क्या आपको लगता है कि आपको इसलिए फंसाया गया कि आप दंतेवाड़ा में माओवादियों और पुलिस सुरक्षा बलों के बीच यथास्थिति को बदलने का प्रयास कर रही थीं?
जी हां. मैं अपने स्कूल में बच्चों को पढ़ाती थी. मेरे पिता भी हमारे बड़े बदेमा गांव के सरपंच थे और उन्होंने मुझे उस दौर में पढ़ाया जब दंतेवाड़ा में लड़कियों को पढ़ाने का चलन ही नहीं था. लिंगाराम भी हमारे इलाके से गोंडी भाषा में लिख-पढ़ सकने वाला पहला पत्रकार था. वह स्थानीय लोगों की भाषा जानता था, इसलिए हमारे लोगों की बात और समस्याएं बाहर की दुनिया के सामने रख सकता था. वह इसी दिशा में काम भी कर रहा था. मैं भी एक-दो स्थानीय सामाजिक संस्थाओं से जुड़ी हुई थी. हमारा परिवार आम आदिवासी परिवारों के मुकाबले राजनीतिक रूप से थोड़ा-सा सचेत था और हम आम आदिवासियों के साथ हुए अत्याचारों का विरोध करते थे. इसलिए पहले तो माओवादी और पुलिस दोनों ही हमारा इस्तेमाल करने की कोशिश में जुट गए और जब हमने उनका किसी भी तरह से सहयोग नहीं किया तो उन्होंने हम पर झूठे आरोप लगाकर हमें फर्जी केसों में फंसा दिया. आज पीछे मुड़कर देखती हूं तो यह सोचकर कांप जाती हूं कि अगर हिमांशु जी हमारे साथ नहीं होते और मीडिया ने हमारा साथ नहीं दिया होता तो शायद आज भी हम छत्तीसगढ़ की किसी जेल में सड़ रहे होते. शायद जिंदा भी नहीं होते.
आपके पति अनिल फुटाने को भी जुलाई, 2010 में एक स्थानीय कांग्रेस नेता पर हमला करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. तीन साल बाद मई, 2013 में उन्हें रिहा तो कर दिया गया लेकिन अगस्त में ही उनकी मृत्यु हो गई. आपको उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए जेल से बाहर जाने की अनुमति नहीं देने पर दंतेवाड़ा जिला अदालत की काफी आलोचना भी हुई थी. आप अपने पति को कैसे याद करती हैं ?
मेरी बेटी और घरवालों ने बताया कि रिहाई के बाद जब वे घर आए तो उनका शरीर लकवाग्रस्त हो चुका था. जब उन्हें गिरफ्तार किया गया था तब वे तीस के आस-पास के एक स्वस्थ आदमी थे लेकिन जब वापस आए तो बीमार और बहुत कमजोर हो चुके थे. मैं तो उन्हें आखरी बार देख भी नहीं सकी. अपील की थी, लेकिन अदालत ने अर्जी नहीं मानी. क्या कर सकते हैं? वे बहुत अच्छे आदमी थे और उन्होंने मुझे बच्चों को पढ़ाने के लिए बहुत प्रोत्साहित किया था. मुझे लगता है कि वे जेल में मर न जाएं इसलिए उन्हें लगभग अधमरा करके फेंक दिया गया. जब सुरक्षाबलों को यह विश्वास हो गया कि अब वे नहीं बचेंगे तो उन्हें छोड़ दिया गया.
अक्टूबर, 2011 के दौरान दंतेवाड़ा पुलिस स्टेशन में आप शारीरिक, मानसिक हिंसा और बलात्कार का शिकार हुईं लेकिन अभी तक संबंधित पुलिस अधिकारी अंकित गर्ग के खिलाफ एक प्राथमिकी तक दर्ज नहीं हुई है. इस मामले में आपने आगे क्या करने का मन बनाया है?
मुझे यह सोच कर बहुत दुख होता है कि अभी तक अंकित गर्ग के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है. दंतेवाड़ा जेल के साथ -साथ जगदलपुर जेल में भी मुझे हिंसा का सामना करना पड़ा. दंतेवाड़ा में तो उन्होंने मेरे कपड़े उतार कर मेरे शरीर में पत्थर घुसा दिए थे. मैंने सोचा है कि आगे जाकर हम अदालत में एक पिटीशन फाइल करेंगे और अदालत के सामने मेरे साथ हुए अत्याचार का संज्ञान लेकर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने की प्रार्थना करेंगे. लेकिन अब पिछले दो साल जेल में बिताने के बाद मुझे लगता है कि मेरी जैसी सैकड़ों औरतें छत्तीसगढ़ की जेलों में बंद हैं जिनके साथ हर तरह के अत्याचार हो रहे हैं. मेरे साथ-साथ इन्हें भी न्याय मिलना चाहिए.
इन महिलाओं के बारे में थोड़ा विस्तार से बताएंगी? कौन-सी जेलों में बंद हैं और इनके साथ क्या हो रहा है?
छत्तीसगढ़ में मुझे रायपुर और जगदलपुर के साथ-साथ दंतेवाड़ा की जेलों में रखा गया. वहां मैंने देखा कि सभी जेलों में महिलाओं की हालत बहुत खराब है. खास तौर पर दंतेवाड़ा और जगदलपुर की जेलों में तो अक्सर बहुतों के कपड़े उतारे जाते हैं, उन्हें बिजली के झटके दिए जाते हैं और साथ ही महिलाओं के साथ बलात्कार होना… उनका जेलों में गर्भवती हो जाना बहुत ही आम बात है. जगदलपुर जेल में तो लोगों का बहुत बुरा हाल है. सैकड़ों मासूम आदिवासियों को जेलों में बंद करके रखा गया है और उन लोगों को अपने गुनाह के साथ-साथ अपने भविष्य के बारे में भी कुछ नहीं पता. जिसको चाहा उसे उठाकर फर्जी मामलों में जेल में बंद कर दिया और लोग सालों तक फंसे रहते हैं. कोई नाम लेने वाला नहीं, बाहर किसी को पता भी नहीं चलता कि अंदर किसके साथ बलात्कार हो रहा है और कौन मर चुका है. जेल के अंदर बंद आदिवासी हमेशा मुझसे यही कहते थे कि मैं तो लिखना-पढ़ना जानती हूं, अपनी बात लिखकर बता सकती हूं और इसलिए मैं बाहर आ जाऊंगी …लेकिन वे लोग बाहर कैसे आ पाएंगे? उन्हें अपनी बात लिखकर बताना नहीं आता और कोई उनसे उनके ऊपर हो रहे अत्याचारों के बारे में पूछने नहीं आने वाला.
अपनी रिहाई के बाद आपको दिल्ली आना पड़ा. आप अपने घर जाना चाहती हैं और नहीं जा सकती, इस बारे में क्या महसूस करती हैंे?
शरणार्थी जैसा महसूस होता है. मुझे अपने घर, गांव और खेतों की बहुत याद आती है. मैं अपनी मिट्टी और अपनी जमीन को कभी नहीं भूल सकती. इस वक्त मेरे परिवार को, मेरे बच्चों, मेरे पिता को.. सबको मेरी बहुत जरूरत है. मेरे पति की मृत्यु हो चुकी है और मेरे तीनों बच्चे रिश्तेदारों के यहां बिखरे हुए हैं. पिता बहुत बीमार हैं. ऐसे में मुझे कहीं भी अच्छा नहीं लगता. जेलों और अलग-अलग शहरों में भटकते हुए लगता है जैसे मेरी जड़ों से मुझे काटा जा रहा है, जबरदस्ती. मुझे बिना वजह अपनी जन्मभूमि से दूर रखा जा रहा है…मुझे आजकल हमेशा ऐसा लगता है जैसे मैं अपने ही देश में एक शरणार्थी बनकर रह गई हूं.
दो साल के प्रयासों के बाद आपको जमानत मिली है. जीवन में आगे क्या करने की सोच रही हैं?
सब मुझसे कहते हैं कि अब दंतेवाड़ा में मैं आराम से नहीं जी सकती … जिंदा नहीं रह सकती क्योंकि हमेशा पुलिस और माओवादियों का खतरा बना रहेगा. लेकिन मैं आज भी सिर्फ अपनी जमीन पर लौटकर जाना चाहती हूं. अपने इलाके के आदिवासी बच्चों को पढ़ाना चाहती हूं. लोगों के लिए काम करना चाहती हूं. फिर इस रास्ते में चाहे जो मुसीबत आए. मैं बस अपने जंगलों और अपने परिवार से दूर नहीं रह सकती. वही मेरा घर है. मुझे वहीं वापस जाना है.
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