लतीफे भी हमसे कुछ कहते हैं!

एक लतीफा सुनिए!
चोर अभी चोरी करता कि सोने वाले से टकरा गया. लाइट जली तो उसे पता चला कि वह एक नेता के घर घुस आया है. चोर ने नेता के पैर छुए और पाइप के रास्ते नीचे उतरने लगा. नेता ने पूछा, ‘और तो सब ठीक है मगर तुमने मेरे पैर क्यों छुए?’ चोर ने कहा, ‘मैं अपने सीनियर की इज्जत करता हूं.’

लतीफा सुनकर हंसी आ सकती है. मगर यह हंसी-हंसी में बहुत कुछ कह जाता है. कुछ रहस्यों को खोलता है. हमारी लोकतांत्रिक बीमारी को डायग्नोस भी करता है. न किसी का दिल टूटा, न किसी का सर फूटा. इतने बड़े काम एक नाकुछ लतीफे ने कर डाले.

कमाल के होते हंै ये लतीफे भी. उन खिड़कियों की तरह जहां से ताजी हवा का झोंका ही नहीं आत्म-स्वीकारोक्ति का प्रकाश भी आता है. कल्पनाओं में जन्म लेने वाले, मगर खोजें तो इनकी जड़ें वर्जनाओं, विद्रूपताओं और विसंगतियों के ठोस धरातल में धंसी मिलेंगी. अकसर कुछ ठेठ सवालों से टकराने वाले ये लतीफे अपनी गुदगुदी की पॉलिश वाले आईने में हमें हमारा वह अकसर  दिखाते हैं जिसे देखने से अक्सर हम बचते हैं.

लतीफों का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी आदम के पैदा होने की कहानी. पैदा होने से जीवन के अवसान तक इनकी लय-ताल बराबर हमारे साथ चलती है. हमारे जीवन के स्पंदन को लतीफों के चटखारे में महसूस किया जा सकता है. हमारी भागती जिंदगी की गति की संगति जब बिगड़ने लगती है तब अपनी हंसी से ऊर्जा देते  हैं लतीफे. आज की हमारी जीवनशैली हमें तनाव और अवसादों के उपहार थमा रही है. हम मुरझा रहे हैं. लतीफे हमें खिलने के लिए विवश कर देते हैं. वे अपना पार्ट डॉक्टर से बढ़कर अदा कर रहे हैं और हमसे ठीक करने की कोई फीस भी नहीं लेते. हमारी चिकोटी लेते, चुटकी में अपनी बात कहते, हमें एहसास कराते कि सांस लेने और खुलकर सांस लेने में अंतर होता है. अपने जीवन में अगर हमारी हिस्सेदारी बढ़ाओगे तो अपनी जिंदगी में और ताजगी पाओगे. वे व्यक्तित्व में पाए जाने वाले नीरसता नाम के अयस्क को शोधित करते हैं.

लतीफों की दुनिया में हो सकता है, बहुतेरे जाति-वर्ग पर आधारित मिलें. मगर इसमें नटखट लतीफों का क्या दोष? हमारी क्षुद्र मानसिकता का प्रक्षेपण उस दुनिया में भी हो गया है

हमारी दुनिया की तरह इनकी भी एक दुनिया है. बहुरंगी. भेदभाव से परे. जाति-धर्म से मुक्त. हमारी दुनिया कितनी भी क्रूर हो मगर लतीफों की दुनिया जिंदादिली से भरपूर है. जब भी वहां दस्तक देंगे हमेशा ‘आपका स्वागत है’ सुनेंगे. हो सकता है आप को वहां सरदार या बाबा जी अधिक दिखें. यह भी मुमकिन है कि बहुतेरे लतीफे जाति-वर्ग पर आधारित मिलें. मगर इसमें नटखट लतीफों का क्या दोष. हमारी क्षुद्र मानसिकता का प्रक्षेपण उनकी दुनिया में भी हो गया है. इसे हमारी दुनिया का अतिक्रमण भी कहा जा सकता है.

लतीफों को सुनने में मजा आता है, मगर उनको सुनाने में अच्छे-अच्छों का दम फूल जाता है. अमूमन इनकी छवि ‘हल्के-फुल्के’ की बन गई है. क्या हम इनमें छुपे हुए मनोभावो को पढ़ पाएंगे कभी! क्योंकि हमारी यह हंसी उड़ाने की मनोवृत्ति उन्हें पकड़ने में अक्सर नाकाम हो जाती है और यह टाइमपास का तमगा लतीफों के नाम कर दिया जाता है. एक गंभीर लतीफा सुनिए. गंभीर और लतीफा! जी, सुनिए तो. जापान ने एक ऐसा टायर बनाया जिसमें छेद नहीं हो सकता था. सारे देशों में वह घूमा पर कोई सूई की नोक बराबर छेद नहीं कर सका. हमारे देश में आया. उसमें छेद तो नहीं हुआ पर वह ‘मेड इन इंडिया’ हो गया. इस लतीफे में कही गई बात कपोल-कल्पित या अतिरंजित लग सकती है. मगर क्या यह गलत है कि यह हमारे विशेष हुनर का प्रदर्शन करता है. क्या इस लतीफे को केवल मनोरंजक कहा जा सकता है?

हमने कभी सोचा है कि हर महान शख्सियत के साथ अमूमन कोई न कोई लतीफा क्यों जुड़ा होता है. चाहे वे शेख सादी हों या मिर्जा गालिब. चाहे पंडित जवाहर लाल नेहरू हों या विंस्टन चर्चिल. गालिब की मकबूलियत और बड़ी से बड़ी बात सरल ढंग से कह जाने की काबिलियत और बीरबल की हाजिरजवाबी का सूत्र क्या उनसे जुडे लतीफों में नहीं ढूंढ़ा जा सकता!

हम सभ्य मनुष्यों में संभवत: वे संस्कार अभी नहीं आए जो लतीफों के पास हैं. वे लड़ते हुए अपनी बात नहीं कहते. शायद यही बात समझाने हमें, उनकी दुनिया के चरित्र, रोज हमारी दुनिया में विचरण करने आते हैं. हमारी दिनचर्या से आबद्ध उनकी रसमय बातें, उनकी चंचल शैतानियां. अलार्म घड़ी चाहे न बजे. चाहे मुर्गा बांग न  लगाए. मगर सुबह-सवेरे ही मोबाइल पर संता और बंता हमसे मिलने हमारे घर आते हैं. हमारे दिन की शुरुआत उनके लतीफों के उगे बिना अब नहीं होती. होती है क्या?

उबासी के तेल में तले गर्म पकौड़े लतीफे. जिंदगी को स्वाद देते लतीफे. हमारे सिर का बोझ अपनी लुत्फ-मस्ती के फीते में बांधते लतीफे. नटखट-चुलबुले लेकिन जिनमें हमारी खूबसूरत जिंदगी के बुलबुले दिखाई देते हैं. जोक,चुटकुला या लतीफा, हम उन्हें सुनाते जरूर हैं मगर कभी उनकी सुनते हंै क्या! क्या हमने कभी सोचा है कि लतीफे हमें हंसी-हंसी में बता जाते हैं कि हम हैं क्या? क्या पता आपको भी इनमें जीवन का कोई सूत्र  मिल जाए.

(लतीफे और हम, 15 मार्च 2010 में प्रकाशित)