भारत के ‘कथित लोकतंत्र’ और उसकी ‘धर्मनिरपेक्षता’ की बखिया उधेड़ना यूरोप के मीडिया का आज से नहीं, हमेशा से ही शौक व परमधर्म, दोनों रहा है. लोकसभा के चुनाव-परिणाम और ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ नरेंद्र मोदी की ‘भूस्खलन’ विजय पर वह धर्मपालन से भला कैसे चूक सकता था. चाहे ब्रिटेन हो या जर्मनी, स्पेन हो या इटली, हर जगह अखबारों में जो कुछ लिखा या टेलीविजन पर दिखाया गया, वह काफी हद तक ‘हिंदू राष्ट्रवादी’, ‘मुस्लिम विरोधी’ और दोनों के मेल से भारत को ‘शक्तिशाली’ बनाने जैसे घिसे-पिटे पूर्वाग्रहों से ही भरपूर रहा.
निष्पक्ष पत्रकारिता का स्वघोषित दिनकर यूरोपीय मीडिया पहले तो 16 मई आने तक सोता रहा. तब तक चुनावों की कोई चर्चा ही नहीं थी. लेकिन मतगणना के आंकड़ों ने उसे चौंका दिया. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भले ही कह दिया कि मोदी अमेरिका आएं, हम उनका स्वागत करेंगे, लेकिन यूरोपीय मीडिया अपनी प्रसिद्धि को सार्थक सिद्ध करते हुए मोदी को ‘हिंदू राष्ट्रवादी’, ‘चाय पिलाने वाला’ और ‘कसाई’ करार देने में एकजुट हो गया.
बात भारत पर राज कर चुके ब्रिटेन से शुरू करते हैं. अपेक्षाकृत उदारवादी ‘गार्डियन’ ने ‘नरेंद्र मोदीः बदलते भारत का विवादास्पद मूर्तरूप’ शीर्षक के साथ लिखा, ‘सरल शुरुआत, तापसिक शैली और हिंदू राष्ट्रवाद के प्रति निष्ठा ने भाजपा के इस मुख्य प्रत्याशी को विजयी बना दिया.’ इसी अखबार के ऑनलाइन (इंटरनेट) संस्करण में कहा गया, ‘इतनी बड़ी जीत से कुछ तो अंतरराष्ट्रीय चिंता होगी ही. मोदी ध्रुवीकरण करने वाले एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन पर आलोचक सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों और अधिनायकवादी रुझानों के आरोप लगाते हैं. जनादेश इतना प्रबल है कि वे बिना सहयोगियों के अपनी कार्यसूची खुद ही तय कर सकते हैं.’ उधर, ब्रिटेन में दक्षिणपंथी झुकाव वाले ‘डेली मेल’ की उपहास-भरी टिप्पणी थी, ‘दुनिया के सबसे बड़े चुनाव के बाद, कभी चाय पिलाने वाला एक लड़का, गांधी-वंश के दशकों लंबे राज का अंत कर भारत के प्रधानमंत्री-पद की सत्ता समेटने जा रहा है.’ स्मरणीय है कि भारत में चल रहे चुनावों की उपेक्षा कर रहे पश्चिमी मीडिया की चुप्पी पर ब्रिटिश कॉमेडियन और और व्यंग्यकार जॉन ऑलिवर ने अपने एक टेलीविजन कार्यक्रम में कहा था, ‘पिछली बार जब आपने चाय पिलाने वाले एक भारतीय लड़के की रंक से राजा बन जाने की कहानी सुनी थी (फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर), तब आपने उसे कमबख्त ऑस्कर (पुरस्कार) तक दे दिया था.’ नरेंद्र मोदी का जीवन-परिचय देते हुए उन्होंने कहा कि वे भी कभी सड़क पर चाय पिलाया करते थे, आज भारत का प्रधानमंत्री बनने की राह पर हैं. ऑलिवर का कहना था, ‘यह बहुत बड़ी बात है कि भारत में यह संभव है, पर (पश्चिम के मीडिया के लिए) इतनी बड़ी फिर भी नहीं कि उसकी यहां कोई चर्चा होती.’
ब्रिटेन के ही ‘द टेलीग्राफ’ का मोदी के बारे में कहना था, ‘भारतीय संदर्भ में भूस्खलन जैसी उनकी विजय और कांग्रेस पार्टी का सफाया इंदिरा गांधी के बाद उन्हें देश का सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री बना देते हैं. वे सबसे विवादास्पद भी रहेंगे. हालांकि श्रीमती गांधी ही एकमात्र ऐसी नेता रही हैं जिन्होंने 1975 में आपात-स्थिति लगा कर भारत में लोकतंत्र को खतरे में डाला था.’ टेलीग्राफ का मानना है कि मोदी अपनी विदेशनीति में ‘हिंदुत्व’ और ‘स्वदेशी’ के सिद्धांत को अपनाते हुए विदेशी निवेश के प्रति अनुदार रुख अपना सकते हैं. लेकिन, भ्रष्टाचार से लड़ने के प्रश्न पर सहयोगी पार्टियों को साथ लेकर चलने की मनमोहन सिंह जैसी विवशता उनके सामने नहीं होगी. हां, उन्हें इस बात से कुढ़न जरूर हो सकती है कि ‘प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें दूसरों से कहने का अधिकार तो होगा, पर गुजरात के मुख्यमंत्री की तरह किसी को जमीन या कारोबार का लाइसेंस देने का अधिकार नहीं होगा.’
टेलीग्राफ का मानना है कि मोदी अपनी विदेशनीति में ‘हिंदुत्व’ और ‘स्वदेशी’ का सिद्धांत अपनाते हुए विदेशी निवेश के प्रति अनुदार रुख अपना सकते हैं
‘टेलीग्राफ’ के ही ऑनलाइन संस्करण में 16 मई को प्रकाशित अपने एक लेख में, जाने-माने पत्रकार और अब भाजपा के प्रवक्ता एमजे अकबर ने कुछ ऐसी बातें कहीं जिन्हें पश्चिम ही नहीं, भारत का मीडिया भी देखना-सुनना नहीं चाहताः ‘मोदी की चुनावी विजय कोई लहर नहीं, क्रांति है. उसने भारत को पिछली सदी की राजनीति से ऊपर उठा दिया है और गांधी-वंश के सामंती राज से मुक्ति दिला दी है.’ अकबर का कहना है कि चुनाव को दलगत या संप्रदायगत भावनाओं से प्रेरित बताना ‘बकवास’ है. वह ‘एक नए भारत के लिए सभी भारतीयों की जीत है.’ वह अल्पसंख्यकों को बहलाने-फुसलाने का, सत्ता और भ्रष्टाचार के बीच ‘साझेदारी’ का भी अंत है. मतदान के विश्लेषण दिखाते हैं कि ‘राजस्थान के 30 प्रतिशत मुसलमानों ने नरेंद्र मोदी के समर्थन में मतदान किया. भारी मात्रा में मुस्लिम वोटों के बिना उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में विपक्ष का इस तरह सफाया नहीं हो सकता था.’ मुसलमानों को सिर्फ इसलिए नौकरी-धंधा नहीं मिल सकता कि वे मुसलमान हैं, बल्कि इसीलिए मिल पाएगा कि वे भी इस देश के ‘बराबरी के नागरिक हैं.’
अब बात जर्मनी की. भारत में ब्रिटेन को यूरोप का चाहे जितना पर्याय माना जाए, यूरोप में तूती तो जर्मनी की ही बोलती है. जनबल और धनबल से वही यूरोप का सबसे बड़ा देश है. जर्मनी का मीडिया भारत के प्रति कटुता में उससे भी निष्ठुर कसाई है, जितना वह नरेंद्र मोदी को बताता है. जर्मनी के सबसे बड़े सार्वजनिक रेडियो और टीवी प्रसारण नेटवर्क ‘एआरडी’ के टेलीविजन समाचारों में, 16 मई को नई दिल्ली संवाददाता की जो वीडियो-रिपोर्ट प्रसारित की गई, उसका मुख्य संदेश था, ‘मोदी हिंदू राष्ट्रवादी हैं. इस्लाम के प्रति अपनी नापसंदगी को उन्होंने कभी छिपाया भी नहीं. देश के 15 प्रतिशत मुसलमान थर-थर कांप रहे हैं. इसाई और सभी दूसरे अल्पसंख्यक भी सहमे हुए हैं.’
जर्मनी के सबसे प्रसिद्ध दैनिक ‘फ्रांकफुर्टर अल्गेमाइने त्साइटुंग’ के सिंगापुर संवाददाता ने नई दिल्ली से अपनी रिपोर्ट को शीर्षक दिया, ‘मोदी और हिंदुओं के प्रतिशोधी.’ मुसलमानों के डर को 1933 के जर्मनी में हिटलर द्वारा सत्ता हथियाने के साथ जोड़ते हुए – यानी मोदी को एक तरह से भारत का भावी हिटलर बताते हुए – संवाददाता ने लिखा, ‘भय के तीन अक्षर हैं आर एस एस…. टाइम्स ऑफ इंडिया ने देश के भावी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नरम फासिस्ट बताया और एक ऐसा कार्टून छापा है, जिसमें भाजपा-अध्यक्ष उन्हें आरएसएस के सचेतक दिखा रहे हैं. हिंदू राष्ट्रवादी भाजपा की यह जीत गांवों के उन धूलभरे मैदानों पर लड़ी गई है जहां आरएसएस अपने समर्थकों से पौ फटते ही कवायद करवाता है. उग्रवादी हिंदू धर्म के हिंदुत्व-लड़ाकों के बिना मोदी की कभी जीत नहीं हो पाती.’
जर्मनी के चौथे सबसे बड़े शहर कोलोन से प्रकाशित होने वाले प्रतिष्ठित दैनिक ‘क्यौल्नर श्टाट अनत्साइगर’ ने भी टाइम्स ऑफ इंडिया वाले उद्धरण की ही आड़ लेकर यही व्यंग्य कसा कि ‘विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र ने चुनावों में ‘नरम फासिज्म’ को चुना है. अनेक विविधताओं वाले इस भीमकाय राष्ट्र ने… सहिष्णुता की अपनी परंपरा को उठाकर फेंक दिया है. उसने धार्मिक-राष्ट्रवादी विचारधारा वाले एक ऐसे आदमी को सत्ता के शिखर पर चढ़ा दिया है, जो मुसलमानों और इसाइयों सहित सभी अल्पसंख्यकों पर हिंदूवाद की मुहर लगा देना चाहता है… मोदी लोकतंत्रवादी कतई नहीं हैं.’ भारत में कहावत है, ‘कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली.’ इस रिपोर्ट का शीर्षक था, ‘चाय पिलाने वाला बना भारत का शक्ति-पुरुष.’ यानी, लेखक यही कहना चाहता है कि भारत में जब गंगू तेली भी राजा भोज बनने लगेंगे, तो उनकी रीति-नीति भी तुच्छ व संकीर्ण नहीं तो और क्या होगी!
म्युनिख से प्रकाशित होने वाले राष्ट्रीय महत्व के जर्मन दैनिक ‘ज्युुइडडोएचे त्साइटुंग’ की समझ से मोदी की जीत का प्रमुख कारण यह था कि ‘लोग मोदी को गुजरात का जादूगर मान बैठे हैं… कुछ लोग उनके नाम से सहम जाते हैं, उनकी तानाशाही शैली से आतंकित हो जाते हैं. लेकिन बहुत से भारतीय देश के ठहराव को दूर करने के लिए ठीक ऐसे ही कठोर कर्मठ हाथ की उत्कट कामना करते हैं.
So Mr.Ram Yadav what do you want to prove? Rest of world is fool?