मुलायम सिंह यादव: भभकती भट्टी

मुलायम सिंह यादव
मुलायम सिंह यादव

‘अखिलेश को जिता कर सीएम बना दिया. अब मुझे क्या बनाओगे…मेरे दिल में भट्टी जल रही है. मेरा दिल भी कुछ चाहता है. मुझे भी कुछ दोगे कि नहीं. मैं कोई साधु-संन्यासी तो हूं नहीं…’ चौधरी चरण सिंह की जयंती के मौके पर 23 दिसंबर को लखनऊ में कार्यकर्ताओं और मीडिया के बीच जब मुलायम सिंह यादव यह अपील कर रहे थे तो उनकी बेताबी साफ झलक रही थी. उनका एक-एक शब्द दिखा रहा था कि प्रधानमंत्री बनने के लिए वे किस हद तक आतुर हैं.

मुलायम की यह आतुरता यों ही नहीं है. उम्र के जिस पड़ाव पर वे हैं उस पर यह संभावना बहुत अधिक नहीं है कि 2014 के बाद होने वाला अगला लोकसभा चुनाव यदि पूरे पांच साल बाद ही हो, तो उसमें भी वे इतने ही दमखम से दावेदारी पेश कर सकेंगे. फिर प्रदेश में उनकी समाजवादी पार्टी की जितनी मजबूत स्थिति आज है उतनी न तो आज से पहले कभी रही और न ही भविष्य में इसकी ऐसी कोई संभावना ही दिखती है.

केंद्र में सत्तारूढ़ यूपीए सरकार से लोगों की नाराजगी साफ दिख रही है और उसे चुनौती देती भाजपा कभी अपने सहयोगियों तो कभी अपने ही नेतृत्व के अंतर्विरोधों के कारण अपनी चुनौती को खुद ही कमजोर बनाती दिखती है. ऐसे में किसी तीसरे मोर्चे का बनना और उस मोर्चे का नेतृत्व मुलायम और उनकी पार्टी के हाथों में आ जाना महज कोरी कल्पना ही नहीं कहा जा सकता. इसी संभावना ने मुलायम को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर किसी भी तरह एक बार बैठ पाने के लिए बेताब बना दिया है.

मुलायम सिंह के लिए प्रधानमंत्री का पद एक बहुत पुराना सपना है. एक तरह से यह उनके राजनीतिक जीवन का अंतिम लक्ष्य भी है. स्कूली दिनों के दौरान कुश्ती के अखाड़ों में विरोधियों को चित्त करने के जो दांव उन्होंने सीखे थे उन्हें राजनीति के खेल में कब और कैसे इस्तेमाल किया जाए, वे बखूबी जानते हैं.  1967 में जसवंतनगर से विधानसभा चुनाव जीत कर मुलायम उस समय विधानसभा के सबसे कम उम्र के विधायक बने थे. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से शुरू हुआ उनका यह सफर उस दौर की भारतीय राजनीति की उथल-पुथल का साझीदार होता हुआ भारतीय क्रांति दल, जनता पार्टी, लोक दल, लोक दल (ब) और फिर जनता दल तक पहुंचा, जब पांच दिसंबर, 1991 को मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुए. चार नवंबर, 1992 को समाजवादी पार्टी की स्थापना करके उन्होंने उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपना सबसे बड़ा दांव खेला. अयोध्या में छह दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौर में मुलायम ने जाति और संप्रदाय के आधार पर एक नए वोटबैंक को जन्म दिया. इसी दौर में उन्होंने 1984 में बनी कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन करके विधानसभा चुनाव लड़ने का एक और क्रांतिकारी दांव खेला. जाति और धर्म के आधार पर उत्तर प्रदेश के के लिए यह एक अचूक गणित था. इसकी सफलता ने 1993 में मुलायम को दूसरी बार प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया.

लेकिन सत्ता का यह सुख मुलायम बहुत अधिक समय तक भोग नहीं पाए. दो जून, 1995 को उनके बेलगाम कार्यकर्ताओं ने लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित स्टेट गेस्ट हाउस में बसपा नेता मायावती के साथ जो शर्मनाक व्यवहार किया उसकी परिणति मुलायम की बेदखली के रूप में हुई. यहीं से उनके लिए एक स्थायी राजनीतिक प्रतिद्वंदी के रूप में मायावती का भी उदय हो गया. मुलायम न सिर्फ सत्ता से बेदखल हुए बल्कि उन पर समाज के सबसे निचले तबके के साथ विश्वासघात का आरोप भी लग गया. लेकिन मुलायम ने  हार नहीं मानी. 1996 में ग्यारहवीं लोकसभा में उनके 17  सांसद ही थे लेकिन उस समय के राजनीतिक घटनाक्रम में वे प्रधानमंत्री पद की दौड़ में प्रबल दावेदार के तौर पर मौजूद थे. मुलायम खुद अनेक मौकों पर इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि किस तरह उनका नाम प्रधानमंत्री के लिए लगभग तय हो चुका था और किस तरह एक सजातीय क्षत्रप (वे लालू यादव का नाम कभी नहीं लेते) के ऐन मौके पर पेंच फंसा दिए जाने से वे शपथ लेते-लेते रह गए. देवगौड़ा और गुजराल सरकारों में मुलायम रक्षामंत्री रहे और केंद्र की इस पारी ने उनकी क्षेत्रीय आकांक्षाओं को राष्ट्रीय फलक पर पहुंचा दिया. 2002 में सपा उत्तर प्रदेश में 143 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी बनी और जोड़-तोड़ में माहिर मुलायम ने लंबे इंतजार के बाद 29 अगस्त, 2003 को तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. उस शपथ ग्रहण समारोह में एक नारा खूब उछला था-यूपी हुई हमारी है, अब दिल्ली की बारी है. 2004 के लोकसभा चुनाव में सपा इसी नारे के साथ मैदान में थी. पार्टी उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के अपने सबसे चमकदार प्रदर्शन के साथ 36 सीटों तक पहुंच भी गई. लेकिन इस बार परिस्थितियां मुलायम के साथ नहीं थीं, इसलिए सपा  यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन देने वाले दल के रूप में ही सीमित रह गई.

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