
मूल देश अमेरिका. फोटोः तरुण सहराित
कुछ लोग आदतन अलग होते है. उनका घर छोड़ना, नया घर बसाने के लिए होता है. दिल्ली स्थित श्रीराम भारतीय कला केंद्र में युवा नर्तकों को भरतनाट्यम सिखाते जस्टिन मैकार्थी को देख कर कुछ ऐसा ही महसूस होता है. 21 साल की उम्र में जस्टिन ने अमेरिका छोड़कर भरतनाट्यम सीखने के लिए भारत का रुख किया और पिछले 32 सालों से उनका घर भारत ही है. जस्टिन हमेशा से डांसर बनना चाहते थे. मगर बचपन में घरवालों ने पियानो सीखने भेज दिया. पांच साल की उम्र से पियानो सीख रहे जस्टिन का वैसे तो पियानो आज भी साथी है लेकिन नृत्य सीखने की ललक नहीं गई. संगीत (पियानो) की शिक्षा लेते रहे और अलग-अलग डांस-फार्म की तरफ आते-जाते रहे. 19 साल की उम्र में टैप-डांस से लेकर बैले और एक्रोबैटिक तक में हाथ आजमा लिया. मगर किसी में मन नहीं रमा. आखिर में गोल्डन पार्क, कैलिफोर्निया में पहली बार भरतनाट्यम मंच पर देखा और उनके शब्दों में, ‘देखने के बाद ही दिल-दिमाग में कुछ हो गया.’
जिंदगी के अंतिम फैसले दिल-दिमाग में एक साथ ही होते हैं. भरतनाट्यम को देखते हुए जस्टिन को उसी क्षण यह बात समझ आ गई. उन्होंने ही कुछ ही दिनों बाद भरतनाट्यम नृत्यांगना बाला सरस्वती के दो अमेरिकी शिष्यों से इस नृत्य विधा की शिक्षा लेनी शुरू कर दी. एक साल तक अमेरिका में भरतनाट्यम सीखने के बाद जब लगा कि इस नृत्य साधना में गहरे उतरना है तो जस्टिन ने भारत आने का फैसला किया. वे सन् 1979 में मद्रास पहुंचे और एक साल तक सुब्बारया पिल्लई से भरतनाट्यम सीखा. लेकिन जब मद्रास की गर्मी और खाना बर्दाश्त नहीं हुआ तो एक डांसर दोस्त, नवतेज जौहर, की सलाह पर दिल्ली आ गए. उसके बाद दस साल तक श्रीराम भारतीय कला केंद्र में मशहूर नृत्यांगना लीला सैमसन से भरतनाट्यम विस्तार में सीखा. उधर अमेरिका में जस्टिन की मां को लग रहा था कि उनका बेटा हाथी पर बैठकर क्लास जा रहा है, सफेद चादर लपेट कर सड़कों पर घूम रहा है. उस दौर में विदेशी आंखों को हिंदुस्तान कुछ ऐसा ही नजर आता था. मगर जस्टिन आने से पहले हिंदुस्तान के बारे में काफी कुछ पढ़ चुके थे और नई चीजों को जानने के इच्छुक थे. मां-बाप को समझाकर और उन्हें भारत के बारे में सही जानकारी दे जस्टिन अपनी साधना में लगे रहे. साथ ही स्थानीय लोगों से बातचीत करने और भरतनाट्यम नृत्य और कर्नाटक संगीत को बेहतर समझने के लिए उन्होंने तमिल और संस्कृत सीखी. हिंदी और तमिल भाषा किताबों और लोगों से बातचीत करते-करते सीखी. दिल्ली में एक गुरू के साथ रहकर आठ साल तक संस्कृत का अध्ययन किया. संस्कृत सीखने की वजह बताते हुए जस्टिन कहते हैं, ’जयदेव का गीतगोविंदम् संस्कृत में पढ़ने की बड़ी इच्छा थी, इसलिए संस्कृत सीखी. बाद में पता चला कि संस्कृत में इसके अलावा भी बहुत कुछ पढ़ने के लिए है.
संस्कृत ऐसी भाषा है जो सारी जिंदगी पढ़ने के बाद भी आपको पूरी तरह से नहीं आ सकती.’ शायद इसलिए स्कूलों में जिस तरह ‘तोतागीरी’ करके गलत तरीके से संस्कृत सिखाई जाती है उससे भी जस्टिन बेहद नाराज हैं और इसी को संस्कृत के आज के लोगों के बीच पैठ न बना पाने की मुख्य वजह मानते हैं. जस्टिन हिंदी भी इतने प्रवाह से बोलते हैं कि आप भी हैरान और आप का शब्दकोश भी.
जस्टिन पिछले 15 साल से सरकारी रूप से भारतीय नागरिक हैं. भारतीय नागरिकता के लिए जस्टिन ने 1994 में अर्जी डाली थी और ढाई साल अलग-अलग दफ्तरों के चक्कर लगाने के बाद आखिरकार 1997 में वे इस देश के नागरिक बन पाए. आखिर में जब वे दिल्ली की तीस हजारी अदालत शपथ लेने गए तो वहां एक चपरासी ने इशारे से रिश्वत की मांग कर दी. जस्टिन सीधे मजिस्ट्रेट के दफ्तर में घुस गए और शपथ लेकर लौटे, साथ ही चपरासी को डांट भी लगवाई. जस्टिन की नजर में भारत की नागरिकता लेना भावनात्मक से ज्यादा व्यावहारिक था, ’मुझे यहां रहते 16-17 साल हो चुके थे और मेरा काम यहीं पर था. और अब जब में आधिकारिक रूप से भारत का नागरिक बन चुका हूं तो मुझे इस बात की काफी खुशी होती है.’ मगर जस्टिन के लिए अमेरिकी नागरिकता छोड़ना और भारतीय नागरिकता लेना कोई ‘आइडेंटिटी क्राइसिस’ नहीं था. वे स्वंय को वैश्विक नागरिक मानते हैं, ‘मैं अपने आपको इस तरह नहीं देखता कि मैं भारतीय हूं या अमेरिकी. मैं अपने को ग्लोबल सिटीजन मानता हूं और यह सीख मैंने बचपन में अपने प्यानो टीचर से ली थी जो कहा करते थे कि कलाकार किसी एक देश का नहीं होता.’ जस्टिन नागरिकता मिलने के बाद से ही लगातार भारत में वोट करते आ रहे हैं. शुरू में पोल बूथ पर देख कर लोग आश्चर्य तो करते थे मगर साल-दर-साल साथ-साथ वोट करने से जस्टिन को जानने लगे. वे हिंदुस्तानी राजनीति को भी अच्छे से जानते हैं और लोकपाल बिल पर चल रही नौटंकी पर साफ दिल से कहते हैं, ‘कानून से तो नहीं जाएगा भ्रष्टाचार. वह तो समाज में पहले से ही रचा-बसा हुआ है जो सिर्फ पढ़ाई और सतर्कता से ही आहिस्ता-आहिस्ता जाएगा.’