महान लोकतंत्र की सौतेली संतानें

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

सोनभद्र को देखकर पहली नजर में ही लगता  है मानो यहां कोई लूट मची हो. वाराणसी-शक्तिनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर ट्रकों का तांता कभी नहीं टूटता. मन में सवाल उठता है कि आखिर सोनभद्र में यह आपाधापी मची क्यों है? जवाब सीधा है. सोनभद्र का वरदान ही उसका अभिशाप बन गया है. यहां असीमित मात्रा में कोयला था, पानी था, बॉक्साइट था. जैसे ही इन संसाधनों की हवा दुनिया को लगी यही ­­­खजाना पूरे इलाके के जंगल, जमीन, जानवर और जनजीवन के लिए  विनाश का सबब बन गया.

1970 के आस-पास इलाके में काले सोने की प्रचुर मात्रा की भनक लगते ही सोनभद्र में रिहंद बांध के बाद रुक चुके विस्थापन ने एक बार फिर से गति पकड़ ली. उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (यूपीआरवीयूएनएल), एनटीपीसी, हिंडाल्को की रेणुसागर ऊर्जा परियोजना, लैंको अनपरा पॉवर प्राइवेट लिमिटेड समेत तमाम छोटी-बड़ी कंपनियों ने यहां कोयले से बनने वाली तापीय ऊर्जा इकाइयां स्थापित करनी शुरू कीं. इसी के साथ विस्थापन के मानकों की अनदेखी, पुनर्वास में हीला-हवाली और पर्यावरण की धज्जियां उड़ाने का एक ऐसा कुचक्र भी शुरू हुआ जिसका अंत निकट भविष्य में तो दिखाई नहीं देता.

भारत सरकार के एक आकलन के मुताबिक सोनभद्र और इससे सटे मध्य प्रदेश के सिंगरौली इलाके में चल रहे, निर्माणाधीन और प्रस्तावित 20 से भी ज्यादा तापीय ऊर्जा संयंत्रों के लिए यहां अगले 100 वर्षों तक के लिए पर्याप्त मात्रा में कोयला मौजूद है. यही वजह है कि इस साल के अंत तक लैंको की अनपरा इकाई उत्पादन शुरू कर देगी, यूपीआरवीयूएनएल के तहत आने वाले अनपरा थर्मल पॉवर स्टेशन (एटीपीएस) की ‘डी’ इकाई निर्माणाधीन है, ‘ई’ के लिए सरकार ने हरी झंडी दे दी है. सिंगरौली में भी अगले कुछ सालों में  रिलायंस, एस्सार और जेपी समेत कई निजी कंपनियों के ऊर्जा संयंत्र अस्तित्व में आ जाएंगे.

इसका खामियाजा यहां का आम आदमी उठा रहा है. वह आम आदमी जिसके घरों और खेतों पर ये परियोजनाएं खड़ी हैं या खड़ी होने वाली हैं. विस्थापन दर विस्थापन झेल रहे इन लोगों की चिंता न तो सरकारों को है और न ही यहां की हवा, पानी में जहर घोल रही कंपनियों को. अगर ये लोग इसके खिलाफ विरोध का मोर्चा बुलंद करते हैं तो इन्हें सरकारी दमन झेलना पड़ता है. एटीपीएस की निर्माणाधीन ‘डी’ इकाई के पास 17 मार्च से अनशन कर रहे विस्थापितों से अब तक किसी अधिकारी ने बात तक  नहीं की है. यहां हमारी बड़ी संख्या में ऐसे अदिवासी और दलितों से मुलाकात होती है जिन्हें फर्जी या फिर छोटे-मोटे मामलों (मसलन जंगल से लकड़ी बीनना) में गंभीर धाराएं लगाकर फंसा दिया गया है. परशुराम, नौघाई, बिरजू बैगा,रामदुलारे, देवकुमार, पूरन समेत ऐसे तमाम लोग हैं जो गुंडा एक्ट जैसी संगीन धाराओं में फंसे कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रहे हैं. धरना-स्थल पर मौजूद रामबली जो खुद भी ऐसे ही एक मामले में आरोपित हैं, बेहद गुस्से में कहते हैं, ‘जमाने से हम लोग इन्हीं जंगलों से अपना गुजारा चला रहे थे. आज एक दातून तोड़ लेने पर भी हमारे ऊपर गुंडा एक्ट लगा दिया जाता है. सरकार इलाके के नक्सलियों के पुनर्वास पर तो करोड़ों रुपया  खर्च कर रही है और हमें नक्सली बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है.’ 22 वर्षीय अरविंद गुप्ता का मामला इसकी एक मिसाल है. एटीपीएस में मजदूरी करने वाले अरविंद 27 जून, 2008 को अपनी ड्यूटी पर गए थे. शाम को लौटे तो पुलिस ने उन्हें यह कहते हुए गिरफ्तार कर लिया कि एटीपीएस के ठेकेदारों और अनपरा डिबुलगंज के ग्रामीणों के बीच हुई मारपीट की एक घटना में वे भी शामिल थे. अरविंद पर अब कई गैर जमानती धाराओं के तहत मामला चल रहा है.

विस्थापन
सोनभद्र में विस्थापन की शुरुआत 1958 में रेणु नदी पर प्रस्तावित रिहंद बांध के चलते शुरू हुई. उस परियोजना में कुल 116 गांवों को रिहंद के डूब क्षेत्र में घोषित किया गया था. इसके बाद देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों में वर्णित रहस्य, तिलिस्म और तंत्रमंत्र वाले इस इलाके में विस्थापन की जो काली छाया पड़ी वह आज तक लोगों की जिंदगी को नर्क बनाए हुए है. रिहंद बांध की स्थापना के वक्त देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विकास के  नाम पर लोगों से बलिदान की अपील की थी. उस समय सभी किसानों की जमीन का लगान एक रुपया सालाना मानकर उन्हें तीस गुना मुआवजा यानी 30 रुपए दिए गए साथ ही हर परिवार को सोन के ऊपरी जंगलों में 10 बीघा तक जंगल काटकर खेती करने की छूट भी दी गई.

लोग नई जगहों पर अपनी जड़ें जमा ही रहे थे कि 70 के दशक में यहां तापीय ऊर्जा कंपनियों ने दस्तक दी. 1975 में एनटीपीसी ने शक्तिनगर में 2,000 मेगावॉट का संयंत्र लगाना शुरू किया. 1980 आते-आते यूपीआरवीयूएनएल ने अनपरा में 1,630 मेगावाट की योजना शुरू कर दी जिसके तहत इलाके में कई चरणों में ऊर्जा संयंत्र लगने थे. इसके बाद तो परियोजनाओं का जैसे तांता-सा लग गया.

एक तरफ परियोजनाएं स्थापित हो रही हैं और दूसरी तरफ स्थानीय लोग बार-बार अपनी जड़ों से उखड़ रहे हैं. और ऐसा भी नहीं कि उन्हें इस विस्थापन का कोई अतिरिक्त फायदा पहुंच रहा हो. ज्यादातर लोगों का न तो ठीक से पुनर्वास हो रहा है न ही उन्हें नौकरियों में मौका दिया जा रहा है. बेलवादाह, ममुआर, निमियाडाढ़, पिपरी, चिल्काडाढ़, औड़ी आदि पुनर्वास बस्तियों में कोई भी परिवार ऐसा नहीं है जिसने कम से कम दो बार विस्थापन की त्रासदी न झेली हो. रिहंद से विस्थापित होकर कोटा, अनपरा में जमने की कोशिश कर रहे लोगों को एनटीपीसी और यूपीआरवीयूएनएल ने फिर से विस्थापित किया तो ये लोग अनपरा, चिल्काडाढ़ जैसे इलाकों में बस गए. इन इलाकों में बसीं बस्तियां हिटलर के यातना शिविरों की तरह एक सीधी रेखा में बसी हैं जहां जनसुविधाएं तो दूर तमाम मूलभूत तकनीकी पहलुओं की भी घोर उपेक्षा नजर आती है.

डिबुलगंज विस्थापन बस्ती को ही लें. यहां घुसते ही नाक सड़ांध से भर उठती है. बस्ती और अनपरा पॉवर प्लांट के बीच में सिर्फ एक चहारदीवारी है. मानकों के मुताबिक कोई भी रिहाइशी क्षेत्र संयंत्र से कम से कम दो किलोमीटर दूर होना चाहिए. खुद अनपरा पॉवर की अपनी रिहाइशी कॉलोनी संयंत्र से दो किलोमीटर दूर स्थित है. यह एहतियात इसलिए ताकि संयंत्र से निकलने वाली भयंकर आवाज और चिमनियों से निकलने वाले धुएं के दुष्प्रभाव से लोगों को दूर रखा जा सके. लेकिन जिन लोगों की जमीनों पर यह परियोजना खड़ी है, लगता है उनके जीवन से कंपनी को कोई वास्ता नहीं है. इसी बस्ती में झारखंड और उड़ीसा से आए 3,000 के करीब दिहाड़ी मजदूर भी दड़बेनुमा कमरों में रहते हैं.

पिपरी, बेलवादाह जैसे गांवों के जो लोग इस विस्थापन से बच गए थे उन्हें एक दूसरी भयानक मुसीबत का सामना करना पड़ा. इन गांवों की जमीन को अनपरा और लैंको ने अपने संयंत्रों में कोयले के दहन से पैदा होने वाली राख यानी फ्लाइएश को ठिकाने लगाने के लिए चुन लिया. आज आधे से ज्यादा ऐसे गांव इस राख में डूब चुके हैं. टापू बन चुकीं पहाड़ियों पर जिन लोगों के घर और खेत हैं वे आज भूरे रंग के दलदल में पांव धंसाते हुए उन तक पहुंचते हैं. राख के इस अथाह सागर के किनारे 2-3 फुट गहरे गड्ढे खोदकर लोग पीने के लिए जहरीला पानी निकालते हैं. अनपढ़  आदिवासियों को कोई यह बताने वाला भी नहीं है कि जिस इलाके में 100 फुट की गहराई तक पानी उपलब्ध नहीं है वहां 3-4 फुट के गड्ढे से पानी कैसे आ रहा है?

अनपरा थर्मल पॉवर स्टेशन (एटीपीएस) ने यहां के पीड़ितों को एक लाख रुपए का नगद मुआवजा और नौ सदस्यों पर एक प्लॉट देने का वादा किया था. लेकिन बेलवादाह के ग्राम प्रधान हरदेव सिंह बताते हैं, ‘शुरुआत में इन्होंने 423 लोगों को प्लॉट देने की घोषणा की थी. इसमें हेराफेरी की गई थी. हम लोगों ने जब विरोध किया तो कंपनी ने 1996 में इसमें 272 और नाम शामिल किए. लेकिन अब तक सिर्फ 84 लोगों को ही प्लॉट मिले हैं.’

एनटीपीसी द्वारा बसाई गई विस्थापन बस्ती चिल्काडाढ़ की हालत और भी बदतर है. इस बस्ती से महज 500 मीटर की दूरी पर एनसीएल की बीना कोयला खदान स्थित है. एनसीएल चिल्काडाढ़ को बसाने का विरोध कर रही थी लेकिन एनटीपीसी ने उनकी एक न सुनते हुए वहां 16 गांवों के करीब 500 परिवारों को बसा दिया. मुसीबत तब शुरू हुई जब एनसीएल ने इस गांव के चारों तरफ अपना ओबी (ओवर बर्डेन यानी कोयला खदानों की ऊपरी परत) डालना शुरू कर दिया. देखते ही देखते गांव के चारों तरफ नकली पहाड़ खड़े हो गए. इनसे चौबीसों घंटे धूल उड़-उड़ कर चिल्काडाढ़ बस्ती पर गिरती रहती है. और बीना कोयला खदान में हर दिन होने वाले विस्फोट से यह पूरा इलाका थर्रा उठता है.

चिल्काडाढ़वासियों पर विस्थापन की तलवार लगातार लटक रही है. एनसीएल का कहना है कि उनकी जमीन के नीचे भारी मात्रा में कोयले और गैस का भंडार है. सोनभद्र और सिंगरौली इलाके में लंबे समय से सृजन लोकहित समिति नाम का एक संगठन चला रहे अवधेश कुमार एक पुरानी घटना याद करते हुए कहते हैं, ‘1986 में एनसीएल के बुलडोजरों ने पूरे गांव को घेर लिया था. एनसीएल किसी भी कीमत पर इस जमीन पर कब्जा करना चाहती थी. उस वक्त गांव के सभी पुरुष फरार हो गए थे. महिलाओं ने आकर मोर्चा संभाल लिया था. वे बुलडोजर के सामने अपने बच्चों के साथ लेट गईं. इस तरह से एक और विस्थापन टल गया था.’ पर सवाल है कब तक?

विस्थापन का एक सच यह भी है कि जिस भूमि पर विस्थापितों को बसाया जाता है उसका मालिकाना हक संबंधित कंपनी के पास ही रहता है. विस्थापितों की बस्ती भी परियोजना की भूमि के दायरे में आती है. लंबे समय से विस्थापितों की लड़ाई लड़ रहे यूपीटीयूवीएन (ऊर्जांचल पंचायत ट्रेड यूनियन एंड वॉलंटरी एक्शन नेटवर्क) के सदस्य जगदीश बैसवार बताते हैं, ‘जमीन पाने वाला विस्थापित न तो कहीं जा सकता है और न ही जमीन बेच सकता है. परियोजना की भूमि होने के नाते इस जमीन के आधार पर कोई  बैंक  कर्ज भी नहीं देता.’

ताक पर पर्यावरण
अनपरा और इसके आस पास स्थित लगभग सभी थर्मल पॉवर प्लांट पर्यावरणीय मानकों की खुलेआम धज्जी उड़ाने में लगे हुए हैं. अनपरा थर्मल पॉवर स्टेशन के राख निस्तारण क्षेत्र बेलवादाह और पिपरी गांव के किनारे-किनारे घूमते हुए हम उस हिस्से में पहुंचते हैं जहां इस फ्लाइएश साइट को रिहंद जलाशय से अलग करने के लिए बांध बना हुआ है. बांध के आखिरी छोर पर पहुंचने पर हमें प्रवेश निषेध का बोर्ड दिखता है और उसके पीछे झाड़ियां नजर आती हैं. सरसरी तौर पर यह प्रतीत होता है कि इसके आगे कुछ भी नहीं है. लेकिन थोड़ा और आगे बढ़ने पर लगभग 50 मीटर चौड़ा कंक्रीट का एक विशाल नाला नजर आता है. यह नाला फ्लाइएश साइट को रिहंद के जलाशय से सीधा जोड़ देता है. एटीपीएस ने फ्लाइएश साइट के स्तर की जो अधिकतम सीमा तय की है वह वर्तमान स्तर से कम से कम 20 मीटर ऊपर है जबकि इस नाले के स्तर से फ्लाइएश का मौजूदा स्तर सिर्फ 8-9 फीट नीचे होगा. यानी साइट की अधिकतम ऊंचाई तक पहुंचने से काफी पहले ही फ्लाइएश बरास्ता इस नाले सीधे रिहंद जलाशय में जाने लगेगी. ऐसा बहुत जल्दी ही होने वाला है क्योंकि कुछ ही दिनों में लैंको पॉवर का कचरा भी इसी फ्लाइएश साइट पर गिरने वाला है?

बांध के दूसरे छोर पर जाने पर एक और ही गोरखधंधा सामने आता है. एक अंडरग्राउंड नाले के जरिए सीधे-सीधे फ्लाइएश का पानी रिहंद में डाला जा रहा है. रिहंद में जिस जगह पर यह गिर रहा है वहां पर पटी हुई फ्लाइएश साफ-साफ देखी जा सकती है. लेकिन इसके लिए पैदल ही एक पहाड़ी का चक्कर लगाकर वहां तक जाना होगा जहां यह नाला रिहंद जलाशय में खुलता है. जब हम एटीपीएस के प्रशासनिक महानिदेशक पीके गर्ग से इस संबंध में पूछते हैं तो वे ऐसे किसी नाले की जानकारी न होने की बात करते हैं. ज्यादा पूछने पर वे उस स्थान पर एक वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए जाने की बात करते हैं और बताते हैं कि ‘ट्रीटमेंट प्लांट के लिए लखनऊ प्रस्ताव भेजा गया है. लेकिन ऐसा करने में पैसे की कमी आड़े आ रही है’ यानी जब तक प्रस्ताव पास नहीं हो जाता तब तक यूं ही ज़हरीली राख रिहंद में गिरकर लोगों की जिंदगियों से खेलती रहेगी. विडंबना यह है कि सरकार के पास ‘डी’ और ‘ई’ संयंत्र का विस्तार करने के लिए तो पैसा है पर वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट के लिए नहीं.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here