहुल द्रविड़ और सचिन गांगुली के साथ उनकी तिकड़ी बननी थी, उन्हें आने में छह-सात साल बाकी थे. यानी उनके सामने खाली मैदान था. विराट कोहली के साथ टीम में धोनी जैसे कप्तान हैं और रोहित शर्मा, शिखर धवन और चेतेश्वर पुजारा जैसे साथी भी जो पिछले कुछ समय से लगभग उन जैसा ही खेल रहे हैं.
और मसला सिर्फ यही नहीं है. एक खेल के रूप में क्रिकेट का संतुलन भी डगमगाया है. महेंद्र सिंह धोनी सहित तमाम लोग चिंता जता चुके हैं कि यह संतुलन अब बल्लेबाजों के पक्ष में झुका दिखता है. यही वजह है कि एकदिवसीय क्रिकेट में 300 या 350 जैसे स्कोर बनना और उनका सफलता से पीछा अब मुश्किल नहीं बल्कि आम हो चुका है. विराट कोहली से जुड़ी एक खबर पर टिप्पणी करते हुए ठाणे के इम्तियाज लिखते हैं, ‘मुझे विराट कोहली की योग्यता पर शक नहीं, लेकिन फैब फोर (तेंदुलकर, गांगुली, द्रविड़ और लक्ष्मण) से उनकी तुलना न करें. वे उनके नजदीक भी नहीं ठहरते. मेरा मतलब यह है कि अब वैसे गेंदबाज कहां हैं? क्या आज मैकग्राथ, वसीम अकरम या वकार यूनुस के मुकाबले का कोई गेंदबाज है? फैब फोर के जमाने की तुलना में रन बनाना आज ज्यादा आसान है.’
तो क्या विराट कोहली कभी सचिन तेंदुलकर जैसे महानायक नहीं बन सकते?
आधुनिक सांस्कृतिक इतिहास के संस्थापकों में से एक माने जाने वाले जॉन ह्यूजिंगा ने कहा था कि खेल मानव समाज के लिए इसलिए अहम है क्योंकि उसमें एक सीख छिपी है. खेल के कुछ नियम होते हैं और उन नियमों की सीमा में रहकर खिलाड़ियों को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना होता है. नियमों में ही खेल का जादू छिपा है कि ये नियम खेल को जीवन जैसा बनाते हैं. इनसे जो बाधाएं पैदा होती हैं उनमें आम इंसान अपने जीवन की मुश्किलें देखता है. और जब खिलाड़ी इन मुश्किलों से लोहा लेते हुए विजयी होता है तो रोज की जिंदगी में कई पराजयें झेलते आदमी को उसमें अपनी भी जीत दिखती है. इसीलिए अच्छे खिलाड़ी समाज के नायक बनते हैं और नियम तोड़ने वाले खिलाड़ी खलनायक भी. इंसानी समाज भी नियमों से चलता है जिन्हें मूल्य कहते हैं. लोग इनकी मर्यादा में रहकर अपना सबसे अच्छा प्रयास करें तो जीवन जादू बन जाता है. जब तक इंसानी सभ्यता है तब तक खेल की महत्ता रहेगी और इसलिए महानायकों के उभरने की संभावना भी.
यानी कोहली अगले और अपनी तरह के महानायक तो हो ही सकते हैं. अपने खांटी दिल्ली वाले अंदाज में वे कहते भी हैं कि वे बस अच्छा खेलना चाहते हैं, इतना अच्छा कि जब क्रिकेट छोड़ें तो लोग कहें कि खेलो तो इस बंदे जैसा.