
हम किस शहर में रहते हैं? यह सवाल ही गलत है. सवाल यह होना चाहिए कि हम कैसे शहर में रहते हैं. आज हमारे शहर की पहचान क्या है? यह कि जहां शोर इस कदर बढ़ गया है कि सन्नाटे रात को भी नहीं आते! या यह कि यहां का रहवासी इतना सभ्य हुआ या यूं कहें कि शहर ही जंगल हुआ कि जंगल से अब आदमखोर नहीं आते! या फिर यह कि यहां कई अट्टालिकाएं गगनचुंबी हुईं कि बहुतेरी छतों पर अब रवि महाराज नहीं विराजते. कुछ पल के लिए भी नहीं. क्या इसी शहर पर हम इतराते हैं. क्या ऐसे ही शहर की कल्पना की थी हमने! जब कोई शहरी किसी गांववाले को धोती-कुरता पहने, गमछा डाले स्टेशन से बाहर निकलते हुए देखता है, तो सोचता है कि यह भी आ गया मरने. भीड़ बढ़ाने. ठीक वैसे ही जैसे किसी शहरी ने कभी इस वाले शहरी को स्टेशन से बाहर निकलते देख सोचा था. अभी इन्हीं खयालातों में डूब-उतरा रहा था कि शहर को मैंने अपने सामने से जाते देखा. सहसा विश्वास न हुआ. यह तो वही बात हो गई कि शैतान का नाम लो और शैतान हाजिर. मैंने शहर को रोककर कहावत सुना दी. शहर हंसा. मगर मैं गंभीर रहा. वजह थी अखबार में छपी एक खबर. उस खबर का हवाला अब हमारे बीच होने वाले संवादों में आने वाला था.
मैंने शहर से पूछा, ‘कल रात फुटपाथ पर बच्चा भूख से रोता रहा और तू घोड़ा बेचकर सोता रहा!’ शहर मुझे घूरने लगा. उसे इस बाबत कुछ भी पता नहीं था. मैंने अखबार उसके आगे बढ़ा दिया. शहर ने उड़ती नजरों से वह खबर पढ़ी. अखबार मुझे थमाते हुए लापरवाही से बोला, ‘यार, दिन भर का थका था. बिस्तर पर एक बार जो गिरा तो फिर कुछ नहीं पता. तू यह समझ जैसे कि मैं मरा था.’ ‘मैं जानता हूं कि कल रात भी तूने पी रखी होगी, नहीं तो रोना सुनकर झट खिड़कियां बंद कर ली होंगी.’ मेरी इस बात में दम था. वरना शहर अभी तक शोर मचाने लगता. शहर कुछ पल को शांत रहा. यकीन नहीं होता न! मगर वह हुआ, जैसे किसी भयानक विस्फोट के बाद कुछ पल की खामोशी. मनहूस. नितांत मनहूस.
जब बचे पर बचा पैदा कर रहे थे तब नही सोचा ़े कहां रहेंगे कया खायेंगे कया पियेंगे परीणाम सामने आया तो रोते कयों हो
होभुगतो अब इंदरागांधी ने चेतावनी दी थी समझे नही अब भारत दुनियां का सबसे बडा नरक बन चुका है जोलोग नरक मे विशवास नही करते वो टुरिसट बनकर यहां आयेंगे अछा धंधा चलेगा हम मालामाल होंगे