धर्म नहीं है खेल!

cricket15 मई को इंडियन प्रीमियर लीग में मुंबई इंडियंस और राजस्थान रॉयल्स के बीच मैच था. पहले मुंबई इंडियंस ने बैटिंग की और मैच के तीसरे ही ओवर में मैक्सवेल ने अंकित चव्हाण की गेंदों पर दो छक्के जड़ दिए. राजस्थान की दमदार गेंदबाज़ी और सचिन तेंदुलकर की अनुपस्थिति के बावजूद मुंबई इंडियंस 166 रन बनाने में कामयाब रहा और स्टुअर्ट बिन्नी और ब्रैड हॉज के संघर्ष के बाद भी राजस्थान मैच हार गया.

अगली सुबह देश का स्वागत चौंकाने वाली ब्रेकिंग न्यूज़ की पट्टियों ने किया. दिल्ली पुलिस ने राजस्थान रॉयल्स के तीन खिलाड़ियों, श्रीसंत, अजीत चंदीला और अंकित चव्हाण को मुंबई से गिरफ़्तार किया था. इन पर स्पॉट फिक्सिंग, यानी सटोरियों के इशारों पर किन्हीं खास ओवरों में खास रन देने का आरोप था. शाम को जब दिल्ली के पुलिस कमिश्नर नीरज कुमार ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की तब तस्वीर और साफ हो गई. पता चला कि मुंबई इंडियंस की पारी के तीसरे ओवर के जिन छक्कों को सभी मैक्सवेल की शानदार बैटिंग मान रहे थे, वे सटोरियों के इशारे पर की गई स्पॉट फिक्सिंग का नतीजा थे. इस एक ओवर की कीमत सटोरियों ने 60 लाख रुपये लगाई थी. क्रिकेट से प्यार करने वालों में से कई मानते हैं कि अगर अंकित चव्हाण ने जान-बूझ कर 15 रन वाला यह महंगा ओवर न फेंका होता तो मैच का नतीजा राजस्थान रॉयल्स के हक में भी जा सकता था. आखिर राजस्थान रॉयल्स की टीम 14 रन से ही तो यह मैच हारी थी.

लेकिन स्पॉट फिक्सिंग का यह खेल इसी मैच और ओवर तक सीमित नहीं था. दिल्ली पुलिस ने बाकायदा सटोरियों और खिलाड़ियों की बातचीत सुनाते हुए और मैच के फुटेज दिखाते हुए साबित किया कि टूर्नामेंट के दो और मैच फिक्स थे. पांच मई को पुणे वॉरियर्स और राजस्थान रॉयल्स के मैच में अजीत चंदीला ने 20 लाख की पेशगी लेकर और कुल 40 लाख का सौदा करके एक ख़राब ओवर फेंका था और नौ मई के मैच में श्रीसंत ने पैसे लेकर ख़राब गेंदबाज़ी की थी. दिल्ली पुलिस का दावा है कि सटोरियों ने श्रीसंत से एक करोड़ का सौदा किया था. क्रिकेट का दीवाना देश माय़ूस था. जिन चौकों-छक्कों के लिए, क्रिकेट के जिस रोमांच के लिए लोग देर रात तक अपनी आंखें फोड़ा करते थे, उनके पीछे खेल का हुनर नहीं, तौलियों और रिस्ट बैंड के इशारे थे, यह खयाल अपने आप में काफी चोट पहुंचाने वाला था.

धीरे-धीरे दिल तोड़ने वाले और भी ख़ुलासे सामने आए. पता चला कि मामला सिर्फ तीन खिलाडि़यों और उनके साथ गिरफ्तार किए गए सात सटोरियों का नहीं है, इसमें दूसरे खिलाड़ी भी शामिल हैं और इनकी जद में पुराने मुक़ाबले भी आते हैं. दिल्ली पुलिस ने यहां तक दावा किया कि सटोरियों के चार अलग-अलग गैंग इस खेल में शामिल थे और अजीत चंदीला उनकी तरफ से काम कर रहा था. सटोरियों और अजीत चंदीला की बातचीत से यह भी शक होता रहा कि आईपीएल-5 के मुकाबलों में भी स्पॉट फिक्सिंग चल रही थी. धीरे-धीरे और नाम भी सामने आने लगे. राजस्थान रॉयल्स के ही एक और पुराने खिलाड़ी अमित सिंह को पुलिस ने गिरफ़्तार किया. रेलवे का एक और क्रिकेटर बाबूराव यादव पकड़ा गया. उसके बयान से यह बात सामने आई कि सिर्फ आईपीएल नहीं, बल्कि आईसीएल, यानी इंडियन क्रिकेट लीग पर भी सटोरियों की नज़र थी और आईसीएल बंद होने के बाद उन्होंने बांग्लादेश प्रीमियर लीग की तरफ रुख़ करने की कोशिश की थी. वहां भ्रष्टाचार निरोधी ब्यूरो ने उन्हें पहचान लिया तो भागना पड़ा.

यहां तक गनीमत बस इतनी थी कि इसमें श्रीसंत को छोड़कर अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाला कोई दूसरा खिलाड़ी शामिल नहीं था. किसी कप्तान या टीम के प्रबंधन के भी शामिल होने की ख़बर नहीं थी. लेकिन सटोरियों की सांठगांठ की एक अलग जांच में जुटी मुंबई पुलिस ने दारा सिंह के बेटे विंदू दारा सिंह को गिरफ़्तार करके पूछताछ शुरू की तो यह दिलासा भी हाथ से निकल गई. अगली गिरफ़्तारी सट्टा लगाने और सटोरियों से रिश्ते रखने के मामले में सीधे चेन्नई सुपरकिंग्स के टीम प्रिंसिपल और सीईओ माने जाते रहे गुरुनाथ मयप्पन की हुई.

मयप्पन बीसीसीआई प्रमुख और चेन्नई सुपरकिंग्स के मालिक एन श्रीनिवासन के दामाद हैं और अपनी  गिरफ्तारी से पहले श्रीनिवासन के कुडईकनाल वाले रेस्ट हाउस में उनके साथ ही ठहरे हुए थे. अब श्रीनिवासन अपना और अपनी टीम का बचाव यह कहते हुए कर रहे हैं कि मयप्पन का कभी उनकी टीम से रिश्ता ही नहीं रहा. इस पूरे मामले में श्रीनिवासन, चेन्नई सुपरकिंग्स और बीसीसीआई की जबर्दस्त किरकिरी हो रही है, मगर श्रीनिवासन अपना पद छोड़ने को तैयार ही नहीं. सच तो यह है कि वे अगर बचे हुए हैं तो बीसीसीआई के कुछ बेशर्म नियमों और अपनी रणनीतिक ताकत के दम पर, किसी नैतिक साख के सहारे नहीं. आईपीएल पर यह एक बड़ी चोट इसलिए भी है कि आरोपों की धूल सीधे आईपीएल की सबसे कामयाब टीम चेन्नई सुपरकिंग्स पर है और उसके कप्तान महेंद्र सिंह धोनी भारतीय क्रिकेट टीम के भी कप्तान हैं.

क्या इतना सबकुछ होने के बाद भी किसी का क्रिकेट देखने का मन करेगा?  क्रिकेट की लोकप्रियता, और उसको लेकर दीवानगी ने इसे भारत का दूसरा धर्म बना डाला था और क्रिकेटर बिल्कुल भगवान की तरह पूजे जा रहे थे. क्या खंड-खंड हो रहे इन देवताओं की पूजा जारी रहेगी और पाखंड-पाखंड हो रहा यह धर्म बचा रहेगा? बहरहाल, इस मामले को स्प़ॉट फिक्सिंग या सट्टेबाज़ी तक सीमित रखेंगे तो वह जटिल और उलझी हुई सच्चाई ठीक से समझ में नहीं आएगी, जिसके एक सिरे पर यह राय­­ है कि क्रिकेट इस देश में धर्म जैसी हैसियत हासिल कर चुका है और दूसरे पर यह तथ्य कि आईपीएल ने इस धर्म को धंधे में बदल डाला है.

सबसे पहले यह समझने की कोशिश करें कि वह कौन सी चीज़ है जिसने क्रिकेट को लेकर भारत में इस क़दर दीवानगी पैदा की है और क्रिकेटरों को देवता बना दिया है. 1983 में जब भारत ने क्रिकेट का विश्व कप जीता, तब तक सार्वजनिक उपलब्धियों के नाम पर गर्व करने लायक चीज़ें या तो बेहद कम बची थीं या तिरोहित हो रही थीं. हॉकी का बेहतरीन दौर बीत चुका था और बदतरीन शुरू हो चुका था. 1980 में बैडमिंटन के शिखर पर पहुंचे प्रकाश पादुकोन ढलान पर थे. टेनिस में विजय अमृतराज काफी उम्मीद पैदा करने के बाद थके हुए दिख रहे थे. शतरंज के चैंपियन विश्वनाथन आनंद का तब तक उदय नहीं हुआ था. ऐसे में क्रिकेट ने हमें विश्व विजेता बनाया. आने वाले वर्षों में हमें फिर से चैंपियन बनने में काफी वक़्त लगा, लेकिन यह इकलौता खेल रहा जिसमें भारत को कामयाबी की उम्मीद बनी रही. सुनील गावसकर और कपिलदेव के बाद अजहरुद्दीन, सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़, अनिल कुंबले, युवराज सिंह, वीरेंद्र सहवाग, वीवीएस लक्ष्मण और महेंद्र सिंह धोनी वे सितारे थे जिनके आगे दुनिया नतमस्तक हो रही थी.

अस्सी और नब्बे के दशकों में भारत के दूर-दराज के शहरों में बड़ी हो रही पीढ़ी को कायदे से या तो बॉलीवुड के हीरो मिले या फिर यही नायक मिले. राजनीति भरोसा खो चुकी थी, साहित्य-कला और संगीत-नृत्य लोकप्रिय विमर्श से बाहर थे और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में भारतीय मेधा का कोई बड़ा दखल नहीं दिख रहा था. ऐसे में ये क्रिकेटर ही थे जिन्होंने इस पीढ़ी को अंतरराष्ट्रीय पहचान का भरोसा दिलाया.

शायद इन्हीं वजहों से क्रिकेट अचानक मुंबई, दिल्ली और चेन्नई जैसे बड़े केंद्रों तक सीमित न रह कर छोटे शहरों और कस्बों तक फैल गया. भद्रजन अंग्रेजों का खेल रातों-रात भारतीय मध्यवर्ग के खेल में बदल चुका था. इक्कीसवीं सदी आते-आते दूर-दराज के शहरों और कस्बों से खिलाड़ी आने लगे. रांची से महेंद्र सिंह धोनी, गाज़ियाबाद से सुरेश रैना, मुरादाबाद से पीयुष चावला, केरल से श्रीसंत, जालंधर से हरभजन सिंह, बड़ौदा से इरफ़ान पठान, भड़ूच से मुनाफ पटेल और ऐसे ढेर सारे दूसरे नामों ने एक नई पहचान बनाई. ये भारतीय मध्य वर्ग के नए देवता थे जो सफलता और पराक्रम के नए मिथ रच रहे थे.

इत्तेफाक से यह वही दौर था जब भारतीय बाज़ार अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खुल रहा था और उन्हें यहां पैठ और पहचान बनाने के लिए अपने नायक और प्रतीक चाहिए था. बाज़ार ने क्रिकेट को हाथों-हाथ लिया और उसे अपनी जरूरतों के हिसाब से बदला भी. टेस्ट मैचों की ऊब कम करने के लिए वनडे मैचों की शुरुआत हुई और वनडे मैचों में भी नई रफ़्तार भरने के लिए 20-20 के ओवरों का मुकाबला सामने आया. यह एक नई शुरुआत थी जिसने खेल और खिलाड़ियों दोनों को बदला. क्रिकेट का व्याकरण कहीं पीछे छूट गया. खिलाडि़यों ने स्ट्रोक प्ले के नए अंदाज़ विकसित किए. एक इंटरव्यू में राहुल द्रविड़ ने कहा भी कि जिन स्ट्रोक्स के लिए कभी उन्हें डांट पड़ती थी, आज वे सबसे ज्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले शॉट हैं. बल्लेबाज़ बाहर जाती गेंदों को मारने लगे. उछल कर शॉट लगाने की नई तकनीकें दिखने लगीं. पुरानी शास्त्रीयता की जगह दुस्साहस और जोखिम का एक नया तत्व दाखिल हो गया. इन सबके बीच रनों की बरसात होने लगी और विकेटों का पतझर भी दिखने लगा. क्रिकेट अचानक नया हो उठा. 2007 के टी-20 वर्ल्ड कप में भारत की जीत के साथ जैसे भारतीय क्रिकेट का एक नया अध्याय शुरू हुआ.

दरअसल बाज़ार के लिए यह एक आदर्श घड़ी थी जब वह क्रिकेट को लगभग गोद ले लेता. 2008 में इंडियन प्रीमियर लीग शुरू हुई. अचानक आठ नई टीमें वजूद में आ गईं. भारत के शहरों और राज्यों के साथ डेयरडेविल्स, चार्जर्स, सुपरकिंग्स, रॉयल्स, चैलेंजर्स जैसे शब्द जोड़े गए और उन्हें बड़े पूंजीपतियों के हाथों बेच दिया गया. इसके बाद ज़्यादा हैरान करने वाले दृश्य आए. क्रिकेट के देवता पहली बार नीलाम होते देखे गए. तेंदुलकर, द्रविड़, गांगुली जैसे कुछ सीनियर खिलाडि़यों को आइकॉन बताकर कहा गया कि ये नीलाम नहीं होंगे, लेकिन आने वाले दौर में सचिन को छोड़कर बाकी सभी महानायकों को अपनी टीमें छोड़नी पडीं और कप्तानी भी. यह भारतीय क्रिकेट में एक बड़े बदलाव की सूचना थी जो बताती थी कि क्रिकेटर अब सिर्फ देश के लिए नहीं, पैसे वालों के इशारों पर भी खेलते हैं. यह सत्तर के दशक से ठीक उलट स्थिति थी जब भारतीय क्रिकेटरों ने कैरी पैकर के पैसे को ठोकर मार दी थी और पैकर सर्कस में जाने से इनकार कर दिया था. चाहें तो याद कर सकते हैं कि यह वह दौर था जब भारतीय क्रिकेट में बहुत पैसा नहीं था और क्रिकेटरों को भविष्य के लिए अलग से सोचना पड़ता था. लेकिन जो स्वाभिमान तब भारतीय खिलाड़ियों ने दिखाया था, वह अब पहले से ही करोड़ों में खेल रहे क्रिकेटर नहीं दिखा सके – किसी एक क्रिकेटर ने भी अपवाद के तौर पर नहीं कहा कि वह अपनी बोली लगवाने से इनकार करता है, कि उसे ऐसा पैसा, ऐसा खेल नहीं चाहिए.

लेकिन शायद इस पूरी प्रक्रिया में इस तरह की बहस की गुंजाइश नहीं थी. यह पूंजी का खेल था जो क्रिकेट के रनों के साथ-साथ पैसा बरसने का भी इंतज़ाम कर रहा था. इसलिए क्रिकेट की रंगीनी में नया ताम-झाम जोड़ने, नई उत्तेजना पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई. इसके लिए रंग-बिरंगे स्टेडियम तैयार किए गए, मैचों के भव्य प्रसारण की व्यवस्था हुई और हर चौके-छक्के या विकेट पर थिरकने वाली चीयरलीडर्स जुटाई गईं. क्रिकेट का रोमांच अब झागदार मादकता वाले नशे में तब्दील हो रहा था. ध्यान से देखें तो यह क्रिकेट को बिल्कुल तीन घंटे के फिल्मी शो में बदलने का उद्यम था. पहले सिर्फ बॉलीवुड की मार्फत दिखने वाली चालू किस्म की मनोरंजन संस्कृति को अब एक नया वाहन मिल गया था. क्रिकेट अब पूंजीवालों का खेल है जिसमें हजारों के टिकट हुआ करते हैं, देर रात की पार्टियां हुआ करती हैं. ग्लैमर की छौंक हुआ करती है और इन सबके पीछे खड़ा संदिग्ध पैसा भी.

आईपीएल को नापसंद करने वालों के लिए नए-नए तर्क भी जुटाए जाते रहे. पहले आईपीएल में जब दुनिया भर के खिलाड़ी जुटे तो कहा गया कि यह राष्ट्रवादी संकीर्णताओं पर क्रिकेट की जीत है. एक हद तक यह बात सही थी कि आईपीएल ने नकली राष्ट्रवाद की सरहदों को मिटाया. आईपीएल में हरभजन और रिकी प़ॉन्टिंग एक साथ खेलते दिखे और माइकल हसी और शेन वाटसन आमने-सामने नज़र आए. कोलकाता सौरव गांगुली के लिए नहीं, शोएब अख़्तर के लिए तालियां बजाता नज़र आया.

लेकिन यह राष्ट्रवाद पर क्रिकेट की नहीं, बाजार की, पैसे की जीत थी- इस बाज़ार के लिए मलिंगा ने श्रीलंका के लिए खेलना छोड़ दिया, लेकिन आईपीएल के लिए खेलना जारी रखा. क्रिस गेल बीच के दौर में वेस्ट इंडीज़ की टीम से बाहर रहे, लेकिन आईपीएल खेलते रहे. कई दूसरे खिलाड़ियों ने अपने मुल्कों की जगह आईपीएल को तरजीह दी. कई भारतीय खिलाड़ी भी अंतरराष्ट्रीय मुक़ाबलों में चोटिल हो जाने पर या होने के डर से नहीं खेले, लेकिन आईपीएल में खेलने के लिए हमेशा तैयार दिखे. वीरेंद्र सहवाग ने मार्च 2012 में राष्ट्रीय टीम से अपना नाम वापस ले लिया था. लेकिन पूरी तरह ठीक न होने के बावजूद आईपीएल में खेलने से वे खुद को नहीं रोक पाए. इससे उनकी चोट इतनी गंभीर हो गई कि बाद में उन्हें तीन महीने तक आराम करना पड़ा.

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