शरद पवार: जहां पावर वहां पवार

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लोकसभा चुनाव के दौरान एक जनसभा में शरद पवार

देश की राजनीति में शरद पवार का नाम किसी पहचान का मोहताज नहीं हैं. वह महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय राजनीति में एक कद्दावर नेता के रूप में जाने-पहचाने जाते हैं. लेकिन अगर राजनीतिक विश्लेषकों की मानें, तो साल 2014 में हुए लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के नतीजों ने उनके दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) को देश और महाराष्ट्र की राजनीति में हाशिए पर ला खड़ा किया है. साल 2009 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में 62 सीटें जीतनेवाली राकांपा इस बार के चुनावों में महज 41 सीटें ही जीत सकी और लोकसभा चुनावों में तो इस बार यह महज छह सीटों पर (महाराष्ट्र- 4, बिहार- 1, लक्षद्वीप- 1) सिमट गई. लोकसभा चुनाव के बाद तो यह नौबत आ गई थी कि पार्टी के राष्ट्रीय दर्जे पर ही खतरा बन आया था.

शरद पवार और राजनीति

12 दिसंबर 1940 को बारामती तहसील के काटेवाड़ी गांव में जन्मे शरद पवार महाराष्ट्र के एकमात्र नेता हैं जिन्हें चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली है. वह केवल प्रदेश में ही नहीं, बल्कि केंद्रीय मंत्रिमंडलों में भी विभिन्न पदों पर रह चुके हैं. महाराष्ट्र के पहले मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण उनके राजनीतिक गुरु थे और उन्होंने ही पवार को सक्रिय राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया था. राजनीति में उनका पहला कदम तब पड़ा, जब उन्होंने 1956 में गोवा मुक्ति आंदोलन में भाग लिया था. कॉलेज के दिनों से ही राजनीति की तरफ उनका रुझान बढ़ता चला गया. वह पुणे के मशहूर बृहन महाराष्ट्र कॉलेज ऑफ कॉमर्स में पढ़ते थे और कॉलेज के महासचिव थे. इन्हीं दिनों वह युवक कांग्रेस के संपर्क में आए और आगे चलकर 1964 में भारतीय युवक कांग्रेस की महाराष्ट्र इकाई के अध्यक्ष बने.

पवार पर यशवंतराव चव्हाण का काफी गहरा असर था और उन्हीं के मार्गदर्शन में 1967 में उन्होंने अपना पहला विधानसभा चुनाव बारामती विधानसभा क्षेत्र से जीता था.यह बात और है कि 1978 में पवार ने चव्हाण और कांग्रेस का साथ छोड़कर कांग्रेस (समाजवादी) पार्टी बना ली और जनता पार्टी का दामन थाम लिया था. इसी गठबंधन की बदौलत वह मात्र 38 वर्ष की आयु में पहली बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए. इसके बाद पवार के राजनीतिक करियर में कई तरह के उतार-चढ़ाव आए, लेकिन वह सत्ता के नजदीक ही नजर आए.

साल 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल कर जब इंदिरा गांधी वापस केंद्र की सत्ता पर काबिज हुईं, तो उन्होंने पवार के नेतृत्व वाली राज्य सरकार को बर्खास्तकर महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया था. साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस (आई) को 419 सीटें हासिल हुईं और राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बने. यही वह चुनाव था जिसमें पवार ने पहली बार बारामती संसदीय क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. यह वह चुनाव था जब राजनीति के बड़े-बड़े दिग्गजों को हार का सामना करना पड़ा था. गौरतलब है कि एनटी रामाराव की तेलगु देशम पार्टी इन चुनावों में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी और भारत के संसदीय लोकतंत्र में ऐसा पहली बार हुआ था जब कोई क्षेत्रीय दल लोकसभा में प्रमुख विपक्षी दल बना हो.

साल 1985 में पवार ने अपनी लोकसभा सीट छोड़कर एक बार फिर प्रदेश की राजनीति का रुख किया और इसी साल हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में उनकी कांग्रेस (समाजवादी) को 54 सीटें हासिल हुईं. 288 सीटोंवाली विधानसभा में कांग्रेस (आई) को 161 सीटों पर जीत मिली. इस चुनाव के बाद पवार  महाराष्ट्र विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बने. राज्य में शिवसेना के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए राजीव गांधी के आग्रह पर पवार ने 1986 में कांग्रेस (समाजवादी) का कांग्रेस (आई) में विलय कर दिया. इसके बाद 1988 में महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण को केंद्र सरकार में वित्त मंत्री का पद दे दिया गया और शरद पवार को महाराष्ट्र की कमान सौंप दी गई. इस तरह वह दूसरी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. साल 1990 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को एक बार फिर जीत मिली और पवार तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे.

साल 1991 में हुए संसदीय चुनावों में शरद पवार एक बार फिर से लोकसभा पहुंचे और सुधाकर राव नाईक ने राज्य में उनकी जगह पदभार संभाला. तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव के मंत्रिमंडल में पवार केंद्रीय रक्षा मंत्री बने. पवार से मतभेद के चलते नाईक ने साल 1993 में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. ऐसे में पवार फिर प्रदेश लौट आए और चौथी बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने.

साल 1995 में जब महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना के गठबंधन की सरकार बनी, तो पवार ने एक बार फिर दिल्ली का रुख किया. साल 1996 में उन्होंने तीसरी बार लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. इसके बाद साल 1997 में उन्होंने संगठन के स्तर पर कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए सीताराम केसरी को चुनौती दी, लेकिन उनसे हार गए. साल 1998 में हुए लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा, तो कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए सोनिया गांधी का नाम आगे आया, जिसका पवार ने पुरजोर विरोध किया. पवार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि भारतीय मूल का व्यक्ति ही देश में प्रधानमंत्री पद का दावेदार हो सकता है. इसी मसले पर मतभेद की वजह से 25 मई 1999 को उन्होंने तारिक अनवर और पूर्णो संगमा के साथ मिलकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया.

पवार ने भले ही अलग दल बना लिया हो, लेकिन 2004 के लोकसभा चुनाव में उनके दल ने कांग्रेस के नेतृत्ववाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) का साथ दिया और पवार केंद्रीय कृषि मंत्री बने. साल 2009 के लोकसभा चुनावों के बाद भी कांग्रेस के साथ उनका गठबंधन बना रहा और वह एक बार फिर मंत्रिमंडल में शामिल हुए. इसके बाद साल 2012 में उन्होंने घोषणा कर दी कि वह 2014 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे. गौरतलब है कि 2009 के लोकसभा चुनाव में पवार ने मढ़ा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा था और बारामती की अपनी पारंपरिक सीट अपनी बेटी सुप्रिया सुले के लिए खाली कर दी थी.

टूजी घोटाला, स्टाम्प पेपर घोटाला, कृष्णा घाटी विकास निगम में हुआ भ्रष्टाचार, आईपीएल विवाद इन सबमें किसी न किसी रूप में पवार का नाम जरूर आया है

पवार, परिवार और राजनीति

महाराष्ट्र के मराठा स्ट्रांगमैन कहे जानेवाले शरद पवार का जन्म एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम गोविंदराव पवार था और उनकी मां शारदा पवार संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन की एक आंदोलनकारी थीं. ऐसा कहा जाता है कि अपनी मां का उन पर गहरा प्रभाव था और सामाजिक कार्यों के प्रति लगाव का गुण उनको मां से विरासत में मिला था.

शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले और उनके भतीजे अजीत पवार सक्रिय राजनीति में हैं. सुले बारामती से सांसद हैं और अजीत पवार कांग्रेस-राकांपा की सरकार में उपमुख्यमंत्री थे. महाराष्ट्र की राजनीति में अजीत पवार का नाम विवादित है. महाराष्ट्र में हुए सत्तर हजार करोड़ रुपये के सिंचाई घोटाले में उनका नाम आया था. इसके अलावा भी उनके ऊपर भ्रष्टाचार के कई आरोप हैं. अजीत पवार बहुत आक्रामक और महत्वाकांक्षी हैं. कहा जाता है कि उनको अमीर किसानों और बिल्डर लॉबी का पूरा समर्थन रहता है. इनको फायदा पहुंचाने के लिए अजित काम भी करते हैं. राजनीति के अलावा मीडिया के क्षेत्र में भी पवार परिवार का दखल है. शरद पवार के छोटे भाई प्रताप पवार सकाळ अखबार के सर्वेसर्वा हैं.

चुनावी रणनीति पवार साथ-साथ

पवार और विवाद

शरद पवार का नाम अक्सर ही विवादों में रहता है. टूजी घोटाला, स्टाम्प पेपर घोटाला, कृष्णा घाटी विकास निगम में हुआ भ्रष्टाचार, आईपीएल विवाद, पुणे में हुआ जमीन घोटाला इन सबमें किसी न किसी रूप में पवार का नाम जरूर आया है. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री सुधाकर राव नाईक ने पवार पर आरोप लगाया था कि पवार ने उन्हें उल्हासनगर के मशहूर अपराधी और नेता पप्पू कालानी के साथ सख्ती से न पेश आने की हिदायत दी थी. गौरतलब है कि कालानी कांग्रेस के टिकट पर दो बार चुनाव जीत चुका है. पवार के ऊपर दाऊद इब्राहिम से संबंध होने के भी आरोप लग चुके हैं.

शरद पवार और राकांपा

शरद पवार के निकटतम सिपहसालारों में से एक रह चुके संजय खोड़के कहते हैं, ‘शरद पवार बहुत ही अनुशासित जीवन जीते हैं. वह सुबह छह-साढ़े छह बजे तक उठ जाते हैं और आठ बजे से उनका लोगों से मुलाकातों का दौर शुरू हो जाता है जो रात साढ़े नौ बजे तक चलता रहता है. यह उनकी रोज की दिनचर्या है, जो चुनाव के वक्त भी ऐसी ही रहती है, बस उनके काम करने की अवधि 15 घंटे तक पहुंच जाती है.’ खोड़के आगे बताते हैं, ‘वह समय के बहुत पाबंद हैं. यदि उन्होंने किसी कार्यकर्ता को समय दिया है, तो उस दौरान कोई बड़ा नेता भी आ जाए, तो भी वह कार्यकर्ता को दिए हुए समय तक उसके साथ ही चर्चा करते हैं.’

खोड़के के मुताबिक, खेती-बाड़ी, शिक्षा, व्यापार, उद्योग- कोई भी क्षेत्र हो, उनकी जानकारी बेमिसाल होती है. उनकी एक खास बात यह है कि वह यदि किसी व्यक्ति से कुछ पांच मिनट भी चर्चा कर लेते हैं, तो उसका नाम कभी नहीं भूलते. अगली बार मिलने पर वह उसे उसके नाम से ही संबोधित करते हैं. खोड़के बताते हैं, ‘चुनावी रणनीति अलग चीज है, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर वह सभी को साथ लेकर चलते हैं. पवार साहब की सबसे खास बात यह है कि वह किसी कठिनाई से विचलित नहीं होते और संयम बरतते हैं.’

राजनीतिक विश्लेषक प्रकाश पवार कहते हैं, ‘शरद पवार को राजनीति का चाणक्य कहा जाता है. वह दो तरीके से काम करते हैं. एक तरीका है सामाजिक बदलाव लाना जैसे महिलाओं के लिए आरक्षण लाना, अन्य पिछड़े वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण की पैरवी करना. लेकिन दूसरा तरीका है राजनीतिक सेंधमारी करना, दूसरे दलों के लोगों को अपने दल में ले आना, सत्ता के लिए जोड़-तोड़ करना आदि.’

पवार के साथ 20 वर्षों तक काम कर चुके खोड़के कहते हैं, ‘उन्होंने चुनाव के वक्त बहुत मेहनत की थी, लेकिन उन्होंने जिन पर भरोसा किया, वे खरे नहीं उतर सके. विधानसभा चुनाव में पार्टी जरूर हार गई है, लेकिन पवार साहब का कद कभी कम नहीं हो सकता. उनका कद राजनीति की हार-जीत के ऊपर निकल चुका है.’

हालांकि मराठी अखबार ‘दिव्य मराठी’ के मुख्य संपादक कुमार केतकर की इस बारे में राय कुछ अलग है. तहलका से बात करते हुए वह कहते हैं,  ‘राजनीति में शरद पवार और उनकी पार्टी दोनों का कद कम हुआ है. उन्होंने भले ही कांग्रेस से गठबंधन कर रखा हो, लेकिन उनका मन कभी कांग्रेस के साथ नहीं था. वह शुरू से ही गांधी परिवार के विरोधी थे. सिर्फ सत्ता में बने रहने के लिए वह कांग्रेस के साथ थे, वरना कांग्रेस का साथ वह 2009 में ही छोड़ रहे थे जब कांग्रेस के जीतने में शुबहा था. लेकिन जब कांग्रेस की 206 सीटें आईं, तो वह कांग्रेस के साथ हो लिए.’

राजनीति में शरद पवार और उनकी पार्टी दोनों का कद कम हुआ है. उन्होंने भले ही कांग्रेस से गठबंधन कर रखा हो, लेकिन मन कभी कांग्रेस के साथ नहीं था

केतकर के मुताबिक, ‘जब 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस हारी, तभी से पवार भाजपा के संपर्क में थे. विधानसभा चुनावों के पहले ही उनके और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बीच समझौता हो गया था, जिसके अनुसार अगर भाजपा विधानसभा चुनाव अकेली लड़ेगी तो राकांपा भी चुनाव अकेली लड़ेगी. इसीलिए जैसे ही भाजपा ने शिवसेना से गठबंधन तोड़ा, राकांपा ने भी कांग्रेस का साथ छोड़ दिया और चुनाव के बाद भाजपा को बाहर से समर्थन का एलान कर दिया था. पवार हमेशा सत्ता में रहना चाहते हैं. उनकी वफादारी विचारधारा से नहीं, बल्कि सत्ता से है.’

प्रकाश भी मानते हैं कि उनके दल का प्रभाव घट रहा है. प्रकाश कहते हैं, ‘महाराष्ट्र में राकांपा का प्रभाव कम होता जा रहा है. राष्ट्रवादी कांग्रेस एक सामंतवादी पार्टी है. यह आम जनता से जुड़ी पार्टी नहीं है. यहां एक व्यक्ति की इच्छा के अनुसार काम होता है, न कि लोगों की इच्छा के मुताबिक. यह पार्टी यशवंतराव चव्हाण के मॉडल को माननेवाली पार्टी के रूप में स्थापित हुई थी, लेकिन यह लोग उनको भुला चुके हैं और बिना किसी नीति के काम करते हैं.’

प्रकाश के मुताबिक, ‘पश्चिम महाराष्ट्र और मराठवाड़ा के क्षेत्रों में भी पार्टी का प्रभाव कम हुआ है. रही बात खानदेश, विदर्भ और कोंकण की, तो पार्टी का वहां पर पहले भी इतना प्रभुत्व नहीं था. अगर भाजपा-शिवसेना की सरकार ने आनेवाले पांच साल में अच्छा काम कर दिखाया, तो राकांपा के अस्तित्व पर संकट आ सकता है.’