‘राहुल गांधी को अहम मुद्दों पर बात करने की जरूरत है’

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अर्थव्यवस्था संकट में है और कहा जा रहा है कि अगले कुछ सालों तक इस संकट के जाने के आसार नहीं हैं. क्या आपको लगता है कि फैसले लेने में कुछ गलतियां हुई हैं?
दुनिया का हर देश इस स्थिति से गुजर रहा है. समूची विश्व अर्थव्यवस्था पर ही दबाव है. सितंबर 2008 में अमेरिका में लीमैन ब्रदर्स के ढहने के साथ जो संकट शुरू हुआ था उससे हम अब तक नहीं उबर पाए हैं. पिछली नौ तिमाहियों से हम विकास दर का घटना ही देख रहे हैं. अब मुझे इस वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही के आंकड़ों का इंतजार है. देखते हैं हालत सुधरती है या नहीं. लेकिन मुझे यकीन है कि अगर हमने सही कदम उठाए और धैर्य रखा तो हम इन हालात से उबर जाएंगे. इसलिए मैं इतना निराश नहीं हूं. हां, हमने कुछ गलतियां की हैं, लेकिन हालात सारी दुनिया के लिए ही खराब हैं.

आपने कहा कि अगर हम सही कदम उठाएंगे तो इस संकट से बाहर निकल आएंगे. क्या आप थोड़ा विस्तार से इस बारे में बताएंगे?
जी बिल्कुल और हम वे कदम उठा भी रहे हैं. मुझे लगता है कि कुछ बुनियादी मुद्दों पर हमारी सोच बिल्कुल साफ होनी चाहिए. जैसे वित्तीय घाटा. वित्तीय घाटे (आय से ज्यादा खर्च की स्थिति) को किसी भी तरह से काबू में रखना होगा. हमें कोशिश करनी होगी कि दुनिया भर में इसके लिए जो स्वीकार्य मानक है यानी तीन फीसदी, इससे आगे यह किसी हाल में न जाए. हमें चालू खाते के घाटे (वह स्थिति जहां आयात ज्यादा हो और निर्यात कम) को घटाकर उस स्तर पर लाना होगा जहां हम इसका बोझ उठा सकें. हमें अपने खर्च पर लगाम लगानी होगी ताकि यह मुद्रास्फीति में उछाल का कारण न बने. हमें घरेलू और विदेशी निवेश, दोनों के लिए दरवाजे खुले रखने होंगे. रुपया दुनिया की उन मुद्राओं में से एक है जिनका सबसे ज्यादा लेन-देन हो रहा है. रुपये का अंतरराष्ट्रीयकरण अवश्यंभावी है. इसलिए हमें अपने वित्तीय बाजार का भी उदारीकरण करना होगा. हमें अपने बैंकों को और मजबूत बनाना होगा. ऐसे कई कदम हैं और मैं विश्वास के साथ आपसे यह भी कह सकता हूं कि इनमें से कई कदम हमने पिछले 15 महीनों के दौरान उठाए भी हैं.

आपने कुछ गलतियों की भी बात की.
देखिए. कोई ऐसा देश नहीं है जो मंदी से न गुजर रहा हो. चीन का भी वही हाल है जो हमारा है. विकास दर के मामले में चीन 10 से घटकर 7.5 फीसदी पर आ गया है. हम आठ से घटकर 5.5 पर आ गए. तो मुझे लगता है कि हमारे यहां जो हुआ वह दुनिया से कोई अलग बात नहीं है. हां, लेकिन मुझे लगता है कि हालात के यहां तक पहुंचने में कुछ योगदान हमारा भी रहा क्योंकि हमें लगा कि हम खर्च बढ़ाकर इस संकट से निपट लेंगे. अब पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि हम कोई और विकल्प भी अपना सकते थे. यह एक सामूहिक निर्णय था जो कैबिनेट ने लिया था, लेकिन मैं भी उसके लिए बराबर का जिम्मेदार हूं. इस फैसले ने वित्तीय घाटे का जो स्वीकार्य मानक था उसे तोड़ दिया. वित्तीय घाटा छह फीसदी से भी आगे जाने का खतरा हो गया. इससे चालू खाते का घाटा इतना बढ़ गया कि उसके साथ आगे बढ़ना मुश्किल हो गया. अब आप ही बताइए, 88 अरब डॉलर के चालू खाते का जो घाटा है उसकी भरपाई मैं कहां से करूं? मैं क्या कोई भी नहीं कर सकता. पिछले साल तो हम इस कमी को किसी तरह पूरा कर गए. लेकिन साल दर साल ऐसा थोड़े ही हो सकता है. और तीसरी बात यह है कि इसने मुद्रास्फीति को बढ़ा दिया. मुद्रास्फीति जैसे स्थायी मेहमान बन गई. तो मुझे लगता है कि कुछ गलतियां हुईं. लेकिन ऐसा नहीं है कि हमें पता था कि इनके परिणाम अच्छे नहीं होंगे और फिर भी हमने ये फैसले किए. वह तो जब आज के संदर्भ में हम इनका विश्लेषण करते हैं तो लगता है कि नीतियां शायद कुछ अलग हो सकती थीं.

जब आप कह रहे हैं कि सरकार के खर्च पर अंकुश लगाना चाहिए तो क्या यह दोहरे मापदंडों वाली बात नहीं है? देश की 70-80 फीसदी आबादी आज भी विकास के दायरे से बाहर है. फिर भी जब उस पर खर्च करने की बात आती है तो आप चिंता जता रहे हैं.
हम गरीब पर खर्च कर तो रहे ही हैं. मेरा कहना यह है कि हम इस आर्थिक संकट से बाहर नहीं निकल पा रहे. कोई देश कितना खर्च करे, उसकी एक सीमा होती है. देखिए, अगर आपके पास पैसा है तो खर्च करिए. आप स्वास्थ्य पर खर्च करिए, सामाजिक कल्याण पर करिए. सुरक्षा पर करिए. लेकिन यहां मैं वित्तीय घाटे की बात कर रहा हूं. यानी आप उधार लेकर खर्च कर रहे हैं. आप अगली पीढ़ी से उधार ले रहे हैं और उसे आज अपने लिए खर्च कर रहे हैं. सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा..ये सब सरकार की प्राथमिकताएं होती हैं. हमारे यहां लोकतांत्रिक सरकार की व्यवस्था है जिसमें लोग चुनकर अपने प्रतिनिधि भेजते हैं. अगर चुने गए प्रतिनिधि आपकी कसौटी पर खरे नहीं उतरे तो उन्हें बाहर कर दीजिए. लेकिन जब तक हमारे पास सरकार चलाने की यह व्यवस्था है तो हमें चुने हुए प्रतिनिधियों को अपने फैसले लेने लायक आजादी तो देनी ही होगी. अगर वे अच्छा काम करेंगे तो फिर चुने जाएंगे. अगर नहीं तो जनता उन्हें बाहर कर देगी.

कारोबारी समुदाय को लगता है कि इन दिनों देश में उसके लिए माहौल बहुत प्रतिकूल है. उसे कई तरह की मंजूरियां लेनी पड़ती हैं, उसके लिए कई पेचीदगियां पैदा की जाती हैं और कई मायनों में अब भी लाइसेंस राज जैसी ही हालत है.
लाइसेंस राज तो बड़ी हद तक खत्म हो गया है. मुझे लगता है कि इस बात की मांग हो रही है कि एक तरह का नियमन हो, लोगों से संवाद हो, उनके सुझाव सुने जाएं. पानी, जमीन जैसे संसाधनों का इस्तेमाल कैसे हो, इसके नियम बनें. अब जब आप इन मसलों पर नियमन की बात करते हैं तो साफ है कि एक नियामक भी होगा. आपको उस नियामक से मंजूरी भी लेनी पड़ेगी. मतलब यह कि या तो एक चीज होगी या फिर दूसरी. दोनों साथ-साथ नहीं हो सकतीं. हम ऐसा देश नहीं हैं जहां सरकार के लिए यह प्रावधान हो कि वह आर्थिक मामलों में कम से कम दखल देगी. हम कम नियंत्रण लेकिन ज्यादा नियमन चाहते हैं.

कई मायनों में हम नीतिगत स्तर पर लाचारी की जो यह स्थिति देख रहे हैं क्या वह एक तरह से रूपरेखा बनाने में हुई कमी का नतीजा है? क्या आपको लगता है कि नेतृत्व के स्तर पर असफलता रही है? कंपनियों के निवेश और सौदों के फैसले बोर्डरूम में होते हैं–ज्यादातर उन चिंताओं को दरकिनार करते हुए जिनकी बात हमने अभी की और एक अर्थशात्री और वित्तमंत्री होने के नाते आप उनके साथ खड़े होते हैं. लेकिन फिर वोट के लिए आपको लोगों के पास जाना पड़ता है और वहां पर अच्छी राजनीति मायने रखती है. तब आप लाचार हो जाते हैं क्योंकि वे लोग अलग-अलग कारणों से इन परियोजनाओं का विरोध करते हैं. तो क्या यह एक तरह का डिजाइन डिफेक्ट है? यानी आप परियोजनाओं की रूपरेखा बनाते हुए सभी पहलुओं पर ठीक से विचार नहीं करते.
मेरा मानना है कि गरीबी हटाने से महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण कुछ नहीं है. मुझे उनसे कोई दिक्कत नहीं है जो सरकार के फैसलों का विरोध कर रहे हैं, लोगों को सरकार के फैसलों के खिलाफ संगठित कर रहे हैं. लेकिन मेरा सवाल यही है कि क्या इस सबसे उन लोगों का कुछ भला हो रहा है जिनके लिए वे लड़ रहे हैं. क्या उनकी जिंदगी पहले से बेहतर है. अगर वे वैसे ही गरीब हैं तो मैं उनका तर्क और मॉडल खारिज करता हूं. मुझे लगता है कि सबसे महत्वपूर्ण यह है कि लोगों को गरीबी के दुश्चक्र से बाहर निकाला जाए. गरीबी सबसे बड़ी प्रदूषक है, सबसे बड़ा श्राप है. इसलिए उन लोगों की तरफ मैं बहुत संदिग्ध नजर से देखता हूं जो ऊर्जा संयंत्रों को बंद करवाते हैं, कोयला खनन नहीं होने देते, छोटे-बड़े बांधों का विरोध करते हैं. मैं यही पूछता हूं कि इससे क्या होगा. आखिर में लोग वहीं रहेंगे जहां वे थे. वे गरीब के गरीब रहेंगे. मुझे खुशी है कि इस मुद्दे पर अलग-अलग राय है. यह लोकतंत्र है. लेकिन सवाल आखिर में वही है कि क्या आप चाहते हैं कि गरीब वैसा ही रहे जैसा वह आज है. उसके लिए सड़कें और स्कूल नहीं न बनें, अगर किसी को यह लगता है कि लोग उसी गरीबी में रहना चाहते हैं तो वह इन लोगों का बुरा कर रहा है. मुझे मेधा पाटकर या अरुंधती राय जैसे लोगों से कोई दिक्कत नहीं है अगर वे मुझे यह बता दें कि उनकी विचारधारा या विरोध लोगों को गरीबी से बाहर निकाल लाएगा. मैं कार्यपालिका की गलतियों का बचाव नहीं कर रहा. नेताओं, अफसरों पुलिस और कारपोरेट्स सेक्टर से गलतियां हुई हैं, आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी गरीबी में जी रहा है तो इसमें उनका भी हाथ रहा है, लेकिन उन गलतियों को सही किया जाना चाहिए.

लेकिन क्या ये सिर्फ अच्छी बातें करना नहीं है. इससे किसी को क्या एतराज होगा?
नहीं, यह अच्छी बातें करने जैसी बात नहीं है. हमें कोयला चाहिए. या तो हम खुद अपना कोयला खोदें या फिर इसे आयात करें या फिर इसके बिना रहें. यही तीन विकल्प हैं.

एक चौथा विकल्प भी है.
क्या है वह.

कि हम यह कैसे करना है, इसकी रूपरेखा ठीक से बनाएं.
ठीक बात है. मैं इससे सहमत हूं. तो जो यह रूपरेखा बेहतर तरीके से बना सकते हैं उन्हें संसद में आना चाहिए. आप आगे आइए. संसद में आइए और बेहतर व्यवस्था दीजिए. मैं यह मानने के लिए तैयार हूं कि कोई मुझसे अच्छी योजना बना सकता है लेकिन ऐसा करने के लिए उसे इस व्यवस्था में आना होगा.

मुझे लगता है कि प्रतिभा की कमी नहीं है. नई सोच की कमी है. अगर आप यह कह रहे हैं कि आप जैसी बुद्धिमत्ता वाला आदमी नए तरीकों से काम नहीं कर सकता तो हममें से किसी में ऐसा करने की योग्यता नहीं हो सकती.
मुझे अपनी इस प्रशंसा से खुशी हुई लेकिन मैं यह मानने को तैयार नहीं कि इन मुद्दों से कैसे निपटा जाए, यह तय करने के लिए मैं ही सबसे समझदार आदमी हूं. मुझसे समझदार बहुत-से लोग होंगे. मेरा कहना यह है कि अगर आपके पास बेहतर विकल्प है, नीति है, योजना है और आप देश को चलाने की इस व्यवस्था में, लोकतंत्र में यकीन रखते हैं तो आगे आइए, इस व्यवस्था का हिस्सा बनिए और तब फैसले लीजिए. आलोचना के आवरण में छिपकर वार मत कीजिए.

इससे कोई भी असहमत नहीं हो सकता. लेकिन सवा अरब लोग चुनाव नहीं लड़ सकते. इसलिए वे अपना नेता चुनते हैं. दिक्कत यह है कि ये चुने हुए प्रतिनिधि फिर उन्हीं लोगों से दूर हो जाते हैं. हमारे प्रधानमंत्री कारोबारियों की बैठकों में जाते हैं लेकिन जंतर-मंतर पर नहीं जाते जहां आम लोग अपनी शिकायतों को लेकर धरना देते हैं. आप निवेश लाने में, उसे जमीन पर उतारने में जितना समय देते हैं उतना वक्त उन लोगों को नहीं देते जो इस विकास में हिस्सेदारी की मांग करते हैं. हम योजना में इस कमी की बात कर रहे हैं. क्या यह खाई पाटना इतना मुश्किल है?
मुझे लगता है कि यह एकतरफा कथन है कि हम लोगों की नहीं सुनते, उनसे सुझाव नहीं लेते. जब मैं अपने निर्वाचन क्षेत्र में होता हूं तो कितने ही लोगों से रोज मिलता हूं. आपको ऐसा क्यों लगता है कि हम इतने असंवेदनशील हैं? कोई मूर्ख ही होगा जो लोग क्या सोचते हैं इससे अपनी आंखें मूंदकर रखेगा. आप यह कह रहे हैं कि लोगों की सुनने के बाद भी हम गलत फैसले ले रहे हैं और आपके पास बेहतर योजना है. तो मैं आपके कथन का सम्मान करता हूं. मैं आपको आमंत्रित करता हूं कि आप मेरी जगह आएं और बेहतर फैसले लें. आपको लगता है कि यह बहुत मुश्किल है? नहीं है. जब मैं 24-25 साल का था और राजनीति में आ रहा था तो मुझे भी लगता था कि जो लोग सरकार में इतनी ऊंची जगहों पर हैं, उनकी बराबरी करना, उनके पदों तक पहुंचना बहुत मुश्किल है. लेकिन ऐसा नहीं है. मुझे लगता है कि नई पीढ़ी में कई लोग होंगे जो मुझसे बेहतर होंगे और जो मेरी जगह ले सकते हैं.

क्या आपको नहीं लगता कि आपकी सरकार में बहुत-से मुद्दों को लेकर दो ध्रुवों वाली स्थिति है? प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को लगता है कि पर्यावरण मंत्रालय उनकी राह में कांटे जैसा है.
देखिए, हमारी सरकार एक गठबंधन की सरकार है…

लेकिन कांग्रेस के भी कई मंत्री एक-दूसरे के खिलाफ जाते दिखते हैं.
मैं मानता हूं कि सोच को लेकर मतभिन्नता है. मैं इससे इनकार नहीं करूंगा. मुझे लगता है कि भविष्य में जब मुद्दों पर बहुत हठी रुख रखने वाले लोग भी सरकार में आएंगे तो भी मतभिन्नता की यह स्थिति रहेगी. और मुझे इस स्थिति से कोई समस्या नहीं है. मैं सरकार में अपने साथियों से बात करने के लिए, उन्हें समझने की कोशिश करने के लिए तैयार हूं. चार लोगों के किसी मुद्दे पर चार विचार होंगे तो बहसें होंगी ही. मैं कई मंत्रिमंडलों में रहा हूं और पिछले तीन-चार साल के दौरान हमने कई बार बहुत तीखी बहसें की हैं. लेकिन मंत्रिमंडल वाली व्यवस्था में जब एक बार कोई फैसला होता है तो आपको इसका पालन करना होता है. और अगर आपकी अंतरात्मा इसे मानने के लिए तैयार नहीं तो आप सरकार से बाहर हो जाएं. पर मुझे इसमें कुछ गलत नहीं लगता कि अलग-अलग मंत्रियों के अलग-अलग विचार हों.

2009 में आप पहले से भी अधिक धमक के साथ सत्ता में लौटे थे. आपके हिसाब से तब से अब तक ऐसा क्या हो गया कि इस सरकार से लोगों का विश्वास उठता दिख रहा है? क्या आपको लगता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कमी रही है?
सरकार में रहते हुए प्रधानमंत्री पर कोई टिप्पणी करना मेरे लिए ठीक नहीं. यह नैतिक रूप से गलत है. वे प्रधानमंत्री हैं. मैं उनके मंत्रिमंडल में मंत्री हूं, इसलिए मुझे उनके नेतृत्व को स्वीकार करना चाहिए और उसका सम्मान करना चाहिए. इसलिए मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा.

2009 में कहा जा रहा था कि यूपीए सत्ता में नहीं आएगा. हर सर्वेक्षण बता रहा था कि हम सत्ता से बाहर होंगे. लेकिन लोग हमें फिर सत्ता में लाए. उन्होंने हमारी सीटों के आंकड़े में 61 की बढ़ोतरी की और मुख्य विपक्षी पार्टी का प्रतिनिधित्व घटाया. यानी हमारी सरकार के 10 में से पांच सालों में लोगों की राय हमारे बारे में अच्छी रही. हां, दूसरे पांच साल की बात करें तो मैं देख सकता हूं और महसूस कर सकता हूं कि वोट नकारात्मक है. इसकी वजहें हैं मंदी, कार्यपालिका का अपना काम ठीक से न करना, भ्रष्टाचार के मामले, जांचें, महंगाई और नए रोजगार पहले जैसी रफ्तार से पैदा न होना. इन सब चीजों के कॉकटेल ने नकारात्मकता का माहौल बनाया है. हो सकता है हम इससे उबर जाएं, हो सकता है न उबर पाएं, लेकिन इसका फैसला जनता करेगी और हमें यह फैसला स्वीकार करना होगा. लेकिन मंदी के बावजूद पिछले नौ साल में औसत विकास दर 7.5 फीसदी रही है. यह दुख का विषय है कि मंदी इन दस सालों के आखिरी चरण में आई. काश यह उलटा होता. मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं कि यह स्थिति बदले और चुनावों में जाने से पहले माहौल सकारात्मकता की तरफ बढ़े.

आपने कार्यपालिका की कमी की बात की. अगर श्रीधरन मेट्रो की व्यवस्था इतनी सफलता से चला सकते हैं तो जिस सरकार में इतने सक्षम लोग हैं उसका प्रशासन के मोर्चे पर इतना बुरा हाल क्यों है?
यह फिर से वही प्रशंसा वाली बात है कि सरकार में इतने सक्षम लोग हैं. देखिए, सारी उंगलियां बराबर नहीं होतीं. सरकार में हर समुदाय, क्षेत्र आदि के लोग होते हैं. जरूरी नहीं कि सब के सब काम करने के मोर्चे पर उतने ही अच्छे हों. मुझे लगता है कि कार्यपालिका उतनी प्रभावी नहीं रही है जितना इसे होना चाहिए था. लेकिन कार्यपालिका का मतलब सिर्फ मंत्री नहीं हैं. मंत्री तो जिम्मेदार हैं ही, इसमें नौकरशाह भी शामिल हैं. कार्यपालिका के ज्यादातर फैसले तो सचिव जैसे नौकरशाह ही करते हैं.

आपको नहीं लगता कि इस दौर में सरकारें लोगों की नब्ज नहीं समझ पा रहीं. उन्हें नहीं लगता कि उन्हें अपने फैसलों को समझाने की जरूरत है? टूजी या कोयला आवंटन जैसे मसलों पर पीछे मुड़कर देखने क्या आपको नहीं लगता कि अगर आप यह समझाते कि इस फैसले को दूसरे विकल्पों पर इसलिए तरजीह दी गई तो आपकी सरकार के लिए स्थितियां इतनी खराब नहीं होतीं?
मुझे लगता है कि सूचना के अधिकार ने सरकारों को ऐसा करने के लिए मजबूर किया है. मैं खुद फाइलों पर विस्तृत टिप्पणियां लिखने के लिए जाना जाता हूं. हालिया कोयला घोटाले को ही लें. इस मामले में भी फैसला क्यों लिया गया यह साफ बताया गया है. इसके बावजूद कहा जाता है कि उसमें घोटाला हुआ. आप कार्यपालिका के फैसलों को भी समझें. छह महीने पहले मैंने किसी फाइल पर कोई नोट लिखा तो वह तब उपलब्ध जानकारी के आधार पर लिखा. छह महीने बाद जब मेरी जानकारी में कुछ और बातें जुड़ती हैं तो मैं उस फाइल पर कुछ और लिखता हूं. अब तीन साल बाद आप वह फैसला देखें और कहें कि एक ही फाइल पर छह महीने के फासले पर दो तरह के फैसले लिए गए और इसका मतलब यह है कि कुछ गड़बड़ है तो वह ठीक नहीं है. फैसले में यह बदलाव और तथ्यों के संज्ञान में आने के बाद हुआ. आप कार्यपालिका के फैसलों को न्यायपालिका के फैसलों की तरह नहीं देख सकते.

क्या आपको नरेंद्र मोदी का उभार देखकर किसी तरह की चिंता होती है? क्या आपको लगता है कि वे सत्ता में आ सकते हैं?
एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर हम मानते हैं कि वे हमारे लिए एक चुनौती हैं. हम उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि मुख्य विपक्षी पार्टी ने उन्हें एक चुनौती की तरह पेश किया है. एक व्यक्ति के तौर पर मैं उनकी विचारधारा से चिंतित हूं. जिस तरह की भाषा का वे इस्तेमाल करते हैं उससे भी मुझे चिंता होती है. अभी तक वे एक अपारदर्शी आवरण ओढ़े हुए हैं. उन्होंने ऐसे किसी बड़े मुद्दे पर नहीं बोला है जो इस समय देश को परेशान कर रहा है. उन्होंने बस वादे किए हैं. मैं मानता हूं कि यह करना पड़ता है क्योंकि चुनाव प्रचार का समय है. लेकिन उन्होंने अब तक कहीं यह नहीं कहा है कि इन वादों को पूरा करने के लिए उनके पास क्या विस्तृत कार्ययोजना है.

लेकिन आपका अपना नेतृत्व भी कई अहम मुद्दों पर कुछ नहीं बोल रहा?
नहीं, यह कहना गलत है. मैं अर्थव्यवस्था पर बोलता हूं. वित्त मंत्री होने के नाते आर्थिक मुद्दों पर मेरा क्या सोचना है मैं इस पर बोलता हूं. प्रधानमंत्री कई तरह के मुद्दों पर बात करते हैं. वे चुनाव रैलियों में उतना नहीं बोलते हों, उतने साक्षात्कार नहीं देते हों, जितना मैं चाहता हूं कि वे दें लेकिन वे अलग-अलग मुद्दों पर अलग-अलग मंचों से अपनी राय रखते हैं. इसके लिखित प्रमाण मौजूद हैं. इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि मुद्दों पर अपनी राय नहीं रखते. आप उस राय से असहमत हो सकते हैं, उसकी आलोचना कर सकते हैं, लेकिन यह नहीं कह सकते कि मुद्दों पर प्रधानमंत्री बोलते नहीं.

आप अपने नये नेतृत्व, जैसे राहुल गांधी के बारे में क्या कहेंगे जिनके बारे में हम बिल्कुल ही नहीं जानते कि वे कैसे काम करेंगे.
राहुल गांधी पार्टी के उपाध्यक्ष हैं. वे चुनाव रैलियों में बोल रहे हैं. पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे हैं. मुझे लगता है कि उन्होंने कुछ मुद्दों पर अपनी राय रखी है. मैं सहमत हूं कि कई मुद्दों पर अभी उन्होंने नहीं बोला है. अगर मैं उन्हें राय दे रहा होता तो मैं निश्चित रूप से यह सलाह देता कि वे अहम मुद्दों पर बहुत विस्तार से अपना रुख रखें.

भाजपा में नेतृत्व का बदलाव बहुत उठापटक वाला रहा. क्या कांग्रेस में नेतृत्व भी कुछ ऐसे ही बदलेगा?
नहीं, मुझे लगता है कि पार्टी में यह भावना है कि अगर कांग्रेस फिर सत्ता में आती है तो राहुल गांधी को पार्टी और सरकार का नेता बनना चाहिए. पार्टी में विभिन्न स्तरों पर लोगों से बात करने पर मुझे यह समझ में आता है. वे पार्टी के उपाध्यक्ष हैं. अब सत्ता में लौटने पर पार्टी किसे नेता के रूप में आगे करती है इस बारे में मैं अभी कुछ नहीं कह सकता. लेकिन नाम और लोगों की बात छोड़ दें तो मुझे लगता है कि समय आ चुका है कि अब हम कमान अगली पीढ़ी के हाथ सौंप दें.

इसका मतलब यह नहीं कि 60 साल से ज्यादा उम्र वाले लोगों को पूरी तरह से किनारे धकेल दिया जाए. लेकिन मुझे लगता है कि देश में बहुत से ऐसे युवा नेता हैं जो सरकार का हिस्सा बन सकते हैं और प्रभावी प्रशासन दे सकते हैं.