जल का बढ़ता निजीकरण

बिजली, इंटरनेट के बाद अब जल जैसे प्राकृतिक संसाधन को दिया जा रहा निजी हाथों में

एक पत्रकार का दायित्व होता है कि वह न केवल हो चुकी घटनाओं का विश्लेषण करे, बल्कि यह भी बताए कि क्या होने जा रहा है? वह यह भी बताए कि सरकार क्या कर रही है? किस उद्देश्य से कर रही है? देश व लोगों के सामने निकट भविष्य में सामने आने वाले ख़तरे कौन-से है?

दरअसल सरकारें तेज़ी से निजीकरण पर काम कर रही हैं, जिसे लेकर ज़्यादातर पत्रकार, बुद्धिजीवी, लेखक, नेता और समाजसेवक चुप हैं। लेकिन इससे भविष्य में कम्पनियाँ अधिक काम के बदले कम भुगतान करेंगी; जबकि जनता को हर चीज़ महँगे दामों में ख़रीदने को मजबूर होना पड़ेगा। जैसे बिजली, इंटरनेट आदि का निजीकरण होने से लोगों को इनके भारी दाम चुकाने पड़ते हैं। देश में इन दिनों खाद्यान्नों के निजीकरण की कोशिश हो रही है, तो वहीं कुछ राज्य सरकारें जल के निजीकरण पर काम कर रही हैं। हम पहले से ही जल के निजीकरण का एक नमूना यह देख रहे हैं कि पानी की एक लीटर की बोतल, जिसके अन्दर पानी साफ़ होने की कोई गारंटी नहीं है; 20-25 रुपये की मिलती है। अगर यही एक बोतल पानी हम किसी बड़ी या विदेशी कम्पनी का ख़रीदें, जो कि है हमारे ही यहाँ का; तो वह 50 रुपये से लेकर 550 रुपये से दा तक का मिलता है।

इस हिसाब से अगर पानी पर पूरी तरह पूँजीपतियों का क़ब्ज़ा हो जाएगा, तो सोचिए कि हमें हर काम के लिए पानी ख़रीदना पड़ेगा। महामारी कोरोना वायरस के दौरान बड़ी संख्या में लोग मोटी रक़म चुकाकर ऑक्सीजन ख़रीद चुके हैं। ज़ाहिर है प्रकृति के सबसे बड़े दुश्मन बन चुके मानव द्वारा जिस तेज़ी से जंगल काटे जा रहे हैं, अगर यही स्थिति रही, तो आने वाले क़रीब पाँच-सात दशकों में लोगों को साँस लेने के लिए भी ऑक्सीजन ख़रीदनी पड़ेगी। यानी जिन प्राकृतिक संसाधनों पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और जो चीज़े ईश्वर ने या कहें कि प्रकृति ने हमारे अधिकार के रूप में हमें समान रूप से प्रदान की हैं, उन पर चंद लालची और क्रूर पूँजीपतियों का क़ब्ज़ा हो जाएगा और वे इनकी कालाबाज़ारी करेंगे; इनके मनमाने दाम वसूलेंगे। विडंबना देखिए कि ये पूँजीपति मुफ़्त की चीज़े के बदले हमसे अवैध वसूली करेंगे; जिसे सरकारें वैध घोषित करेंगी!

पेयजल मीटर से शुरुआत

महाराष्ट्र का नागपुर देश का ऐसा पहला बड़ा शहर है, जहाँ की जल व्यवस्था निजी क्षेत्र के हाथों में है। अब राजस्थान में पेयजल मीटर लगाने की शुरुआत हो चुकी है। अब राजस्थान का जलदाय विभाग पायलट प्रोजेक्ट के नाम पर नल में स्मार्ट मीटर लगाकर जयपुर से इसकी शुरुआत कर रहा है। इन मीटर्स की रीडिंग सेंसर के ज़रिये आ सकेगी, जिसे कम्पनी कर्मचारी दफ़्तर में बैठे-बैठे देख सकेंगे, तो उपभोक्ता मोबाइल ऐप पर देख सकेगा कि उसने कब, कितना पानी ख़र्च किया?

हालाँकि यह प्रोजेक्ट 2017 में पिछली सरकार द्वारा लाया गया था। लेकिन इसको पाँच साल के बाद मौज़ूदा सरकार लागू कर रही है। इससे साबित हो जाता है कि किसी भी राजनीतिक दल की सरकार रहे, पूँजीपतियों का काम नहीं रुकता। क्योंकि पार्टी फंड सभी को चाहिए होता है। हालाँकि यह स्थिति केवल राजस्थान में ही नहीं है, इसकी शुरुआत उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश में भी हो चुकी है। शिमला शहर में पेयजल कम्पनी एएमआर चिप वाले 7,000 नये स्मार्ट मीटर लगाने जा रही है। मीटर लगने पर कम्पनी मीटर की रीडिंग कम्प्यूटर पर देख सकेगी और बिल जारी करेगी। इसी तर्ज पर उत्तराखण्ड सरकार भी अब राज्य में पेयजल मीटर अनिवार्य करने जा रही है। इसके पहले मध्य प्रदेश के खंडवा ज़िले में भी यह योजना लागू की गयी थी और इसका ठेका एक निजी कम्पनी को दिया गया था; पर वहाँ यह प्रयोग सफल नहीं हुआ।

इस योजना की शुरुआत प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप (पीपीपी) यानी सार्वजनिक-निजी भागीदारी के ज़रिये हो चुकी है। इसमें पब्लिक पार्टनरशिप कहाँ है? समझ नहीं आता। सरकारों को लगता है कि जल स्रोतों के रख-रखाव से लेकर वितरण तक की ज़िम्मेदारी निजी क्षेत्र के हाथों में सौंपने से जल प्रबन्धन की समस्या का समाधान किया जा सकता है। लेकिन जानकारों का मानना है कि इससे जल माफिया मनमानी करेंगे और आम आदमी जल पर अपने जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित हो जाएगा और उसे उसके इस्तेमाल के लिए उसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी।