गर्मियों की एक दोपहर. नई दिल्ली रेलवे स्टेशन. नई-दिल्ली-गुवाहाटी राजधानी एक्सप्रेस अपनी यात्रा पूरी कर चुकी है. यात्रियों को प्लेटफॉर्म पर उतारने के बाद खाली हो चुकी ट्रेन धुलाई-सफाई के लिए रेलवे स्टेशन के पीछे बने यार्ड की तरफ बढ़ रही है. अचानक एक कोच के दरवाजे पर 14-15 साल का एक लड़का लटकता नजर आता है. हमें देखते ही वह जोर से हाथ हिलाता है और लहराते हुए चलती ट्रेन से उतर जाता है. उसके हाथ में फटी पन्नियों और प्लास्टिक की बोतलों से भरा एक मटमैला बोरा है. बुरी तरह घिस चुकी हाफ पैंट और लगभग चीथड़ों में तब्दील एक बदरंग टी-शर्ट पहने इस लड़के के शरीर के लगभग हर हिस्से पर चोटों के निशान दिखते हैं. खास चमड़ी के कटने से बनने वाले ये निशान उसके शरीर पर जमी मिट्टी, धूल और गंदगी की परतों को चीरते हुए बाहर झांक रहे हैं. अपने कान पर जमे खून के ताजा थक्कों से बेखबर वह लड़का मुस्कुराते हुए हमारे सामने आकर खड़ा हो जाता है. थोड़ी कोशिशों के बाद वह थोड़ा और सहज होता है और सबसे पहले अपना मौजूदा नाम रोहन बताता है.
रोहन से यह हमारी दूसरी मुलाकात है. पहली मुलाकात बस नाम के लिए हुई थी. हमें देखते ही वह भागने लगा था. फिर जब हमने उसे आश्वस्त करते हुए बुलाया तो वह आया तो जरूर, लेकिन काफी कोशिशों के बाद भी हमसे बात करने के लिए तैयार नहीं हुआ. इस बार लगता है कि उसका हम पर कुछ भरोसा जमा है. साथ-साथ लोहे की पटरियां पार करते हुए हम स्टेशन के आखिरी छोर पर बने प्लेटफॉर्म पर बैठ जाते हैं. अपने बारे में बताते हुए रोहन कहता है, ‘मुझे नहीं पता मेरा घर कहां है. मुझे नहीं मालूम मैं कहां से आया हूं. पहले तो मेरा कोई नाम भी नहीं था. स्टेशन पर लोग मुझे लूला, पगला या गंजा कहते थे. ये नाम तो स्टेशन पर काम करने आने वाले भैया ने दिया है. मुझे आज तक घर से कभी कोई लेने नहीं आया. जब से याद पड़ता है, तब से मैं स्टेशन पर ही रहता हूं.’
रोहन बताता है कि वह नशा करता है, उसने कई चोरियां भी की हैं और गाहे-बगाहे लोगों को ब्लेड या चाकू भी मार चुका है. अपराध की दुनिया में अपने सफर के बारे में वह कहता है, ‘सब सीख जाते हैं, दीदी. जब मैं छोटा था तो बड़े लड़कों ने सिखाया. चलती ट्रेन में चढ़ना, पॉकेट मारना, पर्स उड़ाना, चाकू मारना सब. यहां के गैंगों में बड़े लड़के छोटे बच्चों को सब सिखाते हैं. मैं तो फिर भी ठीक हूं. स्टेशन के दूसरे लड़कों और कबाड़ी वालों ने तो काम के टाइम कइयों को निपटाया है. फिर यही नए बच्चे भी सीख जाते हैं.’ आती गर्मियों के आसमान में धूप ढलान की ओर बढ़ती है. शाम होने तक रोहन हमें अपनी रहस्यमयी दुनिया के कई किस्से सुनाता है. बातचीत के दौरान साफ होता है कि अनजाने में यह मासूम बच्चा लगभग संगठित तरीके से चलने वाले बच्चों के एक ऐसे आपराधिक गिरोह का हिस्सा बन चुका है जिसकी कमान वयस्क अपराधियों के हाथों में है. इस कहानी का सबसे स्याह पहलू यह है कि वह अकेला नहीं है. अपराध के जाल में फंस कर अपना बचपन गंवा रहे रोहन जैसे सैकड़ों अन्य बच्चों की कहानियां दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों में बिखरी पड़ी हैं.
अपनी दो महीने लंबी तहकीकात के दौरान तहलका ने इस मसले से जुड़ी कई छोटी-बड़ी जानकारियों और उलझे हुए बिंदुओं को जोड़ा. इससे अलग-अलग जगह, परिस्थितियों आदि में काम करने वाले बच्चों के करीब पांच प्रमुख आपराधिक गैंगों की एक चौंकाने वाली तस्वीर उभरी. दिल्ली में एक तरफ जहां तमाम बच्चे रेलवे स्टेशनों पर होने वाली लूटपाट और चाकूबाजी में शामिल, आपस में होड़ करते समूहों के तौर पर मौजूद हैं, वहीं शहर की लाल बत्तियों पर कार पंक्चर करके सामान चुराने वाले गिरोहों के रूप में भी इनकी सक्रियता देखी जा सकती है. एक तरफ राजधानी के सभी प्रमुख कबाड़ बाजारों में कबाड़ व्यापारियों की शह और मुश्किल परिस्थितियों का गठजोड़ कबाड़ बीनने वाले ज्यादातर बच्चों को अपराध के अंध-कूप में धकेल रहा है, तो बीड़ी और सिगरेट से शुरू होने वाले नशे को स्मैक और कोकीन तक पहुंचा कर बच्चों से चोरियां, डकैतियां और हत्याएं तक करवाने वाले अपराधियों का भी एक पूरा नेटवर्क शहर में सक्रिय है. नशा और चोरी-चकारी करते-करते कई बच्चे खुद भी मासूम बच्चों को नशे का आदी और अपराधी बनाने वाले कारोबार का हिस्सा बन जाते हैं.
मासूम बच्चों को अपराध की दुनिया में धकेलने वाले अपराधी घर से भाग कर आने वाले और गुमशुदा बच्चों के साथ-साथ तस्करी के शिकार बच्चों को अपना पहला शिकार बनाते हैं. साथ ही, काम की तलाश में छोटे शहरों और कस्बों से पलायन करके दिल्ली का रुख करने वाले मजदूरों के बच्चे भी जाने-अनजाने इन गिरोहों के जाल में फंस रहे हैं. बच्चों के नियोजित अपराधीकरण को लेकर अगस्त, 2012 में दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करने वाले युवा अधिवक्ता अनंत अस्थाना कहते हैं, ‘बात चाहे किसी भी तरह के अपराध में शामिल बच्चों की हो, वयस्क अपराधी अपने फायदे के लिए इनका इस्तेमाल करते हैं. धीरे-धीरे ये बच्चे भी अपराध की अंधेरी दुनिया का हिस्सा बन जाते हैं. हालांकि इन बच्चों को अपराध में झोंकने वाले वयस्क अपराधियों के साथ-साथ तेजी से पनप रहे बच्चों के इन आपराधिक गिरोहों के बारे में जानकारी अभी भी सीमित ही है.’ आगे दिल्ली में सक्रिय संगठित अपराधियों के जाल में फंसे उन बच्चों की कहानियां हैं जिन्हें इन अपराधियों के लालच और सभ्य समाज व व्यवस्था की आपराधिक उदासीनता ने अपराध की अंधेरी गलियों में धकेल कर उनके वापस आने वाले रास्ते बंद कर दिए हैं. बिना एक बार भी यह सोचे कि इस प्रक्रिया में हम भविष्य में उनके बड़े खूंखार अपराधियों में तब्दील होने की पूरी पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं. और उसके बाद शायद उनसे पीड़ित होने की भी.
1. कबाड़ी गैंग
दिल्ली के ओल्ड-सीमापुरी इलाके में बसी एफ ब्लाक झुग्गी बस्ती से लगभग 100 मीटर पहले ही रिक्शावाला हमें उतार देता है. पूछने पर बताया जाता है कि आगे दिल्ली की सबसे बड़ी और आपराधिक गतिविधियों के लिए बदनाम कबाड़ी बस्ती है. ज्यादातर रिक्शेवाले वहां तक सीधे जाना पसंद नहीं करते. मोहल्ले की ओर जाती सड़क पर आगे बढ़ते ही धूप और धूल भरी जमीन पर मुर्गों के कटे हुए लहूलुहान पंख, जहां-तहां पड़े बालों के गुच्छे और कतार में रखी कबाड़े से भरी बड़ी-बड़ी बदरंग बोरियां नजर आती हैं. जिंदा तत्वों के धीरे-धीरे नष्ट होने से पैदा होने वाली एक तीखी सड़ांध हमें झकझोरते हुए बताती है कि हम दिल्ली की सबसे पुरानी कबाड़ी बस्ती में दाखिल होने वाले हैं. अंदर छोटी-छोटी गलियों के किनारे बनी दड़बेनुमा खोलियों में बच्चे कभी कबाड़ साफ करते हुए तो कभी नशे के इंजेक्शन लेते नजर आते हैं. सिर्फ छह-सात फुट लंबे-चौड़े कमरे में छज्जा-सा डालकर उसमें 6-7 लोगों का परिवार गुजारा करता है. आगे बढ़कर जब हम पहला दरवाजा खटखटाते हैं तो पीली रोशनी में डूबे हुए कमरे में दो लड़के ड्रग्स का इंजेक्शन लगाते हुए दिखते हैं. उनके पीछे बैठी दो लड़कियां अपना नाम रजिया और फरहा बताती हैं. अपने हाथों में खाने की जूठी थालियां उठाए वे यह भी बताती हैं कि आज का कबाड़ साफ करने के बाद उन्होंने अभी-अभी अपना खाना खत्म किया है. रजिया और फरहा एक कमरे के अपने इसी घर में खाना खाती हैं, नशे में डूबे अपने भाइयों की लाल आंखों को बर्दाश्त करती हैं और सारी दिल्ली से आए कबाड़ को इसी के एक कोने में बैठकर साफ भी करती हैं.
कुछ दूर और आगे बढ़ने पर गली में हमें कबाड़ बीनने वाले बच्चों का एक झुंड ताश खेलता हुआ नज़र आता है. झुंड में लगभग 15 साल का एक लड़का सफेदी (स्याही मिटाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला व्हाइटनर) में भीगा रूमाल सूंघ रहा है, जबकि बाकी पत्ते बांटने में व्यस्त हैं. हमें देखते ही सब पहले कुछ फुसफुसाते हैं, फिर हंसने लगते हैं. कुछ देर की कोशिशों के बाद वे बातचीत के लिए राजी हो जाते हैं. ताश खेल रहे ये सभी बच्चे 12-16 वर्ष के हैं और इन सभी ने छोटी उम्र से ही कबाड़ बीनने का काम शुरू कर दिया था. नशे और मारपीट की आदतों के बारे में बताते हुए 16 साल का रफीक कहता है, ‘हम सभी नशा करते हैं, इंजेक्शन, दारू, फ्लूइड, गांजा, पाउडर…सब कुछ. सबसे पहले तो नशा कबाड़ी वाले ही देना शुरू करते हैं.’ तभी अचानक 14 साल का रवि बीच में ही चिल्लाते हुए कहता हैं, “अरे मैं बताऊं, जब हम कबाड़ बीनने जाते हैं तो थकान होती है. फिर वहां गुटका खाना तो अपने आप सीख जाते हैं. फिर सिगरेट की हुड़क लगती है. सिगरेट से दारू, दारू से गांजा और गांजे से फ्लूइड. जब कबाड़ बेचने जाते हैं तो वहां सेठ फ्लूइड देता है. फिर पाउडर…सुई. यही है एक कबाड़ी बच्चे की सच्चाई! जान ली, अब जाओ यहां से.’
अपनी बात खत्म करते हुए रवि लगभग हमें गली के बाहर धक्का देने लगता है. हमें बताया जाता है कि फिलहाल ये बच्चे नशे में हैं और कुछ भी कर सकते हैं. वहां से निकलते ही बस्ती के दूसरे छोर पर हमारी मुलाकात 12-13 साल के अफजल और सुरेश से होती है. दोनों सुबह-शाम कबाड़ बीनने जाते हैं. अपने काम में नशे और अपराध की मिलावट के बारे में बताते हुए वे कहते हैं, ‘सबसे पहले तो कबाड़ीवाले खुद ही हम लोगों को फ्लूइड दे देते हैं. वे हम लोगों से चोरियां करवाते हैं और फिर हमें पुलिस से भी बचाते हैं. कबाड़ीवाले हमारे लिए सब कुछ करते हैं इसलिए मेरे साथ के सारे बच्चे उनकी बात मानते हैं. फिर छिनैती, लड़ाई, चाकूबाजी और चोरी-चकारी…यहां कुछ सब चलता है.’
सीमापुरी की कबाड़ी बस्ती से निकलते-निकलते यह साफ हो जाता है कि कबाड़ बीनने वाले बच्चे अपने आस-पास के माहौल और अपने कबाड़ी सेठों के संरक्षण में अपराध और नशे की कभी न खत्म होने वाली अंधी गलियों में विचर रहे हैं. इस बस्ती के बच्चों की शिक्षा और पुनर्वास के लिए काम कर रही गैरसरकारी संस्था आशादीप फाउंडेशन से जुड़े एचके चेट्टी बताते हैं, ‘यहां कबाड़ा बीनने वाले लगभग 2,500 परिवार रहते हैं. ज्यादातर लोग बांग्लादेश से आए हैं, लेकिन इन्हें शरणार्थी होने तक का दर्जा हासिल नहीं है. पहचान नहीं होने की वजह से इन्हें कोई काम नहीं देता. इसलिए सबने कबाड़ा चुनना शुरू कर दिया. लेकिन ये लोग अपने बच्चों को कबाड़ मालिकों के यहां पनपने वाले नशे और अपराध की संस्कृति से बचा नहीं पाए.’
सीमापुरी की ही तरह दिल्ली के जहांगीरपुरी और सराय काले खां इलाकों में ऐसी ही कहानियों से पटी हुईं राजधानी की सबसे बड़ी कबाड़ी बस्तियां मौजूद हैं. इस स्टोरी के दौरान तहलका ने शहर के अगल-अलग हिस्सों में मौजूद इन कबाड़ा बस्तियों के बच्चों और कबाड़ा व्यापारियों से बात की तो अपने मुनाफे के लिए बच्चों को अपराध की दुनियां में धकेल रहे अपराधियों की तस्वीर और पुख्ता होने लगी. निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के पीछे बसी सराय काले खां झुग्गी बस्ती में मौजूद कबाड़ा व्यापारियों के यहां काम कर चुका 17 वर्षीय विवेक बताता है, ‘सराय काले खां की झुग्गी बस्तियों में तकरीबन सात कबाड़ा व्यापारी हैं, लेकिन फारूख, खाला और शाहिद ही बड़े कबाड़ी वाले हैं. कभी कबाड़ के बदले पैसा मिलता है तो कभी नशा. फिर धीरे-धीरे हम खुद ही खरीदने लगते हैं. निजामुद्दीन दरगाह के पीछे और भोगल में सड़कों पर ही मिल जाता ह.ै’ विवेक आगे कहता है, ‘यहां बच्चों को सबसे ज्यादा फ्लूइड की लत है. कुछ महीने पहले तक मैं खुद लगभग 20 डबल रोज पी जाता था. एक सेट में फ्लूइड की दो बोतल होती हैं इसलिए उसे डबल कहते हैं. कबाड़ीवाले हमें नशे के लिए चोरियां करने को भी कहते हैं. मेरे कई दोस्तों ने तो इनके कहने पर स्टेशन से बाइक चुराई और दरगाह से कितनों के पर्स उड़ाये. अगर पुलिस का मामला होता है तो कबाड़ी-वाले ही हमें बचाते हैं.’
बच्चों की इन बातों को अपने मामले में खारिज और दूसरों के मामले में स्वीकार करती, सराय काले खां की प्रमुख कबाड़ा व्यापारी रीना उर्फ खाला कहती हैं, ‘यह सब मेरे यहां नहीं होता. बाजू में वे दूसरे कबाड़ीवाले हैं न, वे सब बच्चों से चोरियां करवाते हैं और उन्हें ब्लेडबाजी, चाकूबाजी सब सिखाते हैं. उनके बच्चे सब नशा करते हैं. वे खुद उन्हें नशा देते हैं और फिर उन्हीं से बाकी बच्चे भी सीख जाते हैं.’ कबाड़ा बीनने वाले बच्चों और कबाड़ा व्यापारियों के साथ लंबे समय से काम रही गैर सरकारी संस्था चेतना से जुड़े डॉ संजय गुप्ता बताते हैं कि पहले कबाड़ा व्यापारी बच्चों को एक सुरक्षा घेरा देते हैं और फिर उनका शोषण करते हैं. वे कहते हैं, ‘पहले ये लोग सड़क पर रहने वाले बच्चों को काम देते हैं, रहने की जगह और नशा भी देते हैं. इससे बच्चों को इन पर विश्वास हो जाता है. बच्चे इनके लिए सबसे अच्छे होते हैं. वे अपनी मेहनत का पूरा पैसा नहीं मांगते, वफादार होते हैं और नशे की लत की वजह से इनके कहने पर धीरे-धीरे चोरियां भी करने लगते हैं.’
ऐसा नहीं है कि इन बच्चों के लिए कुछ कर सकने वाले लोगों को इनके साथ और इनके द्वारा जो कुछ हो रहा है उसके बारे में पता नहीं. 20 अगस्त, 2010 को किंग्सवे कैंप स्थित जूवेनाइल जस्टिस बोर्ड (बाल न्यायालय) के एक आदेश में प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट अनुराधा शुक्ल भारद्वाज का कहना था कि राजधानी के कबाड़ा व्यापारी अपने मुनाफे के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों में फंसे बच्चों का शोषण कर रहे हैं. किशोर मामलों के अधिवक्ता अनंत अस्थाना की एक विस्तृत रिपोर्ट के आधार पर दिए गए इस फैसले में ऐसे बच्चों के लिए एक नई बाल कल्याण समिति बनाने का आदेश देते हुए उनका कहना था, ‘…यह देखा जा रहा है कि इन कबाड़ा व्यापारियों की वजह से सड़कों पर रहने वाले बच्चों, झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले बच्चों या फिर गरीबी, असाक्षरता या किसी प्राकृतिक प्रकोप की वजह से पोषण और देखभाल से दूर रहे बच्चों में नशे और अपराध की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है. ये कबाड़ीवाले बहुत सुनियोजित तरीके से छोटे बच्चों को कबाड़ा बीनने का काम देते हैं, फिर उनसे चोरियां और डकैतियां करवाई जाती हैं. यह सब बच्चों को ड्रग्स, शराब और फ्लूइड के नशे का आदी बनवाकर करवाया जाता है जो उन्हें सबसे पहले इन्हीं कबाड़ा व्यापारियों के पास से मिलता है. यह पूरा माहौल भविष्य में बच्चों के एक खूंखार अपराधी बनने का रास्ता साफ कर देता है…’
अपने फैसले में बोर्ड ने पुलिस और संबंधित संस्थाओं को बच्चों के इस सुनियोजित अपराधीकरण पर तुरंत कार्रवाई करने और इस चुनौती से निपटने के लिए सख्त निर्देश तो जारी कर दिए लेकिन जमीन स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकी. आज भी सैकड़ों असहाय बच्चे कबाड़ा व्यापारियों में अपने जिंदा रहने की आस देखकर कबाड़ बीनने का काम करते हुए नशे और अपराध के बीच झूल रहे हैं.
2. ठक-ठक और टायर ‘पंचर’ गैंग
15 फरवरी, 2013 को दिल्ली पुलिस ने राजधानी के पुष्प विहार इलाके में बने दिल्ली विकास प्राधिकरण के एक पार्क में छापा मारकर तीन लोगों को गिरफ्तार किया था. प्राथमिक पड़ताल के बाद ही यह पता चल गया कि ये तीनों आरोपित नाबालिग हैं और शहर के अलग-अलग इलाकों में सक्रिय ‘टायर पंचर गैंग’ के सदस्य हैं. मुखबिरों से मिली सूचना के आधार पर दिल्ली पुलिस के सहायक पुलिस आयुक्त (ऑपरेशंस) कुलवंत सिंह के नेतृत्व में एक विशेष टीम ने इन किशोरों को अपने संरक्षण में लेकर उनसे लगभग एक करोड़ रुपये के गहने बरामद किए. तहलका से बातचीत के दौरान नाबालिग बच्चों के इस आपराधिक गैंग के बारे में जानकारी देते हुए कुलवंत सिंह कहते हैं, ‘किशोर बच्चों का यह गिरोह रेड लाइट पर खड़ी कारों के टायरों में सुआ (लोहे की बड़ी सुई) घुसाकर उनके टायर पंक्चर कर देता है. कुछ दूर जाने पर जब टायर में से हवा निकलने लगती है तो वे गाड़ी चालक को उसकी गाड़ी के टायर के बारे में बताते हैं. जब गाड़ी चालक अपने पंक्चर हो चुके टायर को देखने या बदलने में व्यस्त हो जाता है तब ये बच्चे गाड़ी से सामान चुराकर भाग जाते हैं. इन चोरियों को अंजाम देने के लिए ये बच्चे स्कूटरों और मोटर-बाइकों का भी इस्तेमाल करते हैं. यह गिरोह लैपटॉप और मोबाइल के साथ-साथ नगदी, सोने के बिस्कुट और गहनों की बड़ी चोरियां भी करता है. अक्टूबर, 2012 में भी हमने चांदनी चौक के एक व्यापारी से साढ़े तीन किलो सोना चुराने वाले इसी गिरोह के बच्चों को पकड़ा था.’
किशोरों के संगठित गिरोहों द्वारा लाल बत्तियों पर गाड़ियां लूटने के मामले 2009 से ही सामने आने लगे थे. शुरुआत में बच्चे लाल बत्तियों पर खड़ी गाडि़यों के शीशों पर हाथ मारकर ठक-ठक की आवाज करते और गाड़ी चालक के शीशा नीचे करते ही उसका ध्यान बंटाकर गाड़ी में रखा सामान लेकर चंपत हो जाते. दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में हो रही ऐसी तमाम घटनाओं में मौजूद समानता की वजह से इन सभी बच्चों को सामूहिक तौर पर ‘ठक-ठक गिरोह’ के तौर पर पहचाना जाने लगा. इसके बाद इन बच्चों ने गाड़ी के टायर पंक्चर करके गाड़ी चालकों को लूटना शुरू किया और एक नया टायर पंक्चर गैंग सामने आया.
बच्चों के संगठित अपराधीकरण के इन लगातार बढ़ रहे मामलों को देखते हुए किशोर मामलों के सरकारी वकील भूपेश समद द्वारा अदालत के आदेश पर एक रिपोर्ट तैयार की गई. 20 नवंबर, 2010 को सेवा कुटीर किंग्सवे कैंप स्थित बाल न्यायालय को सौंपी गई इस रिपोर्ट में भूपेश लिखते हैं, ‘…ये बच्चे सीधे-सीधे अपराध में शामिल नहीं हैं बल्कि वयस्क अपराधियों का एक समूह इनको बहला-फुसला कर इन्हें अपराध की दुनिया में धकेल रहा है. ये बच्चे राष्ट्र की धरोहर हैं और इन्हें बचाना राज्य की जिम्मेदारी है. ये बच्चे गिरोहों में शामिल अपराधी नहीं बल्कि स्वयं मुश्किल परिस्थितियों के शिकार हैं. तहकीकात करने पर यह साफ़ हो जाता है कि अपराध का स्वभाव संगठित है और इन अपराधों के पीछे छिपे मुख्य वयस्क अपराधी अपने फायदे के लिए बच्चों का दुरुपयोग कर रहे है.’
अदालती दस्तावेजों, थानों में दर्ज विवरणों और कानूनी आवेदनों को खंगालने पर तहलका को ठक-ठक गिरोह में शामिल रहे कुछ बच्चों की महत्वपूर्ण कहानियां मिलती हैं. बच्चों की पारिवारिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उनके इस आपराधिक दुश्चक्र में फंसने का विस्तृत विवरण देती ये कहानियां ऊपर की पंक्तियों में दर्ज भूपेश समद के आकलन को और पुख्ता करती हैं.
उदाहरण के लिए, नौ सितंबर 2010 को सेवा कुटीर किंग्सवे कैंप स्थित जुविनाइल जस्टिस बोर्ड के सामने पेश होने वाले रोहन और सुमित भी कुछ वयस्क अपराधियों की वजह से ठक-ठक गिरोह का हिस्सा बन गए थे. वे लाल बत्ती पर खड़े कार चालकों से कहते कि उनकी गाड़ी से पेट्रोल निकल रहा है और गाड़ी चालक का ध्यान बंटते ही उनकी गाड़ी में रखा सामान लेकर चंपत हो जाते. पुलिस द्वारा पकड़े जाने और उन्हें अपने संरक्षण में लेने के बाद भी बच्चे अपना पता और पहचान बताने से लगातार इनकार करते रहे. ठीक इसी तरह 11 नवंबर, 2010 को विजय का मामला बाल न्यायालय के सामने आया. विजय को लाल बत्ती पर खड़ी एक कार के शीशे तोड़कर उसमें रखा एक बैग चुराने की वजह से पकड़ा गया था. लेकिन जांच अधिकारी विजय से कोई बैग बरामद नहीं कर पाए. इस मामले में भी बच्चे ने अपना पता और परिवार की सही जानकारी नहीं बताई.
अपनी विस्तृत जांच रिपोर्ट में किशोर पुलिस अधिकारी बताते हैं कि कैसे बैग चुराते ही बच्चे का एक पहले से छिपा हुआ साथी बड़ी फुर्ती से उससे चोरी का सामान लेकर भाग जाता है. बच्चे के पकड़े जाते ही उसका वकील जांच अधिकारी से संपर्क करता है और उसकी ज़मानत की अर्जी तुरंत आगे बढ़ा दी जाती है. बच्चे की मां यह नहीं बता पाती कि उसकी अपने वकील से मुलाकात कैसे हुई थी. रोहन और सुमित की मां की तरह विजय की मां भी बार-बार यही कहती रही कि उसे कुछ नहीं पता. और मजे की बात तो यह है कि रोहन और सुमित की जमानती अर्जी देने वाले वकील ही विजय के बचाव के लिए भी आगे आते हैं. इन दोनों ही मामलों में महिलाओं ने अपने असली पते छिपाते हुए बोर्ड के सामने एक ही तरह के बयान दिए और इन बच्चों के परिवार का कोई पुरुष सदस्य कभी सामने नहीं आया.
ठीक इसी तरह तीन जनवरी, 2011 को बोर्ड के सामने हाजिर हुए नौ साल के कमल और 10 साल के वसीम के मामलों में भी उनके पकड़े जाते ही उनके वकीलों ने उनकी जमानत के लिए जांच अधिकारियों को फोन करना शुरू कर दिया था. बच्चों के अभिभावक के नाम पर आए व्यक्ति ने फर्जी कागज़ात दिखाकर अपनी और बच्चों की पहचान छिपाने का भरसक प्रयास किया. जांच अधिकारियों द्वारा पूछने पर दोनों बच्चे और उनका तथाकथित अभिभावक अपने पते-ठिकाने और वकील के बारे में पूछे गए आसान सवालों के जवाब तक नहीं दे सके.
ठक-ठक गैंग के मामले में वयस्कों के एक पूरे नेटवर्क की मौजूदगी पर अब तक की एकमात्र रिपोर्ट तैयार करने वाले भूपेश समद तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘एक 9-10 साल का बच्चा, जिसे पढ़ना-लिखना तक नहीं आता, लैपटॉप या गहने चुराकर क्या करेगा? अगर कोई तुरंत उससे उसका चोरी किया माल ले जाता है, कोई उसे बचाने के लिए मां-बाप बनकर आ जाता है और सभी मामलों में एक ही वकील बेल करवाने आ रहा है तो इससे साफ जाहिर है कि इस लूटपाट में बच्चों का कोई दोष नहीं है. वयस्क अपराधियों का एक बड़ा नेटवर्क है जो जल्दी और आसानी से पैसा कमाने के लिए बच्चों का इस्तेमाल कर रहा है.’
चोरी करने वाले बच्चे के पकड़े जाते ही उसका वकील जांच अधिकारी से संपर्क करता है और इसके बाद उसकी ज़मानत की अर्जी तुरंत आगे बढ़ा दी जाती हैभूपेश समद की इस रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए किंग्सवे कैंप स्थित बाल न्यायालय की प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट अनुराधा शुक्ला ने 25 जनवरी, 2011 को एक आदेश जारी करते हुए कहा, ‘…बोर्ड ने सभी मामलों में बहुत-सी समानताएं देखी हैं. जैसे बोर्ड के सामने लाया गया हर बच्चा कहता है कि उसकी मां ने उसकी पिटाई की इसलिए उसने घर छोड़ दिया, जबकि किसी भी मां ने अपने बच्चे के गुमशुदा होने की कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं करवाई. अपने सही नाम और पते के साथ-साथ बच्चे यह भी नहीं बता पा रहे थे कि पेट्रोल की टंकी खोलने का, ड्राइवर को पेट्रोल लीक होने की सूचना देने और फिर चोरी करने का विचार उनके दिमाग में कैसे आया. ये सभी समानताएं स्पष्ट तौर पर यह बताती हैं कि कुछ संगठित आपराधिक गिरोह इन बच्चों का कितने सुनियोजित तरीके से दुरूपयोग और शोषण कर रहे हैं. इस बात की भी पूरी संभावना है कि यह सब बच्चों के माता-पिता की सहमति से हो रहा है.’
ठक-ठक गैंग के सभी मामलों में दिल्ली पुलिस को विशेष पड़ताल शुरू करने के निर्देश देते हुए बोर्ड ने आगे कहा, ‘इन गिरोहों में शामिल सभी वयस्कों के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र के मामले दर्ज होने चाहिए क्योंकि ये लोग अपने आर्थिक फायदे के लिए बच्चों को उन आपराधिक गतिविधियों में शामिल कर रहे हैं जिनके दूरगामी परिणाम समझ पाने की भी उनमें क्षमता नहीं. बच्चों से अपराध करवाकर ये लोग उनके भागने और पकड़े जाने पर उनकी कानूनी सहायता की भी व्यवस्था कर रहे हैं. इससे भी बड़ा षड्यंत्र अपने फायदे के लिए बच्चों को लगातार इस्तेमाल करते रहने की मानसिकता है. यह बच्चों के बचपन के खिलाफ एक षड्यंत्र है. इसलिए इन मामलों में वयस्कों के साथ-साथ बच्चों के माता-पिता पर भी मामले दर्ज होने चाहिए…’
लेकिन इन तमाम कड़े अदालती निर्देशों के बावजूद ठक-ठक गिरोह आज भी टायर पंक्चर गिरोह जैसे अपने नए रूपों में दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में सक्रिय है. दिल्ली सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग के सहायक निदेशक पी खाखा इस मामले में पुलिसिया लापरवाही की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ‘जब तक पुलिस इन बच्चों का शोषण करने वाले असली अपराधियों को नहीं पकड़ेगी, तब तक इन गिरोहों का खत्म होना मुश्किल है.’