पांव की कोई नस अचानक चढ़ जाती है
इतना तेज दर्द कि पांव की मामूली सी जुम्बिश भी
इस नामुराद को बर्दाश्त नहीं
सोचता हूं और भी तो तमाम नसें हैं शरीर में
सलीके से जो रही आती हैं हमेशा अपनी अपनी जगह
एक यही कमज़र्फ़ क्यों वक्त बेवक्त ऐंठ कर
मेरा सुख चैन छीन लेती है
पैरों के साथ बरती गई न जाने कौन-सी लापरवाही का
बदला ले रही थी वह नस
मुझे लगा अपनी अकड़ती आवाज़ में कह रही हो जैसे
कि दिनभर बेरहम जल्लादों की तरह थकाया तुमने पैरों को
और बदले में क्या दिया?
दिनभर हम्मालों की तरह भार ढोया पैरों ने तुम्हारे शरीर का
कितनी सड़कें नापीं,
खाक झानी कितनी आड़ी टेढ़ी गलियों की
कितनी भटकनों की स्मृतियां दर्ज इनके खाते में
राजेश जोशी जी की कविता आम जीवन को टटोलकर मन को छू लेती है पाव की नस से जीवन के पूरे अवस्स्द समस्या और तकलीफो का लेखा जोखा दिया है अच्छी कविता के लिये साधुवाद