प्रहसन एक पूर्व प्रधानमंत्री की मौत का

राजीव गांधी की शवयात्रा

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क्या राजीव गांधी हत्याकांड में न्याय हुआ है? इस घटना के 23 साल बाद भी शायद इस सवाल का कोई निश्चित जवाब नहीं दिया जा सकता. 26 दोषियों को फांसी की सजा से शुरू हुआ यह न्यायिक मामला अब सभी दोषियों की रिहाई का राजनीतिक मामला बन चुका है. पिछले 23 साल के सफर में कई बार इस मामले में न्याय की परिभाषाएं बदली, कई बार फैसले आए, कई बार अपील हुई और कई बार अंतिम फैसले भी आए. लेकिन राजनीतिक दांव-पेचों ने उन्हें अंतिम नहीं रहने दिया. यह मामला आज भी न्यायालय में है और अपना अंतिम न्याय लिखे जाने का इंतजार कर रहा है. आज न्याय की मांग पीड़ितों के लिए नहीं बल्कि दोषियों के लिए होने लगी है जबकि यह मामला असल में उन 18 लोगों को न्याय दिलाने का था जिनकी इन दोषियों ने हत्या कर दी थी. लोक स्मृति में धुंधली हो चुकी इस हत्याकांड से जुड़ी बातें और घटनाक्रम मिलकर एक दिलचस्प सिलसिला बनाते हैं. न्यायालय के फैसलों, जांच आयोगों और समितियों की रिपोर्टों, हजारों पन्नों के दस्तावेजों, संबंधित लोगों के बयानों और साक्षात्कारों के आधार पर इसे समझते हैं.

राजीव गांधी हत्याकांड के पूरे मामले को समझने के लिए जरूरी है कि इसकी शुरुआत आजादी से की जाए. भारत की नहीं, श्रीलंका की आजादी से. इस मामले में श्रीलंका के इस इतिहास की इतनी अहमियत है कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने फैसले में इसे विस्तार से लिखा है. भारत की आजादी के अगले ही साल श्रीलंका आजाद हुआ था. तब इसे सीलोन कहा जाता था. आजादी से पहले हजारों तमिल लोगों को श्रीलंका के चाय बागानों में मजदूरी के लिए लाया गया था. भारत से गए इन तमिलों को भारतीय-तमिल कहा जाता था जबकि वहां पहले से रह रहे तमिलों को श्रीलंकन-तमिल या जाफना-तमिल कहते थे. श्रीलंका में बहुसंख्यक आबादी बौद्ध धर्म को मानने वाले सिंहला लोगों की थी और तमिल भाषियों को लगातार उनकी उपेक्षा का शिकार होना पड़ता था. आजादी के बाद भारतीय तमिलों से वोट देने का अधिकार भी छीन लिया गया. श्रीलंका की लगभग 23 प्रतिशत आबादी तमिलों की थी. इतनी बड़ी आबादी से वोट देने का अधिकार छीना जाना एक बड़ा झटका था. समय के साथ स्थितियां खराब होती गईं. 1956 में श्रीलंका सरकार ने घोषणा कर दी कि देश की एक मात्र आधिकारिक भाषा सिंहला होगी. सरकार के इस फैसले से तमिल भाषी लोगों को सरकारी नौकरी मिलना भी लगभग असंभव हो गया. इसके बाद 1972 में बने श्रीलंका के संविधान में बौद्ध धर्म को देश का प्राथमिक धर्म घोषित कर दिया गया. साथ ही सिंहला लोगों को बहुसंख्यक होने के बावजूद भी हर जगह वरीयता और आरक्षण दिया जाने लगा. धीरे-धीरे तमिल लोग नौकरियों से लेकर शिक्षा तक हर क्षेत्र में हाशिये पर धकेल दिए गए.

इस भेद-भाव का नतीजा यह हुआ कि अंततः तमिलों ने हथियार उठा लिए. उत्तरी और पूर्वी श्रीलंका में तमिलों के कई छोटे-छोटे संगठन बनने शुरू हुए. एक तमिल युवा वेलुपिल्लई प्रभाकरन ने भी अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर ‘तमिल न्यू टाइगर्स’ नाम का एक संगठन बनाया. उस वक्त प्रभाकरन सिर्फ 18 साल का था. धीरे-धीरे यह संगठन मजबूत होने लगा. पांच मई, 1976 को प्रभाकरन ने इसका नाम बदल कर ‘लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम’ कर दिया. इसे आम तौर से लिट्टे नाम से जाना जाने लगा. 1980 का दशक आते-आते लिट्टे सबसे मजबूत, अनुशासित और  बड़ा तमिल आतंकवादी संगठन बन गया. लिट्टे ने उस वक्त के सभी छोटे संगठनों को या तो अपने साथ शामिल कर लिया या खत्म कर दिया. श्रीलंका में भारत के उच्चयुक्त रहे एनएन झा एक साक्षात्कार में कहते हैं, ‘लिट्टे ने उन सभी तमिल नेताओं को भी समाप्त कर दिया जो बातचीत में विश्वास रखते थे. प्रभाकरन तमिलों का एकमात्र प्रतिनिधि बन गया था.’ लिट्टे जितना मजबूत गुरिल्ला लड़ाई में था उतना ही मजबूत उसका संचार तंत्र भी था. लगभग 30 साल तक लिट्टे और श्रीलंका से जुड़े विषयों पर लिखते रहे वरिष्ठ पत्रकार श्याम टेकवानी के अनुसार लिट्टे का लंदन में मीडिया हेडक्वाटर था. लिट्टे द्वारा हर खबर यहां पहुंचा दी जाती थी. लंदन स्थित यह मुख्यालय इन ख़बरों को प्रेस विज्ञप्ति के रूप में सभी अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसियों और प्रकाशकों को भेज देता था. इस कारण लिट्टे जल्द ही दुनिया भर में मशहूर हो गया.

श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रहे भेदभाव के कारण तमिलनाडु के लोग उनके प्रति सहानुभूति रखते थे. इस कारण भारत पर तमिलों की मदद करने का भारी दबाव था. प्रभाकरन तमिलों का एकमात्र प्रतिनिधि बन चुका था. उसने भारत से मदद मांगी. भारत इसके लिए तैयार हो गया. तमिलनाडु तथा श्रीलंका में तमिल छापामारों को भारत सरकार द्वारा प्रशिक्षण दिया जाने लगा. इस बात का खुलासा सबसे पहले इंडिया टुडे पत्रिका के रिपोर्टर शेखर गुप्ता ने किया. एक साक्षात्कार में वे बताते हैं, ‘भारत सरकार लिट्टे के लोगों को सैन्य ट्रेनिंग दे रही थी. तमिलनाडु में तो यह एक खुले रहस्य की तरह था. इसकी जानकारी वहां सबको थी लेकिन सबको शायद यही स्वीकार  था इसलिए कोई इस पर लिख नहीं रहा था.’ लिट्टे को भारत से पूरी मदद मिल रही थी. ट्रेनिंग, हथियार, बम, पेट्रोल, वायरलेस, दवाइयां, कपड़े सब कुछ भारत द्वारा उन्हें दिया जाने लगा था.

मजबूत संचार तंत्र के कारण लिट्टे को दुनिया भर के तमिलों से भी मदद मिलने लगी थी. प्रभाकरन लगातार मजबूत हो रहा था. 23 जुलाई, 1983 को प्रभाकरन ने श्रीलंकाई सेना के खिलाफ पहला बड़ा कदम उठाया. लिट्टे ने श्रीलंका के 13 सैनिकों की हत्या कर दी. इसके साथ ही श्रीलंका में नरसंहारों और खूनी संघर्ष का सबसे वीभत्स दौर शुरू हो गया. पूरे श्रीलंका में तमिल विरोधी दंगे भड़क गए. लेखक एमआर नारायणस्वामी इन दंगों के बारे में कहते हंै, ‘जुलाई 1983 में श्रीलंका में जब तमिलों को मारा जा रहा था तो वहां की सरकार इसमें पूरी तरह से मिली हुई थी. उग्रवादियों के हाथ में वोटर लिस्ट थी और वे तमिलों को घर-घर जाकर मार रहे थे. सेना की गाड़ियों में उग्रवादी घूम रहे थे और पुलिस सब कुछ देख रही थी.’ दंगों के इस दौर को ‘ब्लैक जुलाई’ कहा गया. इसके बाद से श्रीलंका में गृह युद्ध की शुरुआत हुई. हजारों की संख्या में तमिल शरणार्थी भारत आने लगे. यहीं से अलग तमिल राष्ट्र- ‘ईलम’ की भी मांग तेज हो गई. पूर्व उच्चायुक्त एनएन झा के शब्दों में, ‘ब्लैक जुलाई से पहले ज्यादा लोग अलग राष्ट्र की मांग से सहमत नहीं थे. लेकिन इसके बाद तो तमिलों के मन में यह बात बैठ गई कि अलग हुए बिना न्याय नहीं हो सकता.’ लिट्टे तो पहले से ही ईलम की मांग कर रहा था. इस घटनाक्रम से इस मांग को व्यापक जनसमर्थन मिल गया.

ब्लैक जुलाई के बाद से लिट्टे और श्रीलंकाई सेना के बीच लगातार मुठभेड़ होती रही. इनमें दोनों तरफ के सैकड़ों लोग हर रोज मारे गए. भारत अब भी लिट्टे की पूरी मदद कर रहा था. तमिलनाडु में लिट्टे की सक्रियता बढ़ती जा रही थी और राज्य सरकार न सिर्फ उसे नजरंदाज कर रही थी बल्कि उसका समर्थन भी कर रही थी. नवंबर 1986 में तमिलनाडु पुलिस ने कुछ ईलम संगठनों पर छापा मारकर कई हथियार, वायरलेस और अन्य अवैध समान बरामद किए. इसके विरोध में प्रभाकरन मद्रास में भूख हड़ताल पर बैठ गया. उसने हथियार तो नहीं लेकिन अपने वायरलेस और संचार साधन वापस करने की मांग की. मीडिया ने भी इस मामले को खूब हवा दी. अंततः सरकार ने उसे जूस पिलाते हुए जब्त समान वापस कर दिया. इसके बाद तो तमिलनाडु में पहले से ही प्रसिद्ध प्रभाकरन की तमिलों में भगवान सरीखी छवि बन गई.

उधर, श्रीलंका में गृह युद्ध जारी था और इसमें हजारों लोग मारे जा चुके थे. श्रीलंका और भारत सरकार के बीच इसे रोके जाने को लेकर बातें भी चल रही थी. 1987 में यह तय किया गया कि भारत और श्रीलंका के बीच एक शांति समझौता किया जाएगा. नटवर सिंह उस वक्त विदेश राज्य मंत्री थे. एक साक्षात्कार में वे बताते हैं, ‘मैं और पी चिदंबरम साहब प्रभाकरन से मिले. हमने उन्हें समझाने की बहुत कोशिशें की लेकिन वे ईलम की मांग पर कोई समझौता करने तो तैयार नहीं थे. हमने उन्हें कहा कि ईलम का बनना मुमकिन नहीं है, इसे भूल जाओ. उन्होंने कहा कि मैं ईलम को नहीं भूल सकता.’

इसके बाद 28 जुलाई, 1987 को प्रभाकरन को राजीव गांधी से मिलने बुलाया गया. इस मुलाकात के बाद प्रभाकर ने प्रेस को बयान दिया और कहा, ‘प्रधानमंत्री तमिलों की समस्या समझते हैं और इस दिशा में काम कर रहे हैं. हम प्रधानमंत्री के इस रुख से संतुष्ट हैं.’ लेकिन प्रभाकरन ने खुलकर इस समझौते से संबंधित कोई भी बयान नहीं दिया. इसके अगले ही दिन राजीव गांधी श्रीलंका पहुंचे और राष्ट्रपति जेआर जयवर्धने के साथ शांति समझौते पर दस्तखत कर दिए.

भारत और श्रीलंका के बीच हुआ यह समझौता कितना घातक होने वाला था इसके संकेत जल्द ही मिलने लगे. समझौते पर किए गए राजीव गांधी के दस्तखत की स्याही सूखी भी नहीं थी कि उन पर जानलेवा हमले की कोशिश हुई. यह हमला श्रीलंका में ही हुआ और हजारों लोगों की मौजूदगी में हुआ. समझौते के अगले दिन राजीव गांधी को श्रीलंका सेना द्वारा सैनिक सलामी दी जा रही थी. राष्ट्रपति जयवर्धने के साथ राजीव गांधी सलामी ले रहे थे कि तभी सबसे आगे पंक्ति में खड़े एक श्रीलंकाई सैनिक ने उन पर बंदूक के बट से हमला कर दिया. खुद को संभालते हुए राजीव गांधी नीचे झुक गए जिस कारण उनके सिर पर चोट नहीं आई. बंदूक का यह वार उनकी गर्दन और कंधे पर जाकर लगा. सारे देश ने इस घटना को दूरदर्शन के माध्यम से देखा. इस हमले के कुछ साल बाद सोनिया गांधी ने कहा था कि ‘उस हमले के बाद राजीव लंबे समय तक न तो अपना कंधा पूरी तरह से उठा पाते थे और न ही उस करवट सो पाते थे.’

समझौते के दिन प्रभाकरन दिल्ली में ही था. पूर्व उच्चायुक्त एनएन झा का मानना है कि ‘प्रभाकरन कभी भी इस समझौते के पक्ष में नहीं था. लेकिन उस पर भारत का दबाव था इसलिए उसने कुछ समय तक इसका खुलकर विरोध नहीं किया.’ समझौते के अनुसार भारत से एक विशेष सैन्य दल भी श्रीलंका भेजा जाना था. इस दल को ‘इंडियन पीस कीपिंग फोर्स’ (आईपीकेएफ) कहा गया. समझौते वाले दिन ही आईपीकेएफ को भी श्रीलंका रवाना कर दिया गया. इसका काम था लिट्टे से आत्मसमर्पण करवाना. प्रभाकरन ने आईपीकेएफ को लिख कर दिया कि वह आत्मसमर्पण के लिए तैयार है. आईपीकेएफ के कमांडर रहे दीपेंदर सिंह ने अपनी किताब में इसका जिक्र करते हुए लिखा है, ‘अन्य आतंकी संगठनों के मुकाबले लिट्टे बड़े ही सुनियोजित तरीके से आत्मसमर्पण कर रहा था. वे हमें समय बताते थे और ठीक समय पर उनके ट्रक हथियार लेकर पहुंच जाते थे.’

लेकिन समझौते के तीन हफ्ते बाद ही 21 अगस्त को लिट्टे ने हथियारों का समर्पण बंद कर दिया. प्रभाकरन ने आईपीकेएफ के अधिकारियों को बताया कि भारतीय खुफिया विभाग लिट्टे के विरोधी संगठनों को हथियार दे रहे हैं. इस कारण लिट्टे अब समर्पण नहीं करेगा.

प्रभाकरन ने जब हथियार डालने से इनकार कर दिया तो श्रीलंका में मौजूद भारतीय अधिकारियों की एक बैठक बुलाई गई. इस बैठक में प्रभाकरन को भी बातचीत के लिए बुलाया गया था. जेएन दीक्षित उस वक्त भारत के उच्चायुक्त थे और यह बैठक उन्हीं की अध्यक्षता में होनी थी. आईपीकेएफ के मेजर जनरल रहे हरकीरत सिंह एक साक्षात्कार में बताते हैं, ‘इस मीटिंग से एक रात पहले मुझे उच्चायुक्त दीक्षित साहब का फोन आया था. उन्होंने मुझे कहा कि जनरल, कल जब प्रभाकरन मीटिंग में आए तो आप उसे गोली मार देना. मैंने जनरल दीपेंदर सिंह से इस बारे में बात की और फिर दीक्षित साहब को जवाब दिया कि हम फौजी हैं, हम कभी भी पीठ पर गोली नहीं मारते.’ यह मीटिंग हुई और प्रभाकरन इसमें शामिल भी हुआ. लेकिन अब तक लिट्टे ने जो उम्मीदें भारत से लगा रखी थी वे टूटने लगी थी. तमिल लोगों को जिस तरह से बसाया जा रहा था उससे लिट्टे समर्थक संतुष्ट नहीं थे. आईपीकेएफ द्वारा भी तमिलों पर अत्याचार की बातें सामने आ रही थी. इसके विरोध में 15 सितंबर को थिलीपन नाम का एक लिट्टे सदस्य भूख हड़ताल पर बैठ गया. उसका कहना था कि न तो समझौते की बातों पर अमल हो रहा है और न ही भारत सरकार अपनी भूमिका निभा रही है. 12 दिनों कि भूख हड़ताल के बाद थिलीपन की मौत हो गई. इस मौत ने एक बार फिर से लिट्टे में बदले की आग को हवा दे दी. यह मामला अभी शांत भी नहीं हुआ था कि एक और हादसा हो गया. अक्टूबर के पहले हफ्ते में श्रीलंका सेना ने लिट्टे के 17 सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया. इन्हें पूछताछ के लिए कोलंबो ले जाया जाने लगा. लिट्टे ने इनकी रिहाई के लिए भारत सरकार से मांग की. भारत सरकार ने लिट्टे की इस मांग पर कोई तेजी नहीं दिखाई. इस बीच इन गिरफ्तार सदस्यों में से 12 लोगों ने सायनाइड खाकर आत्महत्या कर ली. थिलीपन की मौत से भड़की आग में इस हादसे ने घी का काम किया. इसके बाद लिट्टे ने भारत और आईपीकेएफ को भी अपना दुश्मन मान लिया. कुछ दिन के भीतर ही लिट्टे ने आईपीकेएफ के 11 सैनिकों को जिंदा जलाकर मार डाला.

यहां से लिट्टे और आईपीकेएफ आमने-सामने आ गए. जो सेना भारत से शांति बहाली के लिए गई थी अब वही युद्ध में लग गई. आठ अक्टूबर को भारतीय जनरल ने आईपीकेएफ को लिट्टे पर खुले हमले के आदेश दे दिए. इस दिन के बाद से प्रभाकरन लगभग ढाई साल तक भूमिगत रहा.

भारत में राजीव गांधी द्वारा आईपीकेएफ को श्रीलंका भेजे जाने का विरोध होने लगा. संसद से लेकर सड़कों तक प्रदर्शन और रेल रोको आंदोलन तक हुए. देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा था कि श्रीलंका में भारतीय सेना के जवान मारे जा रहे थे और राजनीतिक दल सेना का ही विरोध कर रहे थे. 1989 में सत्ता परिवर्तन हुआ और राजीव गांधी प्रधानमंत्री पद से हट गए. नए प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने आते ही आईपीकेएफ को वापस बुलाने को फैसला किया. 24 मार्च 1990 को आईपीकेएफ का अंतिम बेड़ा श्रीलंका से वापस लौट आया. आईपीकेएफ के कुल 1248 जवान श्रीलंका में मारे गए थे लेकिन इस दौरान आईपीकेएफ ने लिट्टे को बहुत हद तक सीमित कर दिया था.

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