विदेशी दृष्टि हमें कहां ले जाएगी?

delhi_dpsवीएस नायपाल ने हमारे अंग्रेजी मीडिया पर कहा था कि वे भारत की ही स्थितियों पर ऐसे बोलते-लिखते हैं जैसे किसी दूसरे देश की रिपोर्टिंग कर रहे हों. वस्तुत: यह यहां के प्रभावशाली पूरे बौद्धिक वर्ग के बारे में सच है.  विश्वविद्यालयों में समाज अध्ययन (विज्ञान) विषय की सामग्री इसका प्रमाण है.

स्कूलों के लिए लिखी पाठ्य-पुस्तकों में भी वही झलक है. राजनीति, समाजशास्त्र, इतिहास जैसे विषयों की पुस्तकें मानो बाहरी लोगों द्वारा लिखी प्रतीत होती हैं. यद्यपि लेखक, प्रकाशन संस्थान आदि सब यहीं के हैं किंतु उसकी सामग्री इतनी दूरी, तटस्थता और अजनबियत से लिखी है कि जैसे किसी विदेशी ने उसे लिखा हो. पाठों में दिए गए उदाहरण विदेशी नामों और प्रसंगों से अटे होते हैं.

जैसे एक स्कूली पाठ्य-पुस्तक में मनुष्य का रहन-सहन समझाने के लिए बस्तियों के चित्रों में यूरोपीय गांव, नगरों के चित्र दिए गए हैं. अन्य वर्णन भी ऐसे हैं मानो जीवन केवल उच्चवर्गीय, महानगरीय ही होता है. घर में कार होना, खाने के लिए रेस्टोरेंट जाना, टूरिज्म का आनंद लेना, टिन-बंद शीतल पेय का सेवन आदि ऐसे प्रस्तुत है मानो यह तो हर घर की सामान्य बात हो. इनकी उपलब्धता सब पाठकों, बच्चों के लिए सहज, रोजमर्रा की बात मान कर चली गई है. जबकि वह पुस्तक किन्हीं विशेष मंहगे विद्यालय के बच्चों के लिए नहीं, पूरे देश के सामान्य विद्यालयों के लिए लिखी गई है.

हमारी परजीविता इतनी सामान्य बन गई है कि कई लेखकों, प्रकाशकों को चिंता भी नहीं कि जो वे लिख-परोस रहे हैं, उसका कोई स्पष्ट अर्थ या सार्थकता बच्चों, शिक्षकों के लिए बनती भी है या नहीं. चैप्टर बन गए, पन्ने भर गए, तस्वीरें डल गईं, अशुद्धियां जैसे-तैसे देख ली गईं और हो गया. अब और क्या चाहिए! दिए गए पाठों में संगति और अंतर्विरोध तक देखने वाला कोई नहीं होता. जैसे, एक पुस्तक की प्रस्तुति में एक ओर तो पूरा महानगरीय वातावरण छाया हुआ है क्योंकि गांव के उदाहरण, प्रसंग, अनुभूतियां उसमें नदारद हैं. दूसरी ओर उसी पुस्तक के एक अभ्यास में बच्चे से कहा गया है, ‘अपने बगीचे से पानी छिड़कने वाला डब्बा ले आएं’. मूल पंक्ति है, ‘यू कैन टेक द स्प्रिंक्लिंग केन फ्रॉम योर गार्डेन.’ लेखक मान कर चल रहा है कि गार्डन तो है ही हर बच्चे के बंगले में!! मानो सभी बच्चे लोदी इस्टेट या बंजारा हिल्स पर रहते हों. ऐसे पाठ किस दृष्टि से लिखे गए?

अनेक पाठ्य-पुस्तकों में, चाहे इतिहास हो या भूगोल, राजनीति या अर्थशास्त्र, सभी कुछ अमेरिका या यूरोप से ही आरंभ होता है. विचार, विवरण, उदाहरण, महापुरुष, चित्र सब कुछ. विवरण भारत पहुंचता भी है तो ‘फार-ईस्ट’ (या अब ‘साउथ एशिया’) वाली विदेशी, औपनिवेशिक दृष्टि से! एक पुस्तक में लद्दाख और मध्य-एशिया के बारे में परिचयात्मक विवरण है. मात्र चार पंक्तियों में भी यह बात प्रमुखता से लिखी गई है, फिर अभ्यास-पाठ में भी दुहराई है कि वहां के लोग बौद्ध या मुसलमान हैं. किंतु उसी पुस्तक में उत्तरी अमेरिका के बारे में दिए बहुत बड़े अंश में भी यह कहीं नहीं मिलता कि वहां के लोग ईसाई हैं. क्यों? क्योंकि पाठ ही अमेरिकी-ईसाई दृष्टि से लिखा गया है, जो अपने लिए तो जानता ही है कि वह ईसाई है. उसे क्या लिखना! यह तो दूर फार-ईस्ट के देशों के बारे में ही जानने लायक बात है कि वहां के लोग मुस्लिम या बौद्ध हैं, ईसाई नहीं. भारतीय लेखकों में ऐसी दृष्टि जाने-अनजाने एक विदेशी दृष्टि के सिवा और क्या है!

इसीलिए यहां समाज विज्ञान पुस्तकों/ पत्रिकाओं का विवरण भारत के बारे में लिखते हुए भी जिन स्थितियों, समस्याओं की, अच्छी या बुरी जो भी चर्चा करता है वह प्राय: आॅक्सफोर्ड, कैंब्रिज, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालयों के प्रकाशनों या फिर उधर की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में महत्व पाई चीजों तक ही घूमता है. भारत के संबंध में भी कोलोनियलिज्म, नेशनलिज्म, सोशलिज्म, डेमोक्रेसी, कास्ट, दलित, वीमेन, जेंडर, रेन फॉरेस्ट, गुजरात, ह्यूमन राइट्स, सेक्युलरिज्म, मायनॉरिटीज, मल्टीकल्चरिज्म, अरुंधंती राय, गे राइट्स, एनवायरमेंट आदि विषय-बिंदु ही पढ़ने-पढ़ाने के लायक माने जाते हैं. अर्थात यहां के बारे में जो पश्चिमी मीडिया या विमर्श का दुराग्रह है. मानो उन चीजों के अतिरिक्त भारतीय छात्रों, लोगों के लिए और विषय महत्वपूर्ण, शिक्षणीय या विचारणीय नहीं हो सकते.

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