फ़सल अवशेषों से पैसा कमाएँ किसान
योगेश
कृषि कार्यों में दक्ष नहीं होने के चलते हमारे देश के अधिकांश किसान आर्थिक रूप से परेशान और दु:खी रहते हैं। बहुत पुराने समय से हम अपने आपको कृषि प्रधान देश कहते आ रहे हैं; लेकिन हमारे अधिकांश किसानों को खेती करने के सही तरीक़े नहीं मालूम हैं। इससे किसानों को फ़सलों में लगातार घाटा होता रहता है और किसानों पर क़र्ज़ बढ़ता जाता है। जैसे कि अधिकांश किसान अपने खेतों में पराली जलाने लगते हैं, तो इससे उन्हें बहुत नुक़सान होता है। किसानों को इस पराली को न जलाकर इसका सदुपयोग करके इससे लाभ कमाना चाहिए। अभी दो महीने में ही धान की फ़सल कटने लगेगी, जिसकी पराली को बहुत-से किसान मशीनों से धान कटवाकर खेतों में ही छोड़ देंगे और अगली बुवाई की जल्दबाज़ी में उसे खेत में ही जला देंगे। उत्तर प्रदेश में पराली जलाने वाले किसानों पर ज़ुर्माना लगता है। सरकार का मानना है कि पराली जलाने से प्रदूषण फैलता है। इसलिए किसानों को पराली जलाने से बचना ही चाहिए। लेकिन किसान इससे बच कैसे सकते हैं और उन्हें इसके क्या-क्या फ़ायदे हो सकते है? इसे समझना होगा।
वास्तव में किसानों के आगे धान या दूसरी फ़सलों की पराली को नष्ट करने की समस्या बड़ी विकराल है। कृषि विशेषज्ञ और जानकार कहते हैं कि बड़ी जोत के किसान धान और गेहूँ की फ़सलों की कटाई मशीनों से कराते हैं, जिससे फ़सलों के अवशेष खेतों में ही रह जाते हैं। इन अवशेषों को नष्ट करने का सबसे आसान तरीक़ा किसानों ने निकाल लिया है और वह है, पराली जलाने का। लेकिन किसान यह नहीं समझते कि इससे पशुओं के चारा नष्ट होता है। खेतों की उपजाऊ शक्ति नष्ट होती है। किसानों को इस पराली से होने वाली आमदनी भी नहीं मिलती। धान की फ़सल काटकर पशुओं के चारे की चिन्ता करने वाले किसान वही हैं, जिनके पास कम खेती है और जिन्होंने पशु पाले हुए हैं। कृषि विशेषज्ञों और जानकारों की सलाह है कि जो किसान फ़सलों के अवशेष नहीं चाहते, वे उन्हें या तो गत्ता फैक्टरियों को बेच दें या फिर खेतों में ट्रैक्टर में हैरों लगाकर उसे गहरे से उलट दें और खेतों में पानी भर दें।
इसके साथ ही खेत में हल्की मात्रा में यूरिया या दूसरी खरपतवार गलाने वाली किसी दवा का छिडक़ाव कर दें। इससे खेतों से खरपतवार भी नष्ट हो जाएगी और फ़सलों के अवशेष भी गल जाएँगे। लेकिन इसके लिए थोड़ी मेहनत और करते हुए किसानों को एक जुताई तब करनी होगी, जब मिट्टी में 40 से 45 प्रतिशत नमी शेष रह जाए। इसके एक सप्ताह बाद फिर से मिट्टी को पटलते हुए जुताई करनी होगी, जिससे खेतों की नमी थोड़ी और सूख जाए, और मिट्टी में पैदा होने वाले कृषि मित्र कीट पैदा हो सकें। इसके एक सप्ताह बाद किसान खेतों को जोतकर उसमें अगली फ़सल बो सकते हैं। खेतों की इस अवस्था में किसानों को ध्यान रखना होगा कि अगली फ़सल बोते समय खेतों में 20 से 25 प्रतिशत नमी शेष होनी चाहिए। अगर खेतों की नमी इससे ज़्यादा कम है, तो खेत को थोड़ा से पानी दें या पानी का छिडक़ाव करें और फिर खेतों को जोतकर अगली फ़सल की बुवाई करें।
पराली का दूसरा उपयोग किसान पशुओं के चारे के रूप में कर सकते हैं। पशुओं का सूखा चारा बहुत महँगा होता है, जिससे किसान फ़सलों के अवशेषों को चारे के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं या उसे बेचकर अच्छा पैसा कमा सकते हैं। इसके अलावा किसान फ़सलों के अवशेषों को एक गड्ढे में भरकर उससे कम्पोस्ट खाद तैयार कर सकते है। ये खाद फ़सलों के लिए बहुत अच्छी और आवश्यक होती है। हालाँकि कहने को किसानों पर प्रदूषण का आरोप जानबूझकर मढ़ दिया जाता है। सच्चाई यही है कि किसानों के फ़सलों के अवशेषों से उतना धुआँ नहीं फैलता है, जितना कि फैक्ट्रियों और गाडिय़ों से फैलता है। फ़सलों के अवशेष जलने से उनका कार्बन भी उडक़र बहुत दूर नहीं जाता है। सर्दियों में प्रदूषण तो अपने आप ही हवा में आद्रता होने के चलते बढ़ जाता है। हवा में आद्रता के कारण कार्बन बहुत उठकर नष्ट नहीं हो पाता और वो हमारे वायुमंडल में ही घुला रहता है, जो कि साँस लेने में तकलीफ़ का कारण बनता है।
सरकारों और प्रदूषण से निपटने के लिए बनी उनकी एजेंसियों को अच्छी तरह मालूम है कि प्राकृतिक ईंधन, जैसे- लकड़ी, कंडे (उपले), फ़सलों के अवशेष आदि के जलने से जो प्रदूषण फैलता है, वह उतना घातक नहीं होता जितना घातक तेल, गैस के जलने और फैक्ट्रियों के धुएँ से, गंदे केमिकल वाले पानी से फैलने वाला प्रदूषण होता है। लेकिन बिना किसी ठोस कारण के किसानों को प्रदूषण फैलाने का दोषी क़रार दे दिया जाता है। सोचना चाहिए कि आज जितने लोग दमा, साँस, खाँसी, नज़ला और पेट के रोगी हैं, उतने तब नहीं थे, जब 100 प्रतिशत घरों में हर रोज़ सुबह-शाम लकड़ी, कोयला और कंडे जलाकर खाना बनाया जाता था।
अधिकांश घरों में दूध गर्म करने करने के लिए दिन भर कंडों और कोयले की आग जलती थी। लेकिन आज जब गैस पर खाना बनता है। लकड़ी और कंडे कम जलाये जाते हैं; तब प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है, और इतना अधिक है कि कोई भी पूरी तरह स्वस्थ नहीं है। तो इसका कारण कुछ और ही है; किसान नहीं। हालाँकि पहले खेतो में फ़सलों के अवशेष किसान पशुओं के चारे के रूप में करते थे। अब कृषि यंत्रों से खेती होने के करण किसानों ने पशु पालने कम कर दिये हैं और फ़सलों के अवशेषों को खेत में ही छोडक़र उन्हें अगली फ़सलों की बुवाई की जल्दी में जला रहे हैं।