नेता जमीनी, जमींदोज हम !

मनीषा यादव
मनीषा यादव
मनीषा यादव

‘जी बताइए, कैसे आना हुआ?’ उन्होंने पूछा. ‘एक सवाल पूछना है आपसे’, मैंने जवाब दिया. ‘क्या आप पत्रकार हैं?’ उन्होंने अपनी नजरें मुझ पर गड़ा दी. ‘जी नहीं!’ मैंने स्पष्ट किया. मैंने देखा वह मुझे घूर रहे थे. उनकी आंखें धीरे-धीरे लाल हो रही थीं. उनकी आंखें मुझे तौल रही थीं. ‘मैं आपके निर्वाचन क्षेत्र का मतदाता हूं…’, मैंने हड़बड़ी में उन्हें बताया. उनकी आंखों की पुतलियां नाच गईं. चेहरा सौम्य हो गया. अचानक ही वे रबर की तरह लचीले हो गए. सोफा पर पहले फैले, फिर सिकुड़ गए. उनके क्षेत्र का मतदाता होना इसका आंशिक कारण था. अभी वहां जल्द ही मतदान होने वाला था, यह उनके सिकुड़ने का मुख्य कारण था. वे बहुत विश्वास से बोले, ‘पूछिए! पूछिए! हम यहां आप लोगों के लिए ही तो बैठे हैं.’

जिस वक्त वे यह सब कह रहे थे ठीक उस वक्त मैं वहां बिछे हुए कीमती कालीन को देख रहा था. ‘ईरान का है…’ उन्होंने उस कालीन के जन्म स्थान से मेरा परिचय करवाया. ‘जी, क्या मैं इस कालीन को उठा सकता हूं!’  ‘जी, मैं कुछ देखना चाहता था…’, मैंने खुलासा किया. ‘मुझे तो आप सीबीआई वाले लगते हैं!’ उन्होंने अपने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा. उनका आशंकित होना स्वाभाविक था. कुछेक सालों से आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में वे जांच के घेरे में थे. ‘जी, अगर आपको आपत्ति है, तो नहीं उठाते. कम से कम आप अपनी सैंडल तो उतार ही सकते हैं!’ मैंने उन्हें विकल्प सुझाया. वे शंकित हो बोले,‘आप मेरी सैंडल क्यों उतरवाना चाहते हैं?’ ‘जी कुछ देखना है!’, मैंने बताया. ‘आखिर आप चाहते क्या हैं?’, उनकी आंखें सिकुड़ीं. ‘चलिए, आप पैर उठाकर अपने तलवे दिखा दीजिए!’ ‘अगर आप अंगूठा दिखाने को कहते तो मैं फौरन आपको दिखा देता!’ उन्होंने फिकरा कसा. ‘जी वह तो आप बिन कहे ही दिखा देते हैं…’, मेरे मुंह से अचानक यह वाक्य कैसे निकल गया. मैं हैरान था. हैरान तो वे भी कम नहीं हुए. ‘आखिर आप चाहते क्या हैं?’, वे झल्लाकर बोले. ‘जी मैं जड़़ देखना चाहता हूं..’ ‘जड़…कैसी जड़?’ ‘जी आपकी…जी, आप ही तो कहते हंै कि आप जमीन से जुडे़ नेता हैं…’, वे फिच्च! से हंस पडे़. बोले,‘ आप बहुत हंसोड़ आदमी हैं भाई!’ ‘आप अगर जमीन से जुडे़ हुए हैं तो चलते कैसे हैं!’ मैंने दूसरी तरह से प्रश्न किया. वे लोलक की भांति सिर हिलाते हुए बोले,‘अरे भई, जमीन से जुड़ा हुआ मगर उसमें गड़ा नहीं हूं…’ ‘क्या आपने कभी खेती-किसानी की है?’ ‘मेरे बाप-दादाओं ने कभी की थी, मगर हां मेरे बडे़-बड़े कई फार्म हाउस है.’ उन्होंने जवाब दिया. ‘फिर जमीन से क्या ताल्लुक है आपका?’ ‘जमीन से जितना ताल्लकु मेरा है उतना तो किसान का भी न होगा. जमीन की खरीद-फरोख्त करके ही तो आज इतना बड़ा प्रॉपर्टी डीलर बना हूं. आज जो कुछ भी जमीन की वजह से हूं…’, बोलते-बोलते अचानक वे रुक गए. फिर मेरी आंखों में झांकते हुए बोले,‘अच्छा,अब मैं समझा! अगर जमीन खरीदनी हो तो बोलो, सस्ते में दे दूंगा. अपने आदमियों का ख्याल मैं नहीं रखूंगा तो कौन रखेगा! अरे भाई, आखिर मैं जमीन से जुड़ा आदमी हूं, एक नजर में पहचाना जाता हूं कि सामने वाले को क्या चाहिए!’ उन्होंने ऑफर के साथ अपनी विशेषता फिर रेखांकित की. ‘बाजार में आटे और दाल का क्या भाव चल रहा है, आपको मालूम है!’ मैंने बात बदली. उन्होंने फौरन अपने नौकर को हांक लगाई. फिर मेरी तरफ मुखातिब हो बोले, ‘वह क्या है कि घर का सौदा-सुलफ मेरे नौकर-चाकर ही लाते हंै न! वैसे महंगाई बहुत बढ़ गई है.’ मैंने तत्काल वहां से जाने की उनसे अनुमति मांगी, जो उन्होंने सहर्ष दे दी. जाते वक्त मैंने मुड़कर देखा. बगल में खड़ा उनका नौकर उन्हें कुछ बता रहा था और वे अपनी बगलें झांक रहे थे.