काला धन और आतंकवाद को बड़ी चोट देने के इरादे से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय करंसी के रु. पांच सौ और हजार रुपए के नोटों को चलन से बाहर करने की घोषणा की। यह अर्थ अनुशासन पर्व आठ नवंबर से 30 दिसंबर तक यानी पचास दिन चला। इस बड़े पर्व में बहुत बड़ी राशि खर्च जरूर हुई लेकिन बैंकिंग, आतंकवाद, विभिन्न व्यवसाय में सक्रिय ढेरों ऐसे ‘लूप होल’ सरकार के पास हैं जिन पर अब नजर रखते हुए अगली बड़ी कार्रवाई हो सकती है। भारतीय जनता पार्टी ने तकलीफ और तमाम परेशानियां झेलते हुए भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस पहल की प्रशंसा की। जानकार और विद्वान लेखक हरचरण बैंस ने देश की प्राचीन आर्थिक परंपरा के तहत पूरे देश में बड़ी कीमत वाले नोटों पर पाबंदी लगाने का जायजा लिया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बगैर किसी संदेह के ‘अनिच्छुक’ भारत को मुद्रा के मामले में संयमी बनाने के लिए बिना नगदी के लेनदेन के स्वर्ग बनाने का बीड़ा उठाया। इसकी चर्चा हमारे शास्त्रों यहां तक कि मौद््रिक शास्त्रों में रही है। पिछले महीने जब प्रधानमंत्री ने अपने बैंकिंग बम का धमाका किया, बहुत कम लोगों को इस बात का अनुमान था कि दरअसल यह देश की प्राचीन धार्मिक और आर्थिक परंपराओं की ओर वापसी थी जब देशवासी रुपए को सिर्फ ‘माया’ बतौर ही जानता था और इसके चरित्र को बेहद चंचल और विश्वासघातक तक माना जाता था। नए माहौल में तो धर्मराज को भी कंप्यूटर का जानकार होना है जिससे वे नर्क में भी हमारा लेखा-जोखा कर सकें। हमारे धर्मों में हमेशा माया की प्रकृति को चपल चपला ही बताया गया है। मोदी ने अपने एक मास्टर स्ट्रोक में ही इसे कम चपल और ज्यादा भरोसे लायक और छानबीन वाली स्थिति मंे पहुंचा दिया है। साइबर ने शास्त्र की जगह ले ली है और दोनों ही बराबरी के स्तर पर महत्वपूर्ण हैं भले वास्तव में न हों।
मोदी दरअसल धर्म की दार्शनिक गवेषणाओं की बजाए, जबर्दस्त मौद्रिक वास्तविकताओं से प्रेरित हुए। बिना नगदी समाज आधुनिक पश्चिमी समाज की देन है। इसकी भाषा भी मसलन ‘प्लास्टिक मनी’ या इससे भी ऊंचे स्तर पर ‘डिजिटल मनी’ ऐसे कुलीन आवरण हैं जो दूसरी ताकत को छिपाए हुए है यानी अपरोक्ष ताैर पर तकनॉलाॅजी के इस्तेमाल से बिन नगदी के लेन-देन को काबू में रखती है। इस तरह तकनॉलॉजी जिसे माना जाता था कि सूचना को हर कहीं प्रसारित करके ताकत का लोकतांत्रिकरण करेगी उसने अब हमारी निजी जिंदगी पर नए तानाशाह बिठा दिए हैं।
यह सच भी है कि हर राजनीतिक प्रणाली में सरकारें अपने नागरिकों की जेबों पर हाथ मारती हैं। अब तक सरकारों ने इतने ज्यादा हाथ रखे हुए थे कि वे सरकारी हाथों की तुलना में कहीं ज्यादा थे। इतने कि उनकी गिनती नहीं थी। पेपर करेंसी (कागजी नोट) सरकारी नियंत्रण का एक माध्यम है जो नागरिक के धन पर नियंत्रण करता है। न केवल उसके खर्च के अंदाज बल्कि ‘दूसरी’ आदतों पर भी।
लेकिन इस अनुशासन को अमल में लाने के लिए सरकार को फिस्कल मानीटरिंग (वित्तीय अनुशासन) की जरूरत पड़ती है। यह आसान काम नहीं है। एक बार ‘पेपर कैश’ सरकारी प्रिंटरी से बाहर आती है तो उसके बाद उसका अपना ही दिमाग होता है और वह अपने ठिकाने और राहें ढूंढ़ लेता है। यानी सरकारें जिसे खुद पैदा करती हैं यानी कैश करेंसी उन पर से ही नियंत्रण खो बैठती हैं। टकसाल से हर कागजी नोट के बाहर आने के बाद उसका हिसाब-किताब रखना बेहद कठिन काम है।
ऐसा इसलिए है क्योंकि हर करेंसी नोट की अपनी ‘खुली इच्छा’ होती है अपनी राह खुद तय करने की। इसलिए सरकारों की जरूरत होती है अपनी कर-प्रणाली बनाने की। हर स्तर पर सरकारी अफसरों, कर्मचारियों के फौज-फाटे की। जैसे ही कैश करेंसी टकसाल से या बैंक से बाजार में आती है तो यह पूरी प्रणाली से अपनी आजादी की मुनादी करती है। नकदी करेंसी अपनी सार्वभौमिकता में कोई दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं करती। अपनी शर्तों पर यह नकदी करेंसी जीवित रहना चाहती है। आखिरी जगह जहां सिक्का या नकदी रुपया जाना चाहता है वह है सरकारी खजाना या बैंक का स्ट्रांग रूम। करेंसी की प्रकृति हमेशा ‘करेंट’ सी होती है – जिंदगी के साथ हमेशा अपना ‘कांट्रैक्ट’ नया करते हुए।
अमूमन नकदी करेंसी पूंजीवादी समाज में ज्यादा खुशहाल हाेती है क्योंकि इस अर्थव्यवस्था में ‘खर्च’ पर जोर ज्यादा होता है बनिस्बत ‘बचत’ के। हालांकि यह सच नहीं है। दरअसल पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कभी अपनी करेंसी को वह आजादी नहीं देती जो वामपंथी, समाजवादी और नियंत्रित अर्थव्यवस्था इसे मुहैया कराती हैं। क्योंकि एक-एक पैसे से पूरी करंसी सामाजिक कल्याण में लगी रहती है जबकि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में इसका अपना एक नकली अग्निकुंड होता है जहां यह ‘वैधानिक टेंडर’ यानी जो रुपए को जमाखोरों के खजाने में दबाए रखती है। ये भूमिगत स्थान बहुत अंधेरे भरे, ज्यादा धमकी भरे अंधेरे वाले होते हैं करंसी के लिए। एक बार जब कोई सिक्का इन अग्निकुंडों में गिरता है तो बहुत कम ही ऐसे मौके आते हैं जब यह वास्तविक बाजार की अर्थव्यवस्था की ताजी हवा में सांस ले पाता है।
आज वामपंथी अर्थनीतियों के नए मालिकों (जारों) को कतई न भूलिए जिनकी जेबें जनसाधारण की पूरी नकदी से ठसाठस भरी होती हैं। ये मालिकान (जार) अपने खजानों में करंसी की गोलाइयाें को अपने खजाने के अंधेरों में सराहते हैं। टिन पॉट (लोहे के डिब्बे) वाली ‘जनसाधारण तानाशाही’ मशहूर है। करेंसी को संभाले रखने आैर अंधेरे भरे कमरों में बिना हिसाब-किताब के नकदी के सौंदर्य को छिपाने में।
भारत जैसे लोकतंत्र में कोई भी यह अनुमान नहीं लगाएगा कि यहां कोई ऐसी चीज मसलन ‘वित्तीय तानाशाही वाली अर्थव्यवस्था’ नहीं होगी। क्योंकि ज्यादातर नीतियों और हर सिक्का जो जारी होता है उस पर हुए दस्तखत पर सरकारों के उन जन-प्रतिनिधियों से मंजूरी ली जाती है जो चुनाव में जीत कर आते हैं। लिखित परंपरा तो यही है। लेकिन जमीनी वास्तविकता कुछ और है। संसदीय सत्रों को आर्थिक सेमिनार नहीं बनने दिया जाना चाहिए जहां विशेषज्ञ सिर्फ नीतियों के ब्यौरे पर बहस करते हैं जिनके तहत सरकारें टैक्स में रुपए इकट्ठे करती हैं और आए हुए धन को खर्च करती हैं। तथ्य यह कि ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों मंे संसद में बैठे लोगों का हाल यह रहा है कि संसद मंे बैठे लोग ज्यादातर ‘गूंगे और कोई रुचि न लेने वाली’ तस्वीरों वाली जनता जैसे ही होते हैं। ज्यादातर ऐसे नजर आते हैं जैसे वे पांच साल के लिए जमी हुई स्थानीय तस्वीर की तरह तभी जागते हैं जब जिंदगी और सक्रियता की छवि दिखानी होती है।
तथ्य यह है कि सांसद (किसी भी लोकतांत्रिक देश में) शायद अपने विस्तृत आर्थिक एजंडे के आधार पर जीतते हों। इस कारण ज्यादातर यह भी नहीं जानते कि जिसके लिए जनता ने उन्हें चुना है उनसे वह आर्थिक नीति पर क्या उम्मीद करती है। जनता तो उनसे कम जानती है और कोई परवाह नहीं करती। कुल मिलाकर ‘आर्थिक नीति’ एक किस्म की नारेबाजी से ज्यादा कुछ नहीं होती जो आम ताैर पर वे लोग तैयार करते हैं जिनकी अर्थशास्त्र में अरुचि थी और न समझ पाने के कारण ही आज उन्हें वह स्थान मिला। कम योग्यता के ही कारण वे लोकप्रिय नेता बन जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा वे एक चेहरा या एक राजनीतिक दल की आवाज बन जाते हैं जिसके सदस्य यह जानते हैं किस बात से उनके मतदाता ज्यादा दिग्भ्रमित होंगे और इस गड़बड़झाले से वे जीतते भी रहेंगे।
ऐसी स्थिति में अपने राजनीतिक नेताओं को राजनीति की बजाए अर्थ पर तवज्जुह देना, वाकई बेहद रोचक लगता है।