
यह कैसी बयार बह रही है! किस दिशा से बह रही है! वह उतावली है या हम! वह उड़ा रही है हमें या हम स्वयं उड़ रहे हैं! देश का कारवां किस भरोसे बढ़ रहा है! कहां से चले थे, कहां पहुंचे ! न ठहर रहे हैं, न स्वयं को टटोल रहे. बस आगे (!) बढ़ने की धुन, मगर दिशा क्या हो, पता नहीं. पहले चिंता सताए जाती थी कि चुनरी में लगे दाग को छुड़ाया कैसे जाए, फिर होड़ पैदा हुई कि उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसे. आगे बढ़े, दाग ढ़ूंढ़ते रह जाओगे, तक पहुंचे. और आगे बढ़े, दाग अच्छे हैं, तक आ पहुंचे. कल को अगर दागपना ही उम्मीदवारी की एकमात्र योग्यता-पात्रता बने तो अचरज कैसा. बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय, पुराने जमाने की बात हो गई.
(कुछ कहेंगे कि घिसी-पिटी बात हो गई.)
जिस ढंग से हम आगे बढ़ रहे हैं उसमें कथनी-करनी, कार्य-कारण परस्पर समानांतर नजर आते हैं. जो आजीवन स्वदेशी की बात करते रहे, सुना है कि कल वो विदेशी जब्तशुदा दुकान में नजर आए. ऐसा भक्तिपूर्ण माहौल बना कि श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ी, मगर दयालु कम हो गए. जो मानवीय नहीं थे, वे माननीय हो गए. रंगदारी वसूलने वाला रंगबाजी में जीने लगा और शरीफ आदमी सिर झुकाए. जिन्हें शिकायत थी कि सामूहिकता-सामाजिकता समाज से रीत रही है उन्हें सामूहिक बलात्कार की घटनाओं ने गलत साबित किया. जहां आंदोलन चलना चाहिए था, वहां बैठक चली. और जहां बैठक होनी चाहिए थी, वहां ताले लटके रहे. जहां हल चलना चाहिए था वहां कारें चल रही हैं. हरित क्रांति के बाद भी कुपोषण को भगा नहीं पाए हम, हां मगर यह जरूर है कि सोना आयातक देशों में पहले नंबर पर आ गए (हथियारों की खरीद में भी).